जीवन एक मृगतृष्णा है
आवश्यकता व्यक्ति की है सीमित
रोटी, कपड़ा और मकान के निमित्त
करता रहता दिखावे में खुद को झंकृत
विलासिता की अंधी दौड़ में कर देता सब कुछ विस्मृत
जीवन है एक मृगतृष्णा
क्यों ढुंढता है राम और कृष्णा
छोड़ मोह माया की यह तृष्णा
पूर्ण होगी ईश्वर को पाने की एषणा
मिलेंगे राहों में अनेक राहगीर
कहीं अमीर तो कहीं फ़कीर
मत मार लोभ- लालसा के तीर
बदल न सकेगा तू किस्मत की लकीर
निस्वार्थता की थाम तू कमान
गर्व न कर पाकर तू झूठी शान
मत कर अपनी खूबियों का बखान
सूना रह जाएगा तेरा मकान
दीन-दुखियों से मत कर हरकत
होगी तेरे घर में बरकत
बन जा वृक्षों में मुख्य अश्वत्थ
स्वीकार कर यह सत्य शाश्वत।
स्वरचित
डॉ राखी गुप्ता
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