आशिक बेचारा (कविता)
तुम्हारा मन,
कभी मुझे-
नहीं स्वीकारा।
समझती रही
निकम्मा और-
और आवारा।।
जो तेरे अपने थे,
उन्होंने समझा दिया
बस उल्टा सीधा सारा।
और उस समय
मेरे पास भी-
न समझ था न सहारा।
हालांकि चाहता था,
काश तुम मिल जाती-
और कियाभी इशारा।
पर तुम मगरुर थी,
रुप यौवन में चूर थी-
और पकड़ ली किनारा।
वो दर्द मुझे खटकता है,
तेरे लिए भटकता है-
देखने को नजारा।
खैर उन बातों को छोड़ो,
पर मुंह मत मोडो-
भामिनी, दामिनी,दारा।
बस तुम मुस्कुराती रहो,
ख्वाबों में आती रहो-
बनकर जीवन धारा।
बस इतना करो उपकार,
मेरे उपर यार-
समझ आशिक बेचारा।
---:भारतका एक ब्राह्मण.
संजय कुमार मिश्र 'अणु'
वलिदाद अरवल (बिहार)
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