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वो मुस्कुरा रही थी

वो मुस्कुरा रही थी।

आज सुबह प्रातःभ्रमण को
चल पड़ा बाग की ओर
देखा वो मुस्कुरा रही थी खड़ी
पकड़ कर स्नेह की डोर
अपनी मुस्कान की महक से
चतुर्दिक फैला रही थी सुवास
उसके विहँसते चेहरे को देख
मेरे मन में जगी एक आश
निकट जाकर बड़े ही प्यार से सहलाया
उसकी खुशबू से 
अपने तन मन को नहलाया
तभी एक खयाल मन में आया
क्युँ न तोड़ लूँ इसे
जाकर लगा दूँ बालों में चाहता हूँ जिसे
अरे ये क्या 
वो तो सच में टूट गई
मानो अपनी डाली से रूठ गई
मेरी चाहत को जान
मुझको अपना आशिक मान
बड़े प्यार से बोली
खिलखिलाकर अपना मुँह खोली
अगर इस तरह मेरे टूटने से
तुम खुश होते हो
मुझको खिलने से ज्यादा खुशी देते हो
इससे बड़ा क्या है मेरे जीवन का मोल
अब बस तु चुप रह कुछ भी मत बोल
मुझे झुकने दे हर पल
टूटने दे 
तेरे सारे गम ला मुझे दे
तू सदा खुश रह 
कहने का हक अब ला मुझे दे
अपनी माशुका के गले का हार बना
अपने ईश के माथे का श्रृंगार बना
या फिर देश की शान मे मर मिटने वाले
वीर जवानों के शव की चादर
मैं करती रहूँगी बराबर सबकी आदर
इसी तरह टूटकर।
....मनोज कुमार मिश्र"पद्मनाभ"।
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