संस्कृत सभी भाषाओं की जननी है

संस्कृत  सभी भाषाओं की जननी है


संकलन अश्विनी कुमार तिवारी

संस्कृत .... यह सभी भाषाओं की जननी है। नियमित भाषा, व्‍याकरण को देने वाली भाषा। संस्‍कृत इसलिए है कि यह संस्‍कारित है। एकदम संस्‍कारों से ओतप्रोत। टकसाली। कल्‍चर्ड। प्‍योर। गुणवाली। इसलिए इसको देवभाषा भी कहा गया है- गीर्वाणवाणी।
भारत के साथ इसका संबंध कभी टूट नहीं सकता। 1835 में जब मैकाले ने आंग्‍लभाषा को देश में उतारा तब कलिकाता संस्‍कृत विद्यालय के श्री जयगोपाल तर्कालंकारजी ने उक्‍त विद्यालय के संस्‍थापक प्रो. एच. एच. विल्‍सन (कालिदास के नाटकों के अनुवादक, विष्‍णुपुराण, मत्‍स्‍यपुराण के संपादक, अनुवादक) को लिखा : मैकाले रूपी शिकारी आ गया है, वह हम भाषा के मानसरोवर में विचरण करने वाले हंस रूपी संस्‍कृतजीवियों पर धनुष ताने हुए हैं और हमें समाप्‍त कर देने का संकल्‍प किए हुए है। हे रक्षक! इन व्याधों से इन अध्यापक रूपी हंसों की यदि आप रक्षा करें तो आपकी कीर्ति चिरायु होगी :
अस्मिनसंस्कृत पाठसद्मसरसित्वत्स्थापिता ये सुधी
हंसा: कालवशेन पक्षरहिता दूरं गते ते त्वयि।
तत्तीरे निवसन्ति संहितशरा व्याधास्तदुच्छित्तये
तेभ्यस्त्वं यदि पासि पालक तदा कीर्तिश्चिरं स्थास्यति।।

इस पर प्रो. विल्‍सन ने जो पत्र लिखा, वह आज भी भारतीयों के लिए एक आदर्श है -
विधाता विश्वनिर्माता हंसास्तत्प्रिय वाहनम्।
अतः प्रियतरत्वेन रक्षिष्यति स एव तान्।।
अमृतं मधुरं सम्यक् संस्कृतं हि ततोSधिकम्।
देवभोग्यमिदं यस्माद्देवभाषेति कथ्यते।।
न जाने विद्यते किन्तन्माधुर्यमत्र संस्कृते।
सर्वदैव समुन्नत्ता येन वैदेशिका वयम्।।
पंडितों की चिंता दूर करते हुए विल्सन ने यह भी लिखा :
"हमें घबराने की जरूरत नहीं है.. संस्‍कृत भारत के रक्‍त में बसी है... बकरियों के पांव तले रौंदाने से कभी घास के बीज खत्‍म नहीं हो जाते- "दूर्वा न म्रियते कृशापि सततं धातुर्दया दुर्बले।" जब तक गंगा का प्रवाह इस भूमितल पर रहेगा, जन-जन में देश प्रेम प्रवाहित होता रहेगा, संस्‍कृत का महत्‍व बना रहेगा। वह कभी समाप्‍त नहीं होगी बल्कि मौका पाकर फलेगी, फूलेगी।"
मेरा मानना है कि संस्कृत सबसे बड़ी और सबसे पुरानी तकनीकी शब्दावली की व्यवहार्य भाषा है। इसके शब्द यथा रूप विश्व ने स्वीकारे हैं। जब तक संसार में पारिभाविक और पारिभाषिक शब्दों की जरूरत होती रहेगी, संस्कृत के कीर्ति कलश उनकी पूर्ति करते रहेंगे। संसार की कोई भी भाषा हो, उसके नियम संस्कृत से अनुप्राणित रहेंगे। ( राग, रंग, शृंगार : श्रीकृष्ण)
प्रो. विल्‍सन ने तब जैसा कहा, वैसा आज तक कोई नहीं कह पाया। संस्‍कृत साहित्‍य का संपादन, अनुवाद का जो कार्य विल्‍सन ने किया, वह आज तक दुनिया की 234 यूनिवर्सिटीज के स्‍कोलर्स के लिए मानक और अनुकरण के योग्य बना हुआ है। और हाँ, उनके बाद दुनियाभर में 134 विदेशियों ने संस्कृत के लिये जो काम किया, उसकी बदौलत संस्कृत के अधिकांश ग्रन्थ और उसकी जानकारी विदेशी भाषाओं में पहले मिलती है। और, हम उन मान्यताओं को दोहराते रहे!
✍🏻डॉ0 श्रीकृष्ण "जुगनू"
बोधायनाचार्य जी एक पूर्वाचार्य हैं जिन्होंने 'विशिष्टाद्वैत' पर 'बोधायनवृत्ति' लिखी और उस बोधायनवृत्ति को अपना पूर्वपक्ष मानकर आदि शङ्कराचार्य जी ने 'शाङ्करभाष्य' लिखा और उसी को सिद्धान्तपक्ष मानकर शेषावतार रामानुजाचार्य ने 'श्रीभाष्य' का प्रणयन किया।
बोधायनाचार्य परमहंस शुकदेव जी के शिष्य थे।
इनका पूर्वाश्रम का नाम 'उपवर्षाचार्य' था।सन्यस्त होकर त्रिदण्ड ग्रहण करने के पश्चात् इनका नाम बोधायनाचार्य हुआ।
उपवर्षाचार्य के पास १०००० शिष्य विद्याध्ययन करते थे।
यह मिथिला के थे।मिथिला में आज भी बोधायनसर है जहाँ वह निवास करते थे।
दो शिष्य तो इनके जगत्प्रसिद्ध ही हैं महर्षि पाणिनी व महर्षि कात्यायन।
एक वृतान्त सुनाते हैं ••••

उपवर्षाचार्य को ऐसी विद्या व ऋतम्भरा प्रज्ञा की प्राप्ति हो गई कि उनकी कही हुई विद्या को समझने व ग्रहण करने हेतु जो बुद्धि का स्तर,मेधाशक्ति का स्तर किसी शिष्य में होना चाहिऐ वह उन्हें दिखाई नहीं पड़ा तो वे चिन्तित हो गऐ कि अब हमारी कही बात व हमारी विद्या को कौन ग्रहण करेगा?
उन्होंने निर्णय लिया कि अब हम मौन धारण कर लेंगे जब तक हमें ऐसा शिष्य नही मिल जाता जो 'श्रुतिधर' अथवा 'एकश्रुति' हो।
श्रुतधर अथवा एकश्रुति का अर्थ होता है जो केवल एक बार में कहे हुऐ को समझ भी ले और कण्ठस्थ भी कर ले।

बहुत दिन हो गऐ गुरूजी को मौन देखकर तो सारे बटुक उद्विग्न हो गऐ।सारे ब्रह्मचारियों ने गुरुमाता से प्रार्थना किया-"माता जी क्या बात हो गई; हमसे से कुछ भूल बन गई जो गुरूजी कुछ बोल ही नहीं रहे?"

गुरुमाता ने कहा -तुम लोगों से कुछ भूल नही हुई परन्तु उन्हें ऐसा शिष्य चाहिऐ जो श्रुतधर या एकश्रुति हो।यदि ऐसा कोई बालक मिल जाऐ तो तुम सब का भी कल्याण हो जाऐ।

अब सभी बटुकों ने निर्णय लिया कि हम ऐसा बालक खोजकर लाएंगे।
सभी ब्रह्मचारी सारे भारत में फैल गए।

बिहार प्रान्त के पाटलिपुत्र(पटना) में गङ्गा के किनारे एक गाँव था सायंकाल के समय दो ब्रह्मचारी वहाँ पहुँचे उनको समिधाधान करना था तो रात्रि विश्राम के लिए कोई आश्रय चाहिऐ था तो वहीं गाँव में एक ब्राह्मण के घर वह अतिथि हो गऐ।
ब्राह्मण तो भगवद्धाम जा चुके थे और घर में उनकी पत्नी व उनका पांच वर्ष का बालक था।
सूर्यास्त होने के पश्चात् वह बालक जोर-जोर से रोने लगा।बटुकों ने पूछा-माता जी यह बालक इतना क्यूं रो रहा है?
बालक की माता ने कहा कि- "बेटा निकट में ही पाटलिपुत्र में एक नाटक का मंचन आज रात्रि को हो रहा है जिसको देखने की यह जिद कर रहा है मेरा नियम है कि सूर्यास्त के बाद मैं घर से बाहर निकलती नहीं इसलिऐ यह रो रहा है।"

दौनों बटुकों ने कहा -माता जी यदि आप कहें हम आपके बालक को नाटक दिखा लाएं और हम भी नाटक देख आऐंगे गुरूकुल में तो हम यह सब देख नहीं सकते।

महिला ने कहा- ठीक है।

वे दोनों बालक को लेकर चले गए रात्रि को नाटक देखा और प्रातःकाल बालक को लेकर आ गऐ।
उन दिनों संस्कृत ही लोकभाषा थी इसलिऐ नाटक आदि का मंचन संस्कृत में ही होता था।

माता ने बालक से पूछा -बेटा तुमने नाटक देखा।
बालक ने कहा- हाँ माता जी।

माता ने कहा -बताओ तुमने क्या-क्या देखा व सुना।

अब उस पांच वर्ष के बालक ने मङ्गलाचरण से लेकर पटाक्षेप तक सभी पात्रों के सारे संवाद और शब्दावली अक्षरक्षः सुना दी।
यह देखकर हर्षातिरेक से दौनों बटुक रोने लगे।
माता ने पूछा-अरे तुम दौनों क्यों रो रहे हो?
बटुकों ने कहा -अब हमारे गुरूजी की इच्छा पूर्ण हो जाऐगी।यह बालक असाधारण है।यह बालक श्रुतधर है।
माता जी इस बालक को हमें दे दीजिऐ।हमारे गुरूजी का बड़ा यश है।
यह बालक पांच वर्ष का हो गया है और यदि ब्रह्मवर्चस्व की कामना हो तो पांचवे वर्ष में ही ब्राह्मण बालक का उपनयन संस्कार हो जाना चाहिऐ।-
"ब्रह्मवर्चस् कामंस्तु पंचवर्षब्राह्मणोपनीत।"-मनु•

माता ने बालक उन दौनों को दे दिया।उस बालक को लेकर वह उपवर्षाचार्य के पास आए।उस बालक को देखते ही उपवर्षाचार्य ने मौन तोड़ दिया।

यही बालक वार्तिककार कात्यायन हुऐ।
✍🏻पवन शर्मा

मिथिला में एक विद्वान भवनाथ मिश्र विद्यार्थियों को पढ़ाते थे। उनकी आर्थिक स्थिति अत्यंत दयनीय थी, फिर भी वे किसी से भी याचना नहीं करते थे।

भवनाथ के घर पुत्र का जन्म हुआ। दाई ने पुरस्कार माँगा। बालक की माता भवानी देवी ने भावपूर्ण ढंग से कहा -
"अभी घर में देने को कुछ भी नहीं है। इस बालक की पहली कमाई की पूरी धनराशि तुम्हें दे दूंगी।’’

दाई इस कथन पर संतुष्ट होकर बालक को आशीर्वाद दे कर चली गयी।
उस बालक का नाम रखा गया ‘शंकर’।

शंकर की आयु अभी पाँच वर्ष भी पूरी नहीं हुई थी। वह अन्य बालकों के साथ गाँव के बाहर खेल रहा था। उसी समय मिथिला के महाराज शिवसिंह देव वहाँ से गुजर रहे थे। उनकी दृष्टि शंकर पर पड़ी। चेहरे से उन्हें बालक प्रतिभाशाली मालूम हुआ। महाराज ने शंकर को बुलाकर पूछा -
‘‘बेटा ! तुम कुछ पढ़ते हो ?’’

शंकर - ‘‘जी।’’

‘‘कोई श्लोक सुनाओ।’’

‘‘स्वयं का बनाया हुआ सुनाऊँ या दूसरे का बनाया हुआ ?’’

‘‘स्वयं का बनाया हुआ सुनाओ ।’’

‘‘बालोऽहं जगदानन्द न मे बाला सरस्वती ।
अपूर्णे पञ्चमे वर्षे वर्णयामि जगत्त्रयम् ।।’’

अर्थात् हे जगत को आनंद देनेवाले (राजन्) ! मैं अभी बालक हूँ परंतु मेरी सरस्वती (विद्या) बालिका नहीं है । पाँचवाँ वर्ष अपूर्ण होने पर भी मैं तीनों लोकों का वर्णन कर सकता हूँ।

‘‘अब स्वयं का और दूसरे का मिलाकर श्लोक सुनाओ।’’

चलितश्चकितश्छन्नः प्रयाणे तव भूपते ।
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।।

अर्थात् - हे राजन् ! आपके कूच को देखकर सहस्रों पैर आंदोलित और सहस्रों सिर व सहस्रों नेत्र चकित हैं।

इतनी कम उम्र में संस्कृत का इतना ज्ञान व कुशाग्र बुद्धि देख राजा बहुत प्रसन्न हुए और अपने खजांची को बुलाकर बोले -
‘‘इस बालक को खजाने में ले जाओ और यह स्वयं जितना धन ले सके, लेने दो।’’

खजांची शंकर को ले गये। शंकर ने केवल लँगोटी पहन रखी थी, अतः उसी लँगोटी के एक भाग पर वह जितना धन ले सका, उतना लेकर घर आया।
उसने माँ को सारी बात बतायी। माता ने तुरंत उस दाई को बुलाया जिसे बालक की पहली कमाई की धनराशि देने का वचन दिया था।

दाई से आदरपूर्वक कहा - ‘‘यह शंकर की पहली कमाई
है। यह सारा धन आप ले जाओ ।’’

दाई बालक को आशीर्वाद दे प्रसन्नतापूर्वक सुवर्णमुद्राएँ, माणिक, रत्न आदि पुरस्काररूप में लेकर चली गयी । उसने उस धनराशि से गाँव में एक पोखर (तालाब) का निर्माण कराया, जिससे लोगों की सेवा हो सके। उस पोखर को लोग ‘दाई का पोखर’ कहने लगे, जिसके अवशेष आज भी बिहार में मधुबनी जिले के सरिसव गाँव में विद्यमान हैं ।
आगे चलकर शंकर मिश्र बड़े विद्वान हुए । उन्होंने वैशेषिक सूत्र पर आधारित उपस्कार ग्रंथ, खंडन खंड, खाद्य टीका रसार्णव इत्यादि अनेक ग्रंथों की रचना की ।
✍🏻अरूण शास्त्री

"भूतपूर्व वैयाकरणज्ञ 🔥भव्य-भारत"
एक समय था, जब भारत सम्पूर्ण विश्व में प्रत्येक क्षेत्र सबसे आगे था । प्राचीन काल में सभी भारतीय बहुश्रुत,वेद-वेदाङ्गज्ञ थे । राजा भोज को तो एक साधारण लकडहारे ने भी व्याकरण में छक्के छुडा दिए थे ।व्याकरण शास्त्र की इतनी प्रतिष्ठा थी की व्याकरण ज्ञान शून्य को कोई अपनी लड़की तक नही देता था ,यथा :- "अचीकमत यो न जानाति,यो न जानाति वर्वरी।अजर्घा यो न जानाति,तस्मै कन्यां न दीयते"

यह तत्कालीन लोक में ख्यात व्याकरणशास्त्रीय उक्ति है 'अचीकमत, बर्बरी एवं अजर्घा इन पदों की सिद्धि में जो सुधी असमर्थ हो उसे कन्या न दी जाये" प्रायः प्रत्येक व्यक्ति व्याकरणज्ञ हो यही अपेक्षा होती थी ताकि वह स्वयं शब्द के साधुत्व-असाधुत्व का विवेकी हो,स्वयं वेदार्थ परिज्ञान में समर्थ हो, इतना सम्भव न भी हो तो कम से कम इतने संस्कृत ज्ञान की अपेक्षा रखी ही जाती थी जिससे वह शब्दों का यथाशक्य शुद्ध व पूर्ण उच्चारण करे :-
यद्यपि बहु नाधीषे तथापि पठ पुत्र व्याकरणम्।
स्वजनो श्वजनो माऽभूत्सकलं शकलं सकृत्शकृत्॥

अर्थ : " पुत्र! यदि तुम बहुत विद्वान नहीं बन पाते हो तो भी व्याकरण (अवश्य) पढ़ो ताकि 'स्वजन' 'श्वजन' (कुत्ता) न बने और 'सकल' (सम्पूर्ण) 'शकल' (टूटा हुआ) न बने तथा 'सकृत्' (किसी समय) 'शकृत्' (गोबर का घूरा) न बन जाय। "

भारत का जन जन की व्याकरणज्ञता सम्बंधित प्रसंग "वैदिक संस्कृत" पेज के महानुभव ने भी आज ही उद्धृत की है जो महाभाष्य ८.३.९७ में स्वयं पतञ्जलि महाभाग ने भी उद्धृत की हैं ।

सारथि के लिए उस समय कई शब्द प्रयोग में आते थे । जैसे---सूत, सारथि, प्राजिता और प्रवेता ।

आज हम आपको प्राजिता और प्रवेता की सिद्धि के बारे में बतायेंगे और साथ ही इसके सम्बन्ध में रोचक प्रसंग भी बतायेंगे ।

रथ को हाँकने वाले को "सारथि" कहा जाता है । सारथि रथ में बाई ओर बैठता था, इसी कारण उसे "सव्येष्ठा" भी कहलाता थाः----देखिए,महाभाष्य---८.३.९७
सारथि को सूत भी कहा जाता था , जिसका अर्थ था----अच्छी प्रकार हाँकने वाला । इसी अर्थ में प्रवेता और प्राजिता शब्द भी बनते थे । इसमें प्रवेता व्यकारण की दृष्टि से शुद्ध था , किन्तु लोक में विशेषतः सारथियों में "प्राजिता" शब्द का प्रचलन था ।

भाष्यकार ने गत्यर्थक "अज्" को "वी" आदेश करने के प्रसंग में "प्राजिता" शब्द की निष्पत्ति पर एक मनोरंजक प्रसंग दिया है । उन्होंने "प्राजिता" शब्द का उल्लेख कर प्रश्न किया है कि क्या यह प्रयोग उचित है ? इसके उत्तर में हाँ कहा है ।

कोई वैयाकरण किसी रथ को देखकर बोला, "इस रथ का प्रवेता (सारथि) कौन है ?"

सूत ने उत्तर दिया, "आयुष्मन्, इस रथ का प्राजिता मैं हूँ ।"

वैयाकरण ने कहा, "प्राजिता तो अपशब्द है ।"

सूत बोला, देवों के प्रिय आप व्याकरण को जानने वाले से निष्पन्न होने वाले केवल शब्दों की ही जानकारी रखते हैं, किन्तु व्यवहार में कौन-सा शब्द इष्ट है, वह नहीं जानते । "प्राजिता" प्रयोग शास्त्रकारों को मान्य है ।"

इस पर वैयाकरण चिढकर बोला, "यह दुरुत (दुष्ट सारथि) तो मुझे पीडा पहुँचा रहा है ।"

सूत ने शान्त भाव से उत्तर दिया, "महोदय ! मैं सूत हूँ । सूत शब्द "वेञ्" धातु के आगे क्त प्रत्यय और पहले प्रशंसार्थक "सु" उपसर्ग लगाकर नहीं बनता, जो आपने प्रशंसार्थक "सूत" निकालकर कुत्सार्थक "दुर्" उपसर्ग लगाकर "दुरुत" शब्द बना लिया । सूत तो "सूञ्" धातु (प्रेरणार्थक) से बनता है और यदि आप मेरे लिए कुत्सार्थक प्रयोग करना चाहते हैं, तो आपको मुझे "दुःसूत" कहना चाहिए, "दुरुत" नहीं ।


उपर्युक्त उद्धरण से यह स्पष्ट है कि सारथि, सूत और प्राजिता तीनों शब्दों का प्रचलन हाँकने वाले के लिए था । व्याकरण की दृष्टि से प्रवेता शब्द शुद्ध माना जाता था । इसी प्रकार "सूत" के विषय में भी वैयाकरणों में मतभेद था । इत्यलयम् ✍🏻 संलग्न कथानक के लिये "वैदिक संस्कृत" पृष्ठ के प्रति कृतज्ञ हूँ।
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