मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ|
17 वीं शताब्दी मुगल काल में एक फ्रांसीसी यात्री बर्नियर भारत आया था । उसने अपने संस्मरण में लिखा है "मैंने कुछ ब्राह्मणों से इसाई धर्म अपनाने का आग्रह किया किन्तु उनका उत्तर सुनकर मैं चकित हो गया । उन्होंने (ब्राह्मणों ने ) अपने कानून को सारी दुनिया के लिए अच्छा बताने का प्रयास नहीं किया, न ही यह कहा कि उनका ईश्वर सिर्फ उनकी सुनता है । उन्होंने एक अजनबी को अपना धर्म अपना लेने से भी मना कर दिया और कहा कि आपका धर्म भी झूठा नहीं है, पर वह आप लोगों के लिए अच्छा है । उन्होंने यह भी कहा कि ईश्वर ने स्वर्ग लोक में जाने के लिए अलग-अलग रास्ते बनाए हैं । इसलिए आप अपने धर्म को पूरी धर्म को दुनिया का धर्म बनाने की कोशिश न करें ।"
इसी प्रकार जब कभी गांधीजी के पास उनके
प्रशंसक ईसाई ने गांधीजी से हिन्दू धर्म की दीक्षा मांगी तब उन्होंने इन्कार कर दिया । वे ऐसे लोगों से कहते थे, "जिस धर्म में तुम्हारा जन्म हुआ उसे मत छोड़ो । मेरी धर्मनिष्ठा देखकर तुम मेरी तरफ से दीक्षा की अपेक्षा क्यों रखते हो ? अपना रास्ता आप ही निकालो । दुनिया में जो कुछ अच्छा है उसको स्वीकार करने से तुम्हारा धर्म तुम्हें थोड़े ही रोकता है ? प्रगति करना यह दुनिया का स्वभाव है । धर्म भी प्रगति करते आये है। अगर अपना धर्म अधर्म ही है तो उसे छोड़ देना । लेकिन अपने धर्म में कुछ दोष या कुछ बुराई दीख पड़े तो उसे दूर करने की कोशिश करना यही अपने धर्म की सेवा है ।"।
सनातन धर्म की इसी महान परम्परा पर स्वामी विवेकानन्द ने कहा था :-- "मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृत-दोनों की शिक्षा दी है । हम लोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते वरन समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं ।
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