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हम क्यों भूल जाते हैं स्वामी श्रद्धानंद जी का बलिदान

हम क्यों भूल जाते हैं स्वामी श्रद्धानंद जी का बलिदान 

संकलन अश्विनी कुमार तिवारी
 23 दिसंबर, स्वामी श्रद्धानंद का बलिदान दिवस । मैंने अपने साथ रहने वाले एक युवक से पूंछा ” क्या आपको पता है कि 23 दिसंबर स्वामी श्रद्धानंद का बलिदान दिवस है ” ?  उसने प्रति प्रश्न किया ” कौन स्वामी श्रद्धानंद ?”  मैं सोचने लगा कितना अकृतज्ञ है यह हिन्दू समाज। जिस स्वामी श्रद्धानंद ने 20 लाख से अधिक लोगो को पुनः हिन्दू बनाया उसे हम जानते भी नहीं और जिस साई बाबा ने हिन्दू समाज का चवन्नी भर भी भला नहीं किया उसे हम भगवान मान कर पूज रहे हैं।जिस विराट व्यक्तित्व को यह सौभाग्य प्राप्त है की उसने जामा मस्जिद से वेद मन्त्रों का पाठ किया उसे हम नहीं जानते और जो ### सारी उम्र केवल मंदिरों में ( मस्ज़िदों में नहीं ) "ईश्वर अल्लाह तेरो नाम' का गाना गाता रहा उसे हम #महात्मा कह कर पूजते है। स्वामी जी ने अपने उद्धारक स्वामी दयानंद का ऋण जिस ईमानदारी के साथ चुकाया है उस जैसे उदाहरण गिने चुने ही मिलते हैं। जब उन्होंने #गुरुकुल कांगड़ी,हरिद्वार में खोला तो सबसे पहले अपने दोनों पुत्रों, हरिश्चंद्र और इंद्र को उसमे दाखिल किया !
जलियांवाला बाग़ काण्ड के बाद अमृतसर में कांग्रेस का अधिवेशन आयोजित करवाना यह स्वामी जी की ही हिम्मत थी। जब गांधी जी के पास अफ्रीका से भारत आने के पैसे नहीं थे तब स्वामी जी ने ही उन्हें 1500 रुपए भेजे थे जिससे वो भारत आ पाये थे।उस समय के 1500 रुपए की कीमत जानते हैं आप और इस उपकार का गांधी जी ने यह बदला दिया की स्वामी श्रद्धानंद के हत्यारे अब्दुल रशीद को अपना भाई कहा और हत्यारे रशीद को निर्दोष कहा ! स्वामी श्रद्धानंद जी को अगर हम वास्तव में श्रद्दांजलि देना चाहते हैं तो मेरा हर हिन्दू भाई से अनुरोध है की वो कम से कम एक बार स्वामी जी की आत्मकथा ” कल्याण मार्ग का पथिक ” अवश्य पढे।

जिन्होंने इतिहास के उन पन्नो को पलटा है, जब गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के विरुद्ध लड़ाई लड़ रहे थे, तब उन्होंने आर्थिक सहायता के लिये अभ्यर्थना भारत से की | उन दिनों गुरुकुल कांगड़ी में २-३ अंग्रेजी अख़बार आते थे | स्वामी श्रद्धानंद ने उन अखबारों के आधार पर गांधीजी की सहायता करने की सोची | गुरुकुल के छात्रों ने दिसम्बर की ठण्ड में गंगा किनारे कुछ श्रम कर कुछ रुपये इकठ्ठे करके ‘गुरुकुल सहायता’ के नाम से उनको भेजे |
स्वामी श्रद्धानंद आयु, ज्ञान, अनुभव तथा सेवा में गांधी से श्रेष्ठ और ज्येष्ठ तो थे ही | इस कारण गांधी उन्हें बड़े आदर से ‘बड़े भाई जी’ शब्द से सम्बोधित किया करते थे | स्वामी श्रद्धानंद कांग्रेस में देश सेवा हेतु शामिल हुए थे, परन्तु हिन्दू-मुस्लिम एकता के नाम पर मुसलमानों की चापलूसी, हिन्दू हितो की अपेक्षा, खिलाफत आन्दोलन को समर्थन, दंगो की निन्दा तक न करना, अछूतों (दलित) कहे जाने वाले ८ करोड़ हिन्दुओ के हित में कोई कदम न उठाना जैसे अनेक विषय थे जिनके कारण स्वामीजी को कांग्रेस से अलग होना पड़ा | भारतीय आश्रम-व्यवस्था में वानप्रस्थी को ‘महात्मा’ शब्द से ही सम्बोधित किया जाता है |  उन दिनों जब गुरुकुल का वार्षिकोत्सव था, गांधी स्वामीजी से मिलने पहुंचे थे | स्वामीजी उनको कोई उपहार या भेंट देना चाहते थे | ऋषि-मुनियों की परम्परा को मानते हुए स्वामीजी ने वार्षिकोत्सव के अंतिम दिन लाखों दर्शकों की उपस्थिथि में गांधी से कहा “आप मुझे अपना बड़ा भाई मानते हैं, इस बड़े भाई के पास तुम्हे देने के लिये के लिये एक ही वस्तु है | मैं अपना महात्मा (तब स्वामीजी महात्मा मुंशीराम के नाम से जाने जाते थे) उपाख्य इस अवसर पर आपको सादर भेंट करता हूँ | इसे अभी स्वीकार करलो | फिर क्या था, लाखों लोगों ने करतल ध्वनि की | कुछ लोग जानबूझकर इस घटना छिपाते हैं और मिथ्या घटना तक बुनते हैं की ये उपाधि गांधी को रविन्द्रनाथ टैगोर ने दी थी | यह प्रयास गुरुकुल और स्वामी श्रद्धानंद, आर्य समाज और ऋषि दयानन्द के ओर से ध्यान हटाने के लिये किया जाता है जो की एक अक्षम्य अपराध है |

१९१९ में हुए जलियांवाला कांड के कारण भयभीत जनता ने एक जुलूस निकला जिसका नेतृत्व स्वामी श्रद्धानंद कर रहे थे | जब जुलूस चांदनी चौक पहुंचा तो वहां मौजूद सेना की टुकड़ी में एक सिपाही ने बन्दूक स्वामीजी के सीने पर तान दी | स्वामीजी ने सिंहगर्जना करते हुए अपने छाती पर पड़ी चादर हटा दी और
कहा “साहस है तो चलाओ गोली” लाखों की भीड़ का नेतृत्व करने वाले संन्यासी दुनिया को गरजते देख रही थी | कहते हैं इस घटना के पश्चात ३ दिनों तक पूरे दिल्ली प्रदेश में स्वामीजी का अघोषित राज कायम रहा | हिन्दू ही नही सैकड़ो मुस्लिम इस वीतराग संन्यासी के पास आते और अपनी समस्यायों का समाधान
पाकर संतुष्ट होकर जाते | स्वामी श्रद्धानंद की अद्वितीय प्रभाव की खबर गांधी के कान तक पहुंचायी गयी|  गांधी अपने प्रभाव की बागडोर फिसलते देखने लगे | उनमें ईर्ष्या की आग भड़क उठी | जिन्होंने गांधी के राजनैतिक क्रियाकलापों को नज़दीक से देखा है, उनका स्पष्ट कथन है कि गांधी अपने बराबर किसी अन्य
नेता को उठते नही देख सकते थे | उन्होंने अपने मार्ग में आने वाले हर नेता को चाहे वो नरम दल का रहा हो या गरम दल का, उसे किसी भी प्रकार हटाकर अपना मार्ग प्रशस्त किया | और ये एक कटु सत्य है कि उनकी इस राजनीति का पहला शिकार स्वामी श्रद्धानंद ही बने थे |

दिल्ली की जामा मस्जिद के गुम्बद से स्वामीजी ने यह वेदमंत्र पढ़ा था- 
“त्वं हि पिता वसो त्वं माता सखा त्वमेव । शतक्रतो बभूविथ । अधा ते सुम्नमी महे ।।”

संसार के इतिहास की ये एकलौती घटना है जब ‘एक काफ़िर’ मस्जिद के मिम्बर से वेदमंत्र का उच्चारण कर रहा था | इसके बाद मुसलमानों ने अन्य मस्जिदों में भी उनके व्याख्यान करवाये | मुसलमानों पर स्वामीजी के अमिट प्रभाव की खबर गांधी को लगी | अपनी लोकप्रियता के आड़े आते श्रद्धानंद उनको अपनी व्यक्तिगत पूजा में बाधा लगे | टर्की के बादशाह और अंग्रेजो का संघर्ष को लेकर ‘खिलाफत आन्दोलन’ जो की भारत के लिये निरर्थक था, गांधी ने मुस्लिम तुष्टिकरण के लिये अकारण ही ये आन्दोलन छेड़ जनशक्ति को भ्रमित किया| इससे कई नेता गांधी से असंतुष्ट होकर संघठन से अलग होने लगे | इनमे स्वामीजी भी थे | कोड़ोनाडा कांग्रेस सम्मलेन में देश के ८ करोड़ अछूतों के उद्धार की जो घृणित योजना बनी, उसके कारण भी काफी असंतोष फैला | योजना के मुताबिक अछूतों को हिन्दू और मुसलमानों में बराबर बांटने की बात कही गयी | यानि हिन्दू समाज के अभिन्न अंग करीब ४ करोड़ लोगों को सीधे सीधे इस्लाम की गोदी में सौंपने का षड़यंत्र था | ये बात स्वामीजी के लिये असहनीय थी क्यूंकि उन्होंने तो अपना जीवन ही अछूतों के उद्धार को समर्पित कर दिया था | वे कांग्रेस से सदा के लिये अलग हो गये | उनके पीछे पीछे सेठ बिड़ला और मदन मोहन मालवीयजी ने भी कांग्रेस छोड़ दी | इस घटना ने गांधी की ईर्ष्या की आग को और भड़का दिया | उन्होंने अपने पत्रों में आर्यसमाज और स्वामीजी के विरुद्ध विषवमन किया और उनके फैलाये सांप्रदायिक जाल ने आखिर अपना रंग दिखाया और २३ दिसम्बर १९२६ को स्वामी श्रद्धानंद की हत्या एक मुस्लिम के हांथो करा दी गयी | स्वामीजी की शहादत पर गांधी ने भी ऐसी वीरोचित मृत्यु की कामना की थी | वैसी मृत्यु तो खैर उनको नही मिली पर भारत के बंटवारे के कारण लाखों-करोड़ो हिन्दुओ की आँहों से भरी मृत्यु अवश्य मिली | भगवान सबकी इच्छा पूर्ण नही करता | पर स्वामीजी का बलिदान व्यर्थ नही गया | करोड़ो आर्यसमाजी सदा के लिये कांग्रेस से अलग हो गये और कांग्रेस मात्र एक सांप्रदायिक पार्टी बनकर रह गयी |

स्वामीश्रद्धानंदजी(२२ फरवरी १८५६ - २३ दिसंबर १९२६) पृष्ठभूमि

वैदिक धर्म, वैदिक संस्कृति, और आर्यों की रक्षा के लिए, मरणासन्न अवस्था से उसे पुनः प्राणवान एवं गतिवान बनाने के लिए और उसे सर्वोच्च शिखर पर पहुंचाने के लिये आर्य समाज ने सैंकड़ों बलिदान दिए हैं। और उसमें प्रथम पंक्ति के प्रथम पुष्प हैं स्वामी श्रद्धानंद जी।

श्रद्धानंद जी भारत के शिक्षाविद, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा आर्यसमाज के संन्यासी थे जिन्होंने महर्षि दयानंद सरस्वती जी की शिक्षाओं का प्रसार किया। वे भारत के उन महान राष्ट्रभक्त सन्यासियों में अग्रणी थे, जिन्होंने अपना जीवन स्वाधीनता, स्वराज्य, शिक्षा तथा वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर दिया था। उन्होंने गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय आदि शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना की और हिन्दू समाज व भारत को संगठित करने तथा १९२० के दशक में शुद्धि आन्दोलन चलाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।

जीवन_परिचय 


स्वामी श्रद्धानन्द (मुंशीराम विज) का जन्म २२ फरवरी सन् १८५६ (फाल्गुन कृष्ण त्र्योदशी, विक्रम संवत् १९१३) को पंजाब प्रान्त के जालन्धर जिले के #तलवान ग्राम में एक खत्री परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री नानकचन्द विज ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा शासित यूनाइटेड प्रोविन्स (वर्तमान उत्तर प्रदेश) में पुलिस अधिकारी थे। उनके बचपन का नाम बृहस्पति विज और मुंशीराम विज था, किन्तु मुन्शीराम सरल होने के कारण अधिक प्रचलित हुआ।

शिक्षा

पिता का स्थानान्तरण अलग-अलग स्थानों पर होने के कारण उनकी आरम्भिक शिक्षा अच्छी प्रकार नहीं हो सकी। लाहौर और जालंधर उनके मुख्य कार्यस्थल रहे। एक बार आर्य समाज के संस्थापक स्वामी #दयानन्द__सरस्वती वैदिक-धर्म के प्रचारार्थ बरेली पहुंचे। पुलिस अधिकारी नानकचन्द विज अपने पुत्र मुंशीराम विज को साथ लेकर स्वामी दयानन्द सरस्वती जी का प्रवचन सुनने पहुँचे। युवावस्था तक मुंशीराम विज ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते थे। लेकिन स्वामी दयानन्द जी के तर्कों और आशीर्वाद ने मुंशीराम विज को दृढ़ ईश्वर विश्वासी तथा वैदिक धर्म का अनन्य भक्त बना दिया।

वे एक सफल वकील बने तथा काफी नाम और प्रसिद्धि प्राप्त की। आर्य समाज में वे बहुत ही सक्रिय रहते थे।
वकालत के साथ आर्य समाज के #जालंधर जिला अध्यक्ष के पद से उनका सार्बजनिक जीवन प्रारम्भ हुआ। 

महर्षि दयानंद के महाप्रयाण के बाद उन्होने स्वयं को स्व-देश, स्व-संस्कृति, स्व-समाज, स्व-भाषा, स्व-शिक्षा, नारी कल्याण, दलितोत्थान, स्वदेशी प्रचार, वेदोत्थान, पाखंड खडंन, अंधविश्‍वास उन्मूलन और धर्मोत्थान के कार्यों को आगे बढ़ाने में पूर्णतः समर्पित कर दिया।

 गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना, अछूतोद्धार, शुद्धि, सद्धर्म प्रचार, पत्रिका द्वारा धर्म प्रचार, सत्य धर्म के आधार पर साहित्य रचना, वेद पढ़ने व पढ़ाने की व्यवस्था करना, धर्म के पथ पर अडिग रहना, आर्य भाषा के प्रचार तथा उसे जीवीकोपार्जन की भाषा बनाने का सफल प्रयास, आर्यों की उन्नति के लिए हर प्रकार से प्रयास करना आदि ऐसे कार्य हैं जिनके फलस्वरुप स्वामी श्रद्धानंद अनंत काल के लिए अमर हो गए।

उनका विवाह श्रीमती शिवा देवी के साथ हुआ था। जब श्रद्धानंद जी ३५ वर्ष के थे तभी शिवा देवी स्वर्ग सिधारीं। उस समय उनके दो पुत्र और दो पुत्रियां थीं। सन् १९१७ में उन्होने सन्यास धारण कर लिया और स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से विख्यात हुए।

गुरुकुल की स्थापना 

स्वयं की बेटी अमृत कला को जब उन्होंने "ईसा-ईसा बोल, तेरा क्या लगेगा मोल" गाते सुना तो घर-घर जाकर चंदा इकट्ठा कर गुरुकुल कांगडी विश्वविद्यालय की स्थापना हरिद्वार में कर अपने बेटे हरीश्चंद्र और इंद्र को सबसे पहले भर्ती करवाया। स्वामी जी का विचार था कि जिस समाज और देश में शिक्षक स्वयं #चरित्रवान नहीं होते उसकी दशा अच्छी हो ही नहीं सकती। उनका कहना था कि हमारे यहां टीचर हैं, प्रोफ़ेसर हैं, प्रिसिंपल हैं, उस्ताद हैं, मौलवी हैं पर आचार्य नहीं हैं। आचार्य अर्थात् आचारवान व्यक्ति की महती आवश्यकता है। चरित्रवान व्यक्तियों के अभाव में महान से महान व धनवान से धनवान राष्ट्र भी समाप्त हो जाते हैं।

उन्होंने स्वराज्य हासिल करने, देश को अंग्रेजी दासता से छुटकारा दिलाने और विधर्मी बने हिंदुओं का शुद्धिकरण करने, #दलितों को उनका अधिकार दिलाने और पश्चिमी शिक्षा की जगह वैदिक शिक्षा प्रणाली गुरुकुल के मुताबिक शिक्षा का प्रबंध करने जैसे अनेक कार्य करने मे स्वयं को तिल तिल लगा दिया।

अपने आरम्भिक जीवनकाल में स्वामी श्रद्धानन्द
सन् १९०१ में मुंशीराम विज ने अंग्रेजों द्वारा जारी शिक्षा पद्धति के स्थान पर वैदिक धर्म तथा भारतीयता की शिक्षा देने वाले संस्थान "#गुरुकुल" की स्थापना की। हरिद्वार के कांगड़ी गांव में गुरुकुल विद्यालय खोला गया। इस समय ये मानद विश्वविद्यालय है जिसका नाम गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय है। गांधी उन दिनों अफ्रीका में संघर्षरत थे। महात्मा मुंशीराम विज जी ने गुरुकुल के छात्रों से १५०० रुपए एकत्रित कर गांधी को भेजे।

 गांधी जब अफ्रीका से भारत लौटे तो वे गुरुकुल पहुंचे तथा महात्मा मुंशीराम विज तथा राष्ट्रभक्त छात्रों के समक्ष नतमस्तक हो उठे। 

पत्रकारिता एवं हिन्दी सेवा

उन्होने पत्रकारिता में भी कदम रखा। वे उर्दू और हिन्दी भाषाओं में धार्मिक व सामाजिक विषयों पर लिखते थे। बाद में स्वामी दयानन्द सरस्वती का अनुसरण करते हुए उन्होंने देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी को प्राथमिकता दी। उनका पत्र सद्धर्म पहले उर्दू में प्रकाशित होता था और बहुत लोकप्रिय हो गया था। किन्तु बाद में उन्होंने इसको उर्दू के बजाय #देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी में निकालना आरम्भ किया। 

इससे इनको आर्थिक नुकसान भी हुआ। उन्होने दो पत्र भी प्रकाशित किये, हिन्दी में अर्जुन तथा उर्दू में तेज। जलियांवाला काण्ड के बाद अमृतसर में कांग्रेस का ३४वां अधिवेशन दिस्म्बर १९१९ को हुआ स्वामी श्रद्धानन्द जी ने स्वागत समिति के अध्यक्ष के रूप में अपना भाषण हिन्दी में दिया और #हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किए जाने का मार्ग प्रशस्त किया।

स्वतन्त्रता आन्दोलन 

उन्होने स्वतन्त्रता आन्दोलन में बढ-चढकर भाग लिया। गरीबों और दीन-दुखियों के उद्धार के लिये काम किया। स्त्री-शिक्षा का प्रचार किया। सन् १९१९ में स्वामी जी ने दिल्ली में जामा मस्जिद क्षेत्र में आयोजित एक विशाल सभा में भारत की स्वाधीनता के लिए प्रत्येक नागरिक को पांथिक मतभेद भुलाकर एकजुट होने का आह्वान किया था।

शुद्धि आंदोलन

स्वामी श्रद्धानन्द ने जब कांग्रेस के कुछ प्रमुख नेताओं को "मुस्लिम तुष्टीकरण की घातक नीति" अपनाते देखा तो उन्हें लगा कि यह नीति आगे चलकर राष्ट्र के लिए विघटनकारी सिद्ध होगी। इसके बाद कांग्रेस से उनका मोहभंग हो गया। दूसरी ओर कट्टरपंथी मुस्लिम तथा ईसाई हिन्दुओं का धर्मान्तरण कराने में लगे हुए थे। स्वामी जी ने असंख्य व्यक्तियों को #आर्य_समाज के माध्यम से पुनः वैदिक धर्म में दीक्षित कराया। 

उनका सर्बाधिक महानतम कार्य था, वह शुद्धि सभाओं का गठन उनका विचार था कि अज्ञान, स्वार्थ व प्रलोभन के कारण धर्मांतरण कर बिछुड़े स्वजनों की शुद्धि करना देश को मजबूत करने के लिए परम आवश्यक है, इसलिये जहाँ-जहाँ आर्य समाज थे, वहाँ-वहाँ शुद्धि सभाओं का गठन कराया गया और धीरे धीरे शुद्धि के इस प्रयास ने आन्दोलन का रूप ले लिया| स्वामी जी ने पश्चिम उत्तर प्रदेश के ८९ गांवों के हिन्दू से हुए मुसलमानों को पुनः हिन्दू धर्म में शामिल कर आदि गुरु शंकराचार्य के द्वारा शुरू की परंपरा को पुनर्जीवित किया

उनने गैर-हिन्दुओं को पुनः अपने मूल धर्म में लाने के लिये शुद्धि नामक आन्दोलन चलाया और बहुत से लोगों को पुनः हिन्दू धर्म में दीक्षित किया। स्वामी श्रद्धानन्द पक्के आर्यसमाज के सदस्य थे, किन्तु सनातन धर्म के प्रति दृढ़ आस्थावान पंडित मदनमोहन मालवीय तथा पुरी के शंकराचार्य स्वामी भारतीकृष्ण तीर्थ को गुरुकुल में आमंत्रित कर छात्रों के बीच उनका प्रवचन कराया था।

वकालत के साथ आर्य समाज के जालंधर जिला अध्यक्ष के पद से उनका सार्बजनिक जीवन प्रारम्भ हुआ महर्षि दयानंद के महाप्रयाण के बाद उन्होने स्वयं को स्व-देश, स्व-संस्कृति, स्व-समाज, स्व-भाषा, स्व-शिक्षा, नारी कल्याण, दलितोत्थान, स्वदेशी प्रचार, वेदोत्थान, पाखंड खडंन, अंधविश्‍वास उन्मूलन और धर्मोत्थान के कार्यों को आगे बढ़ाने में पूर्णतः समर्पित कर दिया। 

गुरुकुल कांगड़ी की स्थापना, अछूतोद्धार, शुद्धि, सद्धर्म प्रचार, पत्रिका द्वारा धर्म प्रचार, सत्य धर्म के आधार पर साहित्य रचना, वेद पढ़ने व पढ़ाने की व्यवस्था करना, धर्म के पथ पर अडिग रहना। आर्य भाषा के प्रचार तथा उसे जीवीकोपार्जन की भाषा बनाने का सफल प्रयास किया।

हत्या

२३ दिसंबर, १९२६ को अब्दुल रशीद नामक एक उन्मादी युवक ने धोखे से गोली चलाकर महान् विभूति की हत्या कर दी। ये दरिंदा स्वामी जी से मिलकर इस्लाम पर चर्चा करने के लिए एक आगंतुक के रूप में नया बाज़ार, दिल्ली स्थित उनके निवास गया था। उनकी हत्या के दो दिन बाद अर्थात २५ दिसम्बर, १९२६ को गुवाहाटी में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में जारी शोक प्रस्ताव में जो कुछ कहा वह स्तब्ध करने वाला था। 

गांधी के शोक प्रस्ताव के उद्बोधन का एक उद्धरण इस प्रकार है

 “मैंने अब्दुल रशीद को भाई कहा और मैं इसे दोहराता हूँ। मैं यहाँ तक कि उसे स्वामी जी की हत्या का दोषी भी नहीं मानता हूँ। वास्तव में दोषी वे लोग हैं जिन्होंने एक दूसरे के विरुद्ध घृणा की भावना को पैदा किया। इसलिए यह अवसर दुख प्रकट करने या आँसू बहाने का नहीं है।“

गांधी ने अपने भाषण में ये भी कहा,”… मैं इसलिए स्वामी जी की मृत्यु पर शोक नहीं मना सकता। हमें एक आदमी के अपराध के कारण पूरे समुदाय को अपराधी नहीं मानना चाहिए। मैं अब्दुल रशीद की ओर से वकालत करने की इच्छा रखता हूँ।“ 

उसने आगे कहा कि “समाज सुधारक को तो ऐसी कीमत चुकानी ही पढ़ती है। स्वामी श्रद्धानन्द जी की हत्या में कुछ भी अनुपयुक्त नहीं है। “अब्दुल रशीद के धार्मिक उन्माद को दोषी न मानते हुये गांधी ने कहा कि “…ये हम पढ़े, अध-पढ़े लोग हैं जिन्होंने अब्दुल रशीद को उन्मादी बनाया। स्वामी जी की हत्या के पश्चात हमें आशा है कि उनका खून हमारे दोष को धो सकेगा, हृदय को निर्मल करेगा और मानव परिवार के इन दो शक्तिशाली विभाजन को मजबूत कर सकेगा।

यहाँ ये बताना आवश्यक है कि स्वामी श्रद्धानन्द ने स्वेछा एवं सहमति के पश्चात पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मलखान राजपूतों को शुद्धि कार्यक्रम के माध्यम से #हिन्दू धर्म में वापसी कराई। शासन की तरफ से कोई रोक नहीं लगाई गई थी जबकि ब्रिटिश काल था। हत्या का कारण कुछ भी हो, हत्या हत्या होती है, अच्छी या बुरी नहीं। अब्दुल रशीद को भाई मानना, और उसे निर्दोष कहना, गांधी को महात्मा के पद से नीचे गिराता है।

देश की अनेक समस्याओं तथा हिंदोद्धार हेतु उनकी एक पुस्तक ‘ हिंदू सॉलिडेरिटी-सेवियर ओफ़ डाइंग रेस ‘अर्थात् ‘ हिंदू संगठन – मरणोन्मुख जाति का रक्षक ‘ आज भी हमारा मार्गदर्शन कर रही है। राजनीतिज्ञों के बारे में स्वामी जी का मत था कि भारत को सेवकों की आवश्यकता है लीडरों की नहीं। 

श्री राम का कार्य इसीलिए सफ़ल हुआ क्योंकि उन्हें हनुमान जैसा सेवक मिला। स्वामी दयानन्द का कार्य अधूरा पड़ा है जो तभी पूरा होगा जब दयानन्द रूपी राम को भी #हनुमान जैसे सेवक मिलेंगे। वह सच्चे अर्थों में स्वामी दयानन्द के हनुमान थे जो राष्ट्र की सेवा के लिए तिल-तिल कर जले। 

महर्षि दयानन्द के इस अपूर्व सेनानी को शत् शत् नमन् एवम् विनम्र श्रद्धांजलि। हम सभी को स्वामी श्रद्धानंद के बलिदान को याद करना चाहिए तथा उनके विचारों को अपने जीवन में प्रयुक्त करना चाहिए।

स्वामी श्रद्धानंद की हत्या सेक्युलर थी और गांधी की हत्या सांप्रदायिक ?

23 दिसंबर, 1926 को अब्दुल रशीद नामक एक उन्मादी युवक ने धोखे से गोली चलाकर स्वामी जी की हत्या कर दी। यह युवक स्वामी जी से मिलकर इस्लाम पर चर्चा करने के लिए एक आगंतुक के रूप में नया बाज़ार, दिल्ली स्थित उनके निवास गया था। वह स्वामी जी के शुद्धि कार्यक्रम से पागलपन के स्तर तक रुष्ट था। इस घटना से सभी दुखी थे क्योंकि स्वामी दयानन्द सरस्वती के दिखाये मार्ग पर चलने वाले इस आर्य सन्यासी ने देश एवं समाज को उसकी मूल की ओर मोड़ने का प्रयास किया था। गांधी जी, जिन्हे स्वामी श्रद्धानंद ने ‘महात्मा’ जैसे आदरयुक्त शब्द से संबोधित किया, और जो उनके नाम के साथ नियमित रूप से जुड़ गया, ने उनकी हत्या के दो दिन बाद अर्थात 25 दिसम्बर, 1926 को गोहाटी में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में जारी शोक प्रस्ताव में जो कुछ कहा वह स्तब्ध करने वाला था। महात्मा गांधी के शोक प्रस्ताव के उद्बोधन का एक उद्धरण इस प्रकार है “मैंने अब्दुल रशीद को भाई कहा और मैं इसे दोहराता हूँ। मैं यहाँ तक कि उसे स्वामी जी की हत्या का दोषी भी नहीं मानता हूँ। वास्तव में दोषी वे लोग हैं जिन्होंने एक दूसरे के विरुद्ध घृणा की भावना पैदा किया। इसलिए यह अवसर दुख प्रकट करने या आँसू बहाने का नहीं है।“ यहाँ यह बताना आवश्यक है कि स्वामी श्रद्धानन्द ने स्वेछा एवं सहमति के पश्चात पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मलखान राजपूतों को शुद्धि कार्यक्रम के माध्यम से हिन्दू धर्म में वापसी कराई। शासन की तरफ से कोई रोक नहीं लगाई गई थी जबकि ब्रिटिश काल था।
यहाँ यह विचारणीय है कि महात्मा गांधी ने एक हत्या को सही ठहराया जबकि दूसरी ओर अहिंसा का पाठ पढ़ाते रहे। हत्या का कारण कुछ भी हो, हत्या हत्या होती है, अच्छी या बुरी नहीं। अब्दुल रशीद को भाई मानते हुए उसे निर्दोष कहा। इतना ही नहीं गांधी ने अपने भाषण में कहा,”… मैं इसलिए स्वामी जी की मृत्यु पर शोक नहीं मना सकता।…हमें एक आदमी के अपराध के कारण पूरे समुदाय को अपराधी नहीं मानना चाहिए। मैं अब्दुल रशीद की ओर से वकालत करने की इच्छा रखता हूँ।“ उन्होने आगे कहा कि “समाज सुधारक को तो ऐसी कीमत चुकानी ही पढ़ती है। स्वामी श्रद्धानन्द जी की हत्या में कुछ भी अनुपयुक्त नहीं है।“ अब्दुल रशीद के धार्मिक उन्माद को दोषी न मानते हुये गांधी ने कहा कि “…ये हम पढे, अध-पढे लोग हैं जिन्होने अब्दुल रशीद को उन्मादी बनाया।…स्वामी जी की हत्या के पश्चात हमे आशा है कि उनका खून हमारे दोष को धो सकेगा, हृदय को निर्मल करेगा और मानव परिवार के इन दो शक्तिशाली विभाजन को मजबूत कर सकेगा।“(यंग इण्डिया, दिसम्बर 30, 1926)। संभवतः इन्हीं दो परिवारों (हिन्दू एवं मुस्लिम) को मजबूत करने के लिए गांधी जी के आदर्श विचार को मानते हुए उनके पुत्र हरीलाल और पोते कांति ने हिन्दू धर्म को त्याग कर इस्लाम स्वीकार कर लिया। महात्मा जी का कोई प्रवचन इन दोनों को धर्मपरिवर्तन करने से रोकने में सफल नहीं हो पाया। सर्वप्रथम महर्षि दयानन्द सरस्वती ने ही शुद्धि कार्यक्रम आयोजित कर देहरादून के एक युवक को वैदिक धर्म में प्रवेश कराया। बाद में स्वामी श्रद्धानन्द ने इस कार्यक्रम को आगे बढ़ाया। गांधी के सेक्युलरिज़्म के हिसाब से यह कार्यक्रम मुस्लिम विरोधी था इसलिए वे स्वामी श्रद्धानन्द के हत्या को न्यायोचित ठहरने लगे। सत्य और न्याय दोनो शब्द पर्यायवाची हैं। जहां सत्य है, वहीं न्याय है और जहां न्याय है, वहीं सत्य है। फिर गांधी की हत्या को न्योचित ठहरना और हत्यारे को निर्दोष मानना उनके सत्य एवं न्याय के सिद्धान्त के दावे को खोखला साबित करता है। अहिंसा के पुजारी यदि सेक्युलरिज़्म के नाम पर हिंसा को न्यायोचित ठहराएँ तो उनके प्रवचन का क्या अर्थ। गांधी के लिए अपने विचार सही हो सकते हैं लेकिन यह जरूरी तो नहीं की सभी के लिए हों। नाथूराम के अपने विचार थे। देश के धर्म के आधार पर विभाजन की पीड़ा असहनीय थी। मुसलमानों के प्रति विशेष झुकाव के कारण हिन्दू समर्थक गोडसे की गांधी से मतभिन्नता थी। जिसके परिणामस्वरूप गांधी जी हत्या हुई। इस हत्या को भी किसी तरह से न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन यदि हम गांधी जी के चश्मे से देखे तो नाथूराम को भी दोषी नहीं ठहराया जा सकता। अपने विचार से गोडसे ने भी हिन्दू समुदाय एवं राष्ट्रहित में यह कार्य किया था। यदि स्वामी श्रद्धानन्द का हत्यारा निर्दोष है तो गांधी का हत्यारा भी निर्दोष है। यह तो नहीं हो सकता कि स्वामी जी की हत्या सेक्युलर थी और गांधी कम्यूनल।
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