ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र - यह सब तो एक ही शरीर के विभिन्न भाग हैं।
ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र - यह सब तो एक ही शरीर के विभिन्न भाग हैं। विशिष्ट जातियाँ भी सभ्य समाज रूपी शरीर के विभिन्न विशिष्ट अंग हैं। सिर (माथा), मस्तिष्क (दिमाग), मुँह, नाक, कान, सीना, पेट, हृदय, फेफड़ा, लिवर, किडनी, श्वसनतंत्र, परिसंचरणतंत्र, प्रेरकतंत्र, हाथ, पैर आदि एक ही शरीर के विभिन्न विशिष्ट अंग के विशिष्ट निर्धारित कार्य की तरह सभी विशिष्ट जाति के विशिष्ट कर्म निर्धारित हैं तथा सबका अपना अलग विशिष्ट महत्व है। इनमें छोटा बड़ा और ऊंच नीच का कहीं कोई भेद नहीं है। ईश्वर द्वारा रचित प्राकृतिक दिव्य सृष्टि व्यवस्था के अनुरूप मानव शरीर के सभी अंग अपने मूल स्वभाव के अनुसार अपना मूल कर्म निरंतर स्वभावतः करते रहते हैं। मुँह का काम नाक नहीं कर सकता है। नाक का काम कान नहीं कर सकता है। कान का काम आँख नहीं कर सकता है। आँख का काम दाँत नहीं कर सकता है। मस्तिष्क का काम पिछवाड़ा का मलविसर्जनतंत्र नहीं कर सकता है। इनमें एक भी अंग की गड़बड़ी से सम्पूर्ण शरीर की व्यवस्था बिगड़ जाती है। सिर पर चोट लगने पर अथवा वातरोग के कारण मस्तिष्क के एक भी नस के दब जाने के कारण पक्षाघात लकवा हो जाता है और मानव शरीर अपंग हो जाता है। इसी प्रकार दोनों पैर कट जाने पर आदमी पूरी तरह अपंग होकर किसी काम के लायक नहीं रह जाता है। विभिन्न जाति वर्ण की व्यवस्था को छिन्नभिन्न करने का षड्यंत्र वास्तव में समाज रूपी मानव शरीर को अपंग करने का कुप्रयास है जो सम्पूर्ण मानवता के विरुद्ध विद्रोह है तथा ईश्वर द्वारा रचित सृष्टि की सम्पूर्ण व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह है।
जो लोग इस वास्तविकता को नहीं जानते मानते समझते वह तो धर्मभ्रष्ट बुद्धिभ्रष्ट पाखंडी दुष्ट म्लेच्छ हैं।
सम्पूर्ण विश्व के सभी समुदाय के सभी लोग का कर्मानुसार केवल पाँच वर्ग है:-
ब्राह्मण:- धर्मनिष्ठ सदगुणधारक संस्कारयुक्त परम्पराप्राप्त श्रेष्ठ बुद्धिजीवी।
क्षत्रिय:- धर्मनिष्ठ सदगुणधारक संस्कारयुक्त परम्पराप्राप्त श्रेष्ठ योद्धा शासक।
वैश्य:- धर्मनिष्ठ सदगुणधारक संस्कारयुक्त परम्पराप्राप्त श्रेष्ठ किसान, पशुपालक, उद्योगपति, व्यापारी, व्यवसायी।
शूद्र:- धर्मनिष्ठ सदगुणधारक संस्कारयुक्त परम्पराप्राप्त श्रेष्ठ श्रमिक।
म्लेच्छ:- धर्मभ्रष्ट, बुद्धिभ्रष्ट, सदगुणमुक्त, दुर्गुणयुक्त, पाखंडी, दुष्ट व्यक्ति।
ईश्वर द्वारा रचित सृष्टि की प्राकृतिक रचना व्यवस्था के अनुरूप सभी व्यक्ति को अपने मूल स्वभाव के अनुसार निर्धारित कर्म करने का ईश्वरीय विधान है।
मानव मस्तिष्क का कार्य पिछवाड़ा का मलविसर्जनतंत्र नहीं कर सकता है।
आँख का कार्य दाँत नहीं कर सकता है। मुँह का कार्य नाक नहीं कर सकता है। नाक का कार्य कान नहीं कर सकता है। मानव शरीर के किसी भी एक विशिष्ट अंग का कोई भी कार्य कोई दूसरा विशिष्ट अंग नहीं कर सकता है।
पिछवाड़ा के मल विसर्जन तंत्र से मानव मस्तिष्क का कार्य करवाने का प्रयास अपने आप में प्रचंड मूर्खतापूर्ण दंडनीय दुष्कर्म का स्वयंसिद्ध प्रमाण है। इस प्रकार की बात सोचना भी ईश्वर की सृष्टि रचना व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह का दंडनीय दुष्कर्म है।
धर्मभ्रष्ट, बुद्धिभ्रष्ट, सदगुणमुक्त, दुर्गुणयुक्त, पाखंडी दुष्ट म्लेच्छ लोगों के गिरोह द्वारा शासन सत्ता के सिंहासन पर विराजमान होकर ईश्वर की सृष्टि रचना व्यवस्था के विरुद्ध निरंतर विद्रोह के षड्यंत्र का दंडनीय दुष्कर्म ही संसार की समस्त समस्या का मूल कारण है।
कृष्ण बल्लभ शर्मा 'योगीराज'
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