बालकृष्ण शिवराम मुंजे
संकलन अश्विनीकुमार तिवारी
पूरी संभावना है कि आपने बालकृष्ण शिवराम मुंजे का नाम नहीं सुना होगा। सुनेंगे भी क्यों? जो सीधे तौर पर कॉन्ग्रेस के साथ नहीं था, उस हरेक स्वतंत्रता सेनानी का नाम किराए की कलमों ने इतिहास की किताबों से मिटा दिया है। अगर एक वाक्य में उनका योगदान बताना हो तो बता दें कि पहले फिरंगी जातियों के आधार पर सेना में भर्ती लेते थे और इस व्यवस्था को हटाकर सभी की भर्ती हो सके, ये व्यवस्था बीएस मुंजे के प्रयासों से हो पाई थी। बिलासपुर के एक ब्राह्मण परिवार में 1872 में जन्मे मुंजे ने 1898 में मुंबई के ग्रांट मेडिकल कॉलेज से अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी की थी।
ये वो दौर था जब कॉन्ग्रेस में नर्म दल और गर्म दल अलग-अलग होने लगे थे। गर्म दल का नेतृत्व लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और बिपिनचंद्र पाल अर्थात लाल-बाल-पाल की तिकड़ी के हाथ में था। इस दौर तक दोनों कॉन्ग्रेसी धड़ों के बीच जूतेबाजी भी शुरू हो चुकी थी।
जब 1907 में सूरत में कॉन्ग्रेस पार्टी का अधिवेशन हो रहा था तो दोनों हिस्सों के बीच तल्खियाँ बढ़ गईं। इस वक्त बीएस मुंजे ने खुलकर तिलक का समर्थन किया और यही वजह रही कि तिलक के वो भविष्य में भी काफी करीबी रहे। पार्टी के लिए चंदा इकठ्ठा करने के कार्यक्रमों में वो तिलक के आदेश पर पूरे केन्द्रीय भारत में भ्रमण करते रहे।
बाद में जब राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने के लिए लोकमान्य तिलक ने गणेश पूजा की शुरुआत की तो उसे भी मुंजे का पूरा समर्थन मिला। पंडाल लगाने, मूर्ति बैठाने और उसे विसर्जित करने तक के कार्यक्रम के जरिए लोकमान्य तिलक ने जो व्यवस्था महाराष्ट्र में शुरू की थी, उसी को वो बाद में कोलकाता भी ले गए। कोलकाता के इस अभियान में लोकमान्य तिलक के साथ बीएस मुंजे भी थे।
आज जो आप कोलकाता के दुर्गा पूजा में विशाल पंडालों, मूर्तियों इत्यादि का आयोजन देखते हैं वो 1900 के शुरुआती दशकों में रखी गई थी। जैसा कि हर सौ वर्षों में होता ही है, शताब्दी का दूसरा दशक उस समय भी हिन्दुओं के पुनःजागरण का काल था।
मोहनदास करमचंद गाँधी की ही तरह बोअर युद्ध के दौरान बीएस मुंजे भी 1899 में मेडिकल कॉर्प्स में थे। सायमन कमीशन के विरोध, रक्षा बजट का प्रावधान अलग करवाने और समाज सुधार के कार्यों में बीएस मुंजे लगातार काम करते रहे। जब लोकमान्य तिलक की मृत्यु हो गई तब वो 1920 में कॉन्ग्रेस से अलग हो गए थे।
उनकी मोहनदास करमचंद गाँधी की ‘धर्मनिरपेक्षता’ और ‘अहिंसा’ जैसे विषयों पर घोर असहमति थी। आगे चलकर करीब 65 वर्ष की आयु में उन्होंने नासिक में भोंसला मिलिट्री अकादमी की स्थापना कर डाली। ये स्कूल आज भी जाने माने विद्यालयों में से एक है। उनके द्वारा स्थापित किए हुए कई संस्थान तो अब अपनी सौवीं वर्षगाँठ के आस-पास हैं और आश्चर्य की बात कि कोई भी बंद या सरकारी मदद माँगने वाली बुरी स्थिति में नहीं पहुँचा!
कॉन्ग्रेस से दूरी बढ़ाने के वक्त भी उनकी हिन्दू महासभा से नजदीकी कम नहीं हुई। वो डॉ. हेडगेवार के राजनैतिक गुरु थे। उनकी प्रेरणा से ही डॉ. हेडगेवार ने 1925 में आरएसएस की शुरुआत की थी। डॉ. बीएस मुंजे ने 1927 में हिन्दू महासभा के प्रमुख का पदभार सँभाल लिया था और उन्होंने 1937 में ये पद विनायक दामोदर सावरकर को दिया।
सैन्य स्कूल स्थापित करने की प्रेरणा उन्हें अपनी इटली यात्रा से मिली थी, जहाँ 1931 में वो मुसोलनी से भी मिले थे। कॉन्ग्रेस के घनघोर विरोध के बाद भी वो दो बार लंदन में गोल मेज़ सभाओं में भी सम्मिलित हुए थे। अपने पूरे जीवन वो यात्राएँ ही करते रहे।
ऐसा भी नहीं है कि उनसे सलाह लेने और मानने वालों में केवल सावरकर और डॉ. हेडगेवार ही थे। जब डॉ. भीमराव राम आंबेडकर को धर्मपरिवर्तन करना था तो उन्होंने भी डॉ. मुंजे से सलाह ली और मानी थी। डॉ. मुंजे ने उन्हें अब्रह्मिक मजहबों की तरफ जाने के बदले भारतीय धर्मों की ओर जाने की सलाह दी थी।
जब सिख होने और बौद्ध धर्म अपनाने के बीच चुनना था तो अंततः डॉ. आंबेडकर ने डॉ. बीएस मुंजे की सलाह मानते हुए बौद्ध धर्म अपनाया था। अगर आपने कभी सोचा हो कि अपने समय के हर संगठन (राजनैतिक या गैर-राजनैतिक) पर अपने विचार रखने वाले डॉ. आंबेडकर की संघ से क्यों नजदीकी थी, तो ऐसा मान सकते हैं कि डॉ. बीएस मुंजे उनके बीच की कड़ी थे।
आज डॉ. बीएस मुंजे (12 दिसम्बर 1872 – 3 मार्च 1948) की जयंती है। जब सेना में बिना किसी भेदभाव के सभी को सम्मिलित होने के अधिकार की याद करें, तो डॉ. हेडगेवार के गुरूजी, डॉ. बालकृष्ण शिवराम मुंजे को भी याद कर लीजिएगा।
#यक्ष_प्रश्न : राजन, आखिर बाबासाहेब भीमराव रामजी आंबेडकर कोरेगांव स्मारक पर 1 जनवरी 1927 को भाषण देने क्यों गए थे ?
#आदर्श_लिबरल : हे यक्षराज ! अंग्रेजों ने 1857 के विद्रोह में भाग लेने के कारण महारों को ‘नॉन-मार्शल कास्ट’ घोषित कर दिया और मई 1892 से सेना में भर्ती करने से मना कर दिया | महारों को ब्रिटिश सेना का अंग बनाने के लिए शिवराम जानबा कांबले द्वारा प्रयास किया जाता रहा जिसके फलस्वरूप प्रथम विश्वयुद्ध में महारों की दो पलटनें बनाई गयीं, लेकिन जैसे ही युद्ध समाप्त हुआ महारों की भर्ती फिर से रोक दी गयी |
काम्बले ने आंबेडकर को कोरेगांव स्मारक पर 1 जनवरी 1927 को भाषण देने का निमंत्रण भेजा | आंबेडकर के पिता स्वयं अंग्रेजों की सेना में महार सैनिक थे अतः आंबेडकर ने न केवल निमंत्रण स्वीकार किया अपितु उन्होंने महारों को सेना में पुनः सम्मिलित किये जाने के लिए लड़ाई भी लड़ी |
महारों को फिरंगियों की सेना में पुनः भर्ती करवाने के आन्दोलन के लिए ही बाबासाहेब भीमराव रामजी आंबेडकर कोरेगांव गए थे |
#यक्ष_प्रश्न : राजन पर-गतिशील कश्मीरियों का समर्थन करते हैं तो लद्दाख वालों को क्यों भूल जाते हैं?
#आदर्श_लिबरल : महाबाहो! लद्दाख में रहने वाले अधिकांश अल्पसंख्यक बौद्ध धर्मावलम्बी हैं और बौद्ध धम्म अक्सर दलित समुदाय के लोग भी अपनाते रहे हैं...
इसलिए दलितों को कभी पोलित ब्यूरो में जगह न देने वाले अल्पसंख्यक विरोधी कम्युनिस्ट लद्दाख के लोगों का समर्थन नहीं करते...
✍🏻आनन्द कुमार
इधर कई बार देखा है कि लोग पूछते हैं कि अच्छी किताबों या लेखकों के नाम बताइये, मैंने भी 2-3 बार पूछा है। लोग अक्सर ही आचार्य चतुरसेन या महापंडित श्री राहुल सांकृत्यायन का नाम लेते हैं। एक बार भी 'कन्हैय्यालाल माणिकलाल मुंशी' का नाम नहीं सुनाई देता।
के एम मुंशी का साहित्यिक परिचय थोड़ी देर में, पहले उनका राजनैतिक परिचय जान लेते हैं।
मुंशी जी गुजरात से ताल्लुक रखते हैं। स्वतन्त्रता सेनानी रहे, गांधी और पटेल के अनन्य भक्त। पटेल के बारदौली और गांधी के दांडी और असहयोग, भारत छोड़ों आंदोलनों की पहली पंक्ति में शामिल। जेल यात्राएं भी की। आजादी के पहले की सरकारों में मंत्री रहे। धर्म के आधार पर राष्ट्र-विभाजन के खिलाफ खड़े हुए और कांग्रेस के लिए अहिंसा छोड़ गृह-युद्ध के विचार का समर्थन किया। अहिंसा त्यागने का सैद्धान्तिक समर्थन इन्हें कांग्रेस से दूर ले गया, गांधी जी ने ही निकाला फिर कुछ ही समय में वापस भी बुला लिया।
संविधान निर्माण के लिए बनाई गई विभिन्न समितियों में से सबसे अधिक 11 समितियों के सदस्य थे मुंशी जी। प्रारूप समिति में 'हर व्यक्ति को समान संरक्षण' के सिद्धांत का मसविदा इन्होंने और श्री अम्बेडकर ने मिलकर तैयार किया था। गुजराती होते हुए भी हिंदी भाषा को राजभाषा का दर्जा दिलाने में इन्होंने ही सबसे प्रमुख भूमिका निभाई, जिसकी वजह से अभी कुछ दिन पहले हम सबने 'हिंदी दिवस' मनाया था। जुलाई में मनाया जाने वाला वन महोत्सव भी इन्हीं की देन है।
हैदराबाद राज्य (प्रिंसली स्टेट) के लिए ये भारत सरकार के प्रतिनिधि (एजेंट जनरल) थे। जब राजेन्द्र प्रसाद राष्ट्रपति बने तो उनकी जगह पर इन्हें 'खाद्य एवं कृषि' मंत्री बनाया गया।
जूनागढ़ के भारत में विलय होने पर पटेल ने जनसभा को कहा था कि भारत सरकार सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण कराएगी। जब पटेल और मुंशी जी मंदिर हेतु गांधी जी का आशीर्वाद लेने गए तो गांधी ने खुलकर समर्थन तो दिया पर मंदिर निर्माण में लगने वाले खर्च को सरकार के बजाय जनता से वहन करवाने के लिए कहा। खैर, मंत्रिमंडल ने 47 में फैसला लिया, पर जनवरी 48 में गांधीजी और दिसम्बर 50 में पटेल के स्वर्गवासी होने के बाद नेहरू जी पर दबाव खत्म हो गया था।
एक कैबिनेट मीटिंग में नेहरू ने कृषि मंत्री मुंशी जी को कह दिया कि आप मंदिर निर्माण पर जोर मत दीजिये, ये हिन्दू नव जागरणवाद है। मुंशी जी बिना बोले वापस आ गए और अगले दिन एक दमदार और मार्मिक चिठ्ठी लिखी जो उनकी लिखी किताब 'पिलग्रमीज टू फ्रीडम' में भी है। इस चिठ्ठी को पढ़कर राज्यों के मामले में पटेल के अनन्य सहयोगी वी पी मेनन ने कहा था कि आपके इन शब्दों के लिए मैं जीवित और आवश्यकता पड़ने पर मरने को तैयार हूं।
अगर मुंशी जी ना होते तो शायद सोमनाथ भी 'अयोध्या' होता। रूस की आयातित विचारधारा 'सामूहिक खेती' के विरोध में इन्होंने कांग्रेस छोड़ राजगोपालाचारी की 'स्वतंत्र पार्टी' फिर 'भारतीय जनसंघ' ज्वाइन कर ली थी। हालांकि फिर जल्द ही राजनीति से सन्यास ले लिया।
इन्होंने गांधी के साथ 'यंग इंडिया' और प्रेमचन्द के साथ 'हंस' का सहसम्पादन किया था, पर ये जाने जाते हैं 'भारतीय विद्या भवन' की स्थापना हेतु। इन्होंने गुजराती और इंग्लिश में 50 से अधिक किताबें लिखी।
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मेरा इनसे परिचय इनकी रचनाओं के माध्यम से हुआ। पहली रचना मैंने "कृष्णावतार" पढ़ी और मुझे इनसे मुहब्बत हो गई। कृष्णावतार मूलतः गुजराती में हैं पर इसका हिंदी अनुवाद बड़े बड़े हिंदी लेखकों से अधिक उत्तम है। कृष्णावतार 6 भागों में है और इन्हें पढ़कर आपको अलग-अलग भावनात्मक अनुभूति होती है।
पौराणिक पात्रों पर लांछन लगा देते हैं लोग आपके सामने और आप चुप रह जाते हैं क्योंकि आप सुनते आए हैं कि कृष्ण लम्पट थे और द्रौपदी ने 5 शादियां की और युधिष्ठिर अपनी पत्नी को जुए में हार गए। कृष्णावतार पढ़िए और जानिये/समझिये कि क्यों था ऐसा, एक दलित मछुआरिन का बेटा कैसे वेदव्यास बनता है, एक साधारण यादव युवक कैसे भगवान बन जाता है। 'रुक्मिणीहरण' आपके दिल में इतना प्रेम भर देता है कि आप रो देते हैं, 'महाबली भीम' हँसा-हँसा कर पेट में दर्द कर देता है।
इनके अलावा परशुराम, लोपामुद्रा, लोमहर्षिणी, 'गुजरात के नाथ' सीरीज की 4 किताबों समेत सभी किताबें पठनीय हैं। कहते हैं कि इनकी 'जय सोमनाथ' से स्पर्धा करने के लिए आचार्य चतुरसेन ने 'सोमनाथ' लिखी थी। दोनों ही किताबें पढ़िए और आप देखेंगे कि चतुरसेन जी कितने चतुर हैं।
प्रश्न है कि क्यों हम इन्हें नहीं जानते? साहित्यिक प्रतिभा में ये किसी से कम तो बिल्कुल भी नहीं है। तो क्या इनका गुजराती होना कारण है या राष्ट्रवादी होना?
इनकी कहानियां नहीं हैं कोर्स में जबकि राहुल सांकृत्यायन हाईस्कूल से लेकर यूनिवर्सिटीज तक में पढ़ाये जाते हैं। चलिए माना कि मुंशी जी ने जो ये पौराणिक पात्रों की कहानी लिखी वो सब काल्पनिक हैं, तो साहित्य तो काल्पनिक भी होता है ना। और इसमें कम से कम सकारात्मकता तो है। मानव मूल्यों का श्रेष्ठ चित्रण तो है।
कल्पना भी हो तो सकारात्मक तो हो, कुछ गुण तो सिखाये। 'वोल्गा से गंगा' में सांकृत्यायन 6000 BC में ऐसे परिवार का जिक्र करते हैं जिसमें मातृसत्तात्मक परिवार में एक बुढ़िया का राज है और सभी बलिष्ठ जवान पुरुषों पर उसका अधिकार है। जवान लड़कियों को बूढ़े पुरुषों से सन्तुष्ट होना पड़ता है। और ये सभी आपस में पिता, पुत्री, माता, भाई, बहन हैं। आचार्य चतुरसेन भी 'वैशाली की नगरवधु' में पिता-पुत्री, भाई-बहन के बीच ये गन्दगी दिखा जाते हैं।
ये कैसी कल्पनाशीलता है जो सिर्फ अश्लीलता ही चित्रित करवाती है। माना कि 8000 साल पहले इंसान सभ्य नहीं होगा पर सभ्य तो शेर और हाथी भी नहीं होते, वे भी ये सब नहीं करते, हाँ कुत्ते और सियार जरूर करते हैं। जाने क्यों कुत्तों में हीं इंसान देखे इन विद्वानों ने।
खैर,
कुछ सकारात्मक पढ़ना हो, रोना हो, हँसना हो, प्रेम करना हो, नतमस्तक होना हो, गर्व करना हो तो कन्हैय्यालाल माणिकलाल मुंशी जी को पढ़िए। इनकी किताबें बहुत महंगी भी नहीं है। खुद पढ़िए, मित्रों को गिफ्ट कीजिये।
क्योंकि जैसा Anand सर कहते हैं, "पढ़ना जरूरी है"।
बाकी,
मस्त रहें, मर्यादित रहें, महादेव सबका भला करें।
✍🏻अजित प्रताप सिंह
आइये आपको एक बड़ा सा झूठ सुनाते हैं | बरसों से सुनते आ रहे होंगे, एक बार फिर से मेरा दोहराना भी जरूरी है | आखिर समाज में मेरा भी तो योगदान बनता है !! वर्ण व्यवस्था हिन्दू धर्म में होती है | इसाई में नहीं होती, मुस्लिम भी नहीं मानते, मतलब कुल मिला के ये पाप सिर्फ़ हम लोग ही करते है |
Knight in a shining armor सुना होगा शायद, तो भाई हर सिपाही Knight नहीं हो सकता था, उसके लिए पैदा होना पड़ता है एक ख़ास वंश में | अपनी वंशावली के दस्तावेज दिखाने पड़ते थे अगर किसी भी Tournament में हिस्सा लेना हो या युद्ध में सबसे आगे खड़ा होना हो तो | दस्तावेज कुछ वैसे ही होते थे जैसे आपने कभी गया, या बनारस, या फिर प्रयाग के ब्राम्हणों के वंशावली वाले दस्तावेज देखे होंगे |
इसके अलावा अमीर लोगों को, जमींदारों को Noble Man भी कहा जाता था, अगर आप सोच रहे हैं की अमीर होना एक मात्र शर्त थी Noble होने की तो आप फिर से गलत हैं | यहूदी कभी भी noble नहीं होता था, चाहे फिर वो King Richard को उधार / क़र्ज़ देता हो या फिर King William को इस से फ़र्क नहीं पड़ता | यहूदी अछूत और इसाई न्याय का हकदार नहीं होता था | अगर शक्स्पिअर की Merchant of Venice वाला Shylock याद हो तो आपको पता है की यहूदियों के साथ कैसा व्यवहार होता था | अगर कहीं Rebecca नाम सुना है और Walter Scott की लिखी Ivanhoe जैसी किताबें पढ़ी हैं तो आप अच्छे से जानते हैं की मैं क्या बात कर रहा हूँ |
कांग्रेस ने कई अलग अलग यूनिवर्सिटी / बोर्ड बनाये थे और ICSE या CBSE बोर्ड के छात्रों ने ये किताबें शायद पढ़ रखी होंगी |
अब जरा निचले स्तर पर आते हैं, Fool वैसा ही होता था जैसे भारतीय समाज में भांड होते हैं, नाचने गाने, दिल बहलाने वाले, थोड़े विदूषक जैसे | किसान होते थे, जिनके पास कभी अपनी ज़मीन नहीं होती थी | चरवाहा होता था भेंड़ पालने के लिए, यही छोटे सिपाही होते थे | Page वो बच्चे होते थे जिन्हें चिट्ठियां पहुँचाने के लिए इस्तेमाल किया जाता था, बाद में इनमे से कुछ का promotion कर के उन्हें मंत्री भी बनाया जाता था | एक Squire होता था, ये knight के सहयोगी होते थे, knight नहीं बन पाते थे लेकिन सामान्य सिपाहियों से ज्यादा सम्मानित होते थे |
अभी भी शायद आप कहना चाहेंगे की इनपे धर्म की मुहर नहीं होती थी | ये एक सामाजिक व्यवस्था है जैसी बातें आपके मन में आ रही होंगी | तो आपको फ्रांस की Joan of Arc की कहानी देखनी चाहिए | ये महिला तलवार उठा कर स्वतंत्रता संग्राम में लड़ी थी और इसे चर्च ने सलीब पे टांग के जला दिया था | इनपर इल्ज़ाम था की वो डायन है, क्योंकि उनके छूते ही घाव ठीक हो जाते हैं | उस ज़माने में Witch Hunt की लम्बी प्रक्रिया चली थी | अभी हाल में चर्च ने इन हरकतों के लिए माफ़ी मांगी है | इनके बारे में मगर बात करना पाप है | स्त्रियों को इसाई धर्म में समानता का अधिकार है | वोट देने का अधिकार ज्यादातर इसाई मुल्कों में महिलाओं को भारत के बाद मिला ये अलग बात है |
धर्म की मुहर वैज्ञानिक खोजों पर भी लगी है, चार्ल्स डार्विन की क़िताब उनकी ही यूनिवर्सिटी में प्रतिबंधित थी और गलीलियो को घोड़ों से बाँध कर उसके चार टुकड़े कर दिए गए थे |
ध्यान रहे भारतीय धर्म पिछड़े हैं और पाश्चात्य प्रगतिशील !!!
मदन गड़रिया धन्ना गूलर आगे बढ़े वीर सुलखान,
रूपन बारी खुनखुन तेली इनके आगे बचे न प्रान।
लला तमोली धनुवां तेली रन में कबहुं न मानी हार,
भगे सिपाही गढ़ माडौ के अपनी छोड़-छोड़ तरवार।
अगर आपने ये चार लाइन पढ़ ली हैं तो शायद अंदाजा भी हो गया होगा कि ये विख्यात लोककाव्य “आल्हा-उदल” की हैं | ये किस दौर की थी ये अंदाजा करना भी मुश्किल नहीं है | लोक काव्य में उस दौर के जिन राजाओं का जिक्र आता है उसमें से एक पृथ्वीराज चौहान भी हैं | दिल्ली पर इस्लामिक आक्रमणों के शुरू होने के दौर के इस लोक काव्य की पंक्तियाँ आश्चर्यजनक हैं | नहीं अतिशयोक्ति अलंकार के कारण नहीं, इसमें मौजूद नामों के कारण |
ये युद्ध का जिक्र करते करते जिन योद्धाओं की बात करती है उनके नाम उनका दूसरा पेशा भी बता रहे हैं | गरड़िया, बारी, तेली, तमोली ! आयातित मान्यताएं तो ये स्थापित करने में जुटी होती हैं कि क्षत्रिय के अलावा बाकी सब को हथियार रखने-चलाने नहीं दिया जाता था | वो युद्ध में लड़ भी रहे हैं और उन्हें प्रबल योद्धा भी बताया जा रहा है ? इतिहास तो राजाओं की कहानी कहता है, ये राजा भी नहीं लग रहे आम लोगों के नाम क्यों हैं यहाँ ?
कहीं और से आई आयातित परम्पराओं की ही तरह भारत का इतिहास क्या सिर्फ राजाओं का इतिहास नहीं होता था ? क्या जिस ज़ात के होने की बात बार बार हिन्दुओं पर थोपी जाती है, उसमें ज के नीचे लगे नुक्ते के कारण उसका कहीं बाहर का रिवाज़ होने पर भी सोचना चाहिए ? आल्हा-उदल बुंदेलखंड के माने जाते हैं, लेकिन ये जाने माने लोक-काव्य तो आज उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश के कई इलाकों में सुना जाता है | जिसे बुंदेलखंड कहते हैं वो सीमाएं तो बदल चुकी |
फिर क्या वजह होती है कि किसी ने इन्हें किताबों की तरह छापा नहीं ? लिखा हुआ कहीं लोगों को दिखने ना लगे, लोग पढ़ कर सवाल ना करने लगें, ये वजह थी क्या ?
✍🏻आनन्द कुमार
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