क्षणिकाएं
सड़क पर हिसाब मांग रहा है।
ना करो जुदा माटी से हमारी पहिचान,
तसल्ली से, दिल्ली से जबाब मांग रहा है।
उसकी उगाई सौगात से हम सभी जिंदा हैं,
प्यास बुझे, पसीना जमा करने
छोटा सा तालाब मांग रहा है ।
मेहनत के पैसे मंडी में दलाल खा जाते हैं,
कुछ पैसे परिवार चलाने बच जायें राजेश,
बस यही एक छोटा ख्वाब मांग रहा है।
लो देख लो एक और भीषण हादसा,
महानुभाव, श्रीमान्।
आपको चारा (अन्न) मुहैया कराने वाला,
सड़क पर नजर आ रहा है,
बे-चारा किसान।
वो हवाई जहाज से जाकर पांच साल के लिये जाते थे जिनसे वोट मांगने,
वो टेक्टर से चलकर, आपके पास आये हैं, आज सपोट मांगने।
ऐसा ना हो कि भूमिपुत्र को होली में ना नसीब हो गुलाल
और दलाल, लगें फटाफट नोट छापने।
दिन में ही तारे दिखा दे सरकार
इस प्रकार किसान के रातभर लगें चोट जागने।
तुम अभी राह ना रखो
फतह बंगाल की,
हो ना जाये जख्मी
सतह किसान के खाल की।
तुम इंतजाम कर दो
सुलह हमारे सवाल की,
हम इंतजाम कर दें
माथे तिलक गुलाल की।
अलविदा किसान
चल पडा, अकेले बैलगाड़ी पर अन्न की गठरी दाबे मंडी की जानिब एक किसान,
रचे थे, गठरी में तस्वीर, तकदीर और बसे थे प्रान-अरमान।
अमावस की ठंडी में, मंडी मे, उसका खजाना हो गया हलाल,
आधा दाम ही मिल पाया, आधा निगल गया दलाल।
छाया था सदमा, गूंजा एक ऐसा नगमा, मिट्टी से अनाज उगाता, मिट्टी मे मिल गया,
आज एक भूमिपुत्र, इस जहां से फिर अलविदा कह गया।
उम्मीद बंधी थी, आज काले बदरा उमडे़, मेरे खलिहान के ऊपर,
कि बरसेंगे आज होले-होले मेरी किश्मत पर, तकदीर पर,भू-पर,
तब ही फलक मे बादल चल पडे़ आगे,
हम भी वापिस लाने कुछ दूर पीछे-पीछे भागे।
भागे-भागे, भाग्य का ताला फिर भी न खुला,
बदले मेरे स्वेदज का टुकड़ा ही खलिहान को मिला।
टहलते बादल ही मेरी तकदीर की पहिचान है,
हमारा पेट भरनेवाला, आकाश की जानिब टकटकी लगाये, भूखा बैठा, बदकिस्मत किसान है।
राजेश लखेरा, जबलपुर, म.प्र.।


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