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अश्विनी कुमारों की शिक्षा नीति

अश्विनी कुमारों की शिक्षा नीति

 डॉ सच्चिदानन्द प्रेमी
भारतीय शिक्षा की चिकित्सा प्रणाली से अश्विनी कुमारों को अलग कर आधुनिक शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती है ।भारतीय पूर्वजों ने अद्भुत शोध कर एवं उस पर कार्य कर उसके प्रदर्शन से विश्व को चकित कर दिया है। इसी भारतीय शिक्षा क्षेत्र की वैदिक परंपरा में देवों के वैद्यराज अश्विनी कुमारों का अवतार माना जाता है। यानी पौराणिक ग्रंथों के अनुसार सूर्य की पत्नी संज्ञा के गर्भ से वैवस्वत मनु,यम,यमुना एवं अश्विनी कुमारों( जुड़वा) का प्रादुर्भाव हुआ था ।वेदों में इन्हें आयु के देवता तथा देवताओं का वैद्य कहा गया है। पौराणिक कथा में इन्हें प्रभा एवं सूर्य का पुत्र भी बतलाया गया है ।  आज विदेश के डंके पर भारतीय चिकित्सक भले ही थिरक रहे हों, परंतु हमारे पूर्वजों ने जो ऊंचाई पाई है वह श्लाघ्य ही नहीं ,अपार-अगम्य है।
     वैदिक साहित्य में दो अश्विनी कुमारों की चर्चा है। इन्हें अश्वदेव भी कहा जाता है ।वेद में इनकी स्तुति में 50 से अधिक ॠचाएँ लिखी गई हैं ।अश्विनी कुमार आयुर्वेद के संस्थापक और आदि आचार्य माने जाते हैं । ऋग्वेद की ॠचा संख्या 9/3,9/22,9/34 के अतिरिक्त महाभारत में भी इनका बर्णन आया है। अश्विनौ शब्द तो आया है परंतु दो अश्विनीकुमारों का उल्लेख नहीं मिलता । क्योंकि आपस में जुड़े (जुड़वां) होने के कारण इन्हें द्विवचन में माना जाता है। सूर्य से उत्पन्न विद्युत धारा के प्रवाह से  उत्पन्न चुंबकत्व के कारण ये आपस में जुड़े रहते हैं ।शास्त्रों का मत है कि अश्विनी कुमारों का देवताओं के सफल चिकित्सक के रूप में प्रार्थना की गई है ।अश्विनी कुमारों के संदर्भ में कहा गया है कि बड़े अश्विनी कुमार का नासत्य से एवं छोटे अश्विनी कुमार का संबंध नास्त्र से है ।फिर भी उनका प्राक़ट्य जुगल रूप में है, इसलिए इनका जुगल रूप चिकित्सा के सिद्धांत एवं  व्यवहार पक्ष का प्रतीक माना जाता है ।ग्रंथ कहते हैं कि मधुविद्या की प्राप्ति हेतु इन्होंने आथर्वण दधीचि के सिर को काटकर घोड़े का सिर लगाकर विद्या को प्राप्त किया था ।पुनःउसी मधुविद्या का प्रयोग कर घोड़े का सिर हटाकर उनका ही अपना सिर जोड़ दिया था ।इससे उनके कृत्यों से नाराज होकर इंद्र ने पुनः उनका सिर नष्ट भ्रष्ट कर दिया था,परंतु वह अपने चिकित्सा में सफल रहे थे और उनका अपना ही सिर जुड़ा ही रह गया था ।वृद्ध एवं जरा प्राप्त जर्जर शरीर वाले च्यवन ऋषि की काया को चर्म परिवर्तित कर चिर यौवन प्रदान किया था। कहा तो जाता है कि आदि देव गणपति गणेश की सफल चिकित्सा कर उनके कटे सिर पर हाथी का सिर जोड़कर उन्होंने तीनो लोकों को चकित कर दिया था। इसी क्रम में सोमक को दीर्घायु प्रदान करना एवं वृद्धा तथा रोगी घोषा को चिर यौवना बनाना भी इन्हीं की सुकृतियों में सम्मिलित हैं ।आरोग्यता के लिए इन्होंने पाँच तरह के आमले की उत्पत्ति की थी । 
               इसके लिए हमें मधुविद्या को जानना आवश्यक है।इसका उल्लेख छांदोग्य उपनिषद् में मिलता है ।इस रहस्यमई विद्या के द्वारा कुछ भी शारीरिक परिवर्तन किया जा सकता है ।आज प्लास्टिक सर्जरी एवं सेक्स चेंज की सर्जरी,हार्ट - किडनी ट्रांसप्लांटेशन कर वैज्ञानिक चिकित्सक अपनी पीठ अपने आप ठोकते नहीं अघाते।हमारे न तो हाथ इतने बड़े हैं और नहीं पीठ इतनी चौड़ी है कि हम अपनी पीठ अपने आप थपथपा लें।
           अश्विनी कुमार आरोग्य के देवता हैं, इसलिए अगस्त की तरह इन्होंने भी आरोग्यता के लिए अपने जन्मदिवस कार्तिक शुक्ल नवमी को आँवले को उत्पन्न  किया था ।इसलिए कार्तिक शुक्ल नवमी को लोग आमले की पूजा एवं उसकी छाया में भोजन  ग्रहण करते हैं।
            वैसे हमारे पूर्वजों की शोध/ खोज पर विश्व को गर्व होना चाहिए कि मानव जाति ने मानव के कल्याण के लिए इतने बड़े-बड़े काम किए हैं ।तभी तो हमारा देश विश्व गुरु था ।आज के युवा वर्ग को भी इन जानकारियों से गुजरना चाहिए ।टाई -बाई बांधकर जूठी प्राप्ति पर अपने नाम पट्टिका( नेम प्लेट) पर विदेशी डिग्री लिखकर अपना महत्त्व बढ़ाते हैं ।विदेशों में तो भारतीय शिक्षा प्राप्त बड़े-बड़े लोग गर्व से कहते हैं," मैंने विश्व गुरु भारत में शिक्षा पाई है"।
          जब देवी देवताओं की उपलब्धता क्या कल्पना भी नहीं थी, उस समय लोग सूर्य एवं अग्नि  की पूजा करते थे। सूर्य को ज्ञान एवं शक्ति का स्रोत माना गया है ।इसीलिए ज्ञानानामाग्रगण्यम्  श्री हनुमन्त लाल जी ने सूर्य से ही सारी विद्याएँ सीखी थीं।सविता अमृत तत्व का स्रोत है ।यह जीवन में अमृतत्व को प्राप्त कराती है एवं मन में उल्लास भरती है तथा आत्मा को उसके अमृत तत्व का बोध कराती है ।चांदोग्य उपनिषद् में इस रहस्यमई विद्या का सर्वांगीण विवेचन मिलता है। इसमें प्रथम खंड के प्रथम बारह श्लोकों में बड़े ही रोचक ढंग से समाधान किया गया है ।
                           ॥ॐ असौवा आदित्सयो देव मधुतस्ययौर्रोव।
                           तिरस्वीनवँ सो ऽन्तरिक्षपुषो मरीचयःपुत्रः॥
   अर्थात-   ॐ आदित्य ही देवताओं का मधु है, यदुर्लोक ही वह तिरछा बाँस है जिस पर वह नधु लटका हुआ है, अंतरिक्ष छत्ता है और किरणे मधुमक्खियों के बच्चों के समान हैं ।
        इस मंत्र को समझने के लिए तत्व दर्शन की आवश्यकता है ।ॠषि तत्वदर्शी होते थे जिन्होंने इसकी व्याख्या की । सूर्य आधिभौतिक रूप से परमाणु है। लगातार नियमित विस्फोट होने के कारण वहां अक्षय ऊर्जा भंडार है ।इसलिए सूर्य को कभी समाप्त नहीं होने वाला ऊर्जा का स्रोत माना गया है। इसी स्रोत से योग और विनियोग के आधार पर सूर्य से अमरत्व प्राप्त कर कविवर आदि वैद्यराज अश्विनी कुमारों ने अनेक चमत्कार किए थे ।यह चमत्कार आज भी साधना के बल पर संभव है और इसे जाननेवाले इसके प्रयोग से चमत्कार कर रहे हैं।
     यह है हमारी भारतीय शिक्षा परंपरा और हमारी शिक्षा नीति । इस पर हमें भारत में और भारतीय होने का गर्व है  
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