ख्वावों की मल्लीका
जब उलटता हूँ कभी किताब के पन्नें,
पन्नों में एक चेहरा नजर आ जाता है।
वह एक नायाब फूल था परिजात का,
कल्पना मात्र से मन हर्षित हो जाता है ।
इंद्र की परी को तो कभी देखा नहीं,
उसकी हर अदा घायल कर जाता है।
कुलीनता की स्पष्ट झलक थी चेहरे पर,
सभ्यता की अमिट भाव उसकी आँखों में।
शर्म की लाली बिखरे उसके गालों पर,
सादगी की झलक दिखती पहनावों में।
कुछ दिनों के लिए आई थी कालेज में,
पहली नजर पड़ी,पर समा गई दिल में।
तब पहला प्यार अंकुरित हुआ था मन में,
अब तो ज्वाला धधक उठा है चितबन में।
उसकी यादों ने हमें पागल सा बना दिया,
छुपकर रोते अश्कों से तकिया भीगा दिया।
रात में नींद नहीं आती करवटें बदलते रहते,
ख्वावों मे खोये खोये खुद को कोसते रहते।
डॉ रवि शंकर मिश्र "राकेश"
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