राष्ट्र धर्म ,युवा धर्म एवं गीता

राष्ट्र धर्म ,युवा धर्म एवं गीता   

गीता का प्रादुर्भाव युद्ध क्षेत्र में हुआ है, जहां वीरों का महापर्व मनाया जा रहा है एवं दोनों और सेनाएं खड़ी हैं ।त्रिलोकीनाथ श्री कृष्ण एक सेनापति के सारथी हैं और अपना बचपन वाले नटखट स्वभाव का प्रदर्शन कर रहे हैं, यानी अर्जुन के रथ का चालन करते हुए दोनों सेनाओं के बीच लाकर रथ को खड़ा करते हैं ।अर्जुन इसे समझ नहीं पाता।समझे भी कैसे ?उसने बाल काल से ही यातनएँ झेली हैं ।संपूर्ण परिवार के दर्शन आज ही वे कर पा रहे हैं, वह भी युद्ध क्षेत्र में, प्रेम -स्नेह के लिए नहीं एक दूसरे को मारने काटने के लिए ।उनके मन में यह भावना उत्पन्न हो रही है कि कभी अपने कुटुंबियों के, स्नेही जनों के जन्म विवाह आदि मांगलिक संस्कारों को तो देखा नहीं,आज सबको एक साथ दख रहे हैं ।सचमुच से लड़ने योग्य नहीं है ,ये प्रेम करने योग्य हैं।
       दूसरी शंका संजय के संदेश से है। युद्ध के महीनों पूर्व संजय सुलह के लिए पांडवों के पास पहुंचे थे, परंतु शर्तें मान्य नहीं होने से श्रीकृष्ण ने उन्हें बैरंग वापस कर दिया था ।मित्र भाव से शिष्टाचार वश अर्जुन उन्हें विदा करने गए थे। उस समय संजय ने अर्जुन से कुटुंब प्रेम और समाज प्रेम देखकर युद्ध की धार्मिकता एवं विभीषिका के प्रभाव से अवगत करा दिया था, वह जहर भी अर्जुन के हृदय में उस समय अनुकूल वातावरण देखकर पनप गया था। अर्जुन जब संजय को विदा कर लौटते हैं तो उनका चेहरा निस्तेज दिखलाई पड़ता है। श्री कृष्ण तो तुरंत भाँप जाते हैं ,परंतु अर्जुन के ह्रदय में कुछ द्वन्द्व उत्पन्न होने लगा था। इसी का उपचार गीता है ।यानी गीता के प्रादुर्भाव की स्थिति बनती है कि
                                                                  1-यह शास्त्र जंगल में नहीं लिखा गया ।
                                                                  2-गुरु शिष्य के बीच नहीं बोला गया।
                                                                  3- व्यवहार में डूबे हुए दो परम वीरों की परम मैत्री से उद्भूत यह मधुरतम व्यवहारिक सुलभ संवाद है ।
    यद्यपि कि इसका प्रादुर्भाव युद्ध क्षेत्र में हुआ है और यही कारण है कि यह उपनिषदों का उपनिषद् है। प्रत्येक आयु के, प्रत्येक व्यवसाय के ,सभी स्त्री पुरुषों के लिए श्रेष्ठ मानवीय विकास का सास्वत मार्गदर्शन इसमें मिलता है ।
        इसमें कुल 700 श्लोक हैं ,एक श्लोक में चार चरण है ,प्रत्येक चरण में 1 शिक्षा है ,2800 चरणों में 28 गुणों से चुनी हुई एक-एक सौ शिक्षाएँ हैं।
             गीता का प्रारंभ" धृतराष्ट्र" से होता है ।धृतराष्ट्र के बाहर भी अंधकार है और अंदर भी तमस है ।पिता श्री महामुनि व्यास के द्वारा दिव्य दृष्टि प्रदान करने के प्रस्ताव को वे अपने घायल पुत्रों के छिन्न-भिन्न अंगों को देखने की सहज वेदना के भय से चाहकर भी स्वीकार नहीं करते हैं और वह दृष्टि संजय को दिलाते हैं ।इसलिए वे पूछते हैं- किंऽकुर्वत संजतः॥ 
         प्रथम श्लोक के चार चरणों में बताया गया है कि दुर्जनता की पराकाष्ठा में राजा धृतराष्ट्र ने राजा के चारों गुणों की मर्यादाओं का उल्लंघन कियाहैः-
            1-उन्होंने पूर्व पुरुषों की पुण्य परंपराओं का संवर्धन नहीं किया बल्कि कुरु महाराज की साक्षात्कार भूमि में रक्त रंजित जंग ठानी है।
            2- उन्होंने राज्य की प्रजा का पालन बिना भेदभाव के पुत्रबत नहीं कर के मेरे पराए का भेद पालकर संपूर्ण कुटुंब को दो भागों में विभक्त कर रण क्षेत्र में खड़ा कर दिया है।
           3- प्रजा के स्नेह मिलन के लिए कोई पर्व का आयोजन कभी नहीं किया, बल्कि लड़ मरने के लिए प्रसंग खड़ा कर दिया ।
           4- राज्य पर संकट आने के पूर्व सावधान नहीं होकर युद्ध को आमंत्रित कर लिया ।अब जब नौका डूबने लगी तो हाल जानने के लिए व्याकुल 
हो रहे हैं । 
    बस धृतराष्ट्र यहीं तक उत्सुक दिखते हैं ।उन्हें नहीं तो ज्ञान प्रेम है नहीं श्री कृष्ण की बातों में रुचि है ।वह गीता तत्व के क्षुद्र श्रोता है ।आगे वे बिल्कुल मौन दिखते हैं ।प्रशंसोक्ति तो है परंतु स्वीकारोक्ति नहीं है ।परंतु यह भी स्पष्ट है कि धृतराष्ट्र नहीं होते तो युद्ध नहीं होता, जो युद्ध नहीं होता तो गीता नहीं होती। अप्रत्यक्ष रूप से गीता के निमित्त धृतराष्ट्र ही हैं ।अतःयही कारण रहा होगा क गीता का प्रारम्भ "धृतराष्ट्र उवाच" से हुआ।
   दुर्योधन भीम युद्ध के निमित्त बनते हैं ।इनके बाणी- व्यवहार का वर्णन 10 श्लोकों में मिलता है ।इनके स्वभाव की परिस्थिति समझे बिना इनका चरित्र नहीं समझा जा सकता ः-
                   1-इनका जन्म नगर में हुआ।
                   2- पिता श्री अंधे हैं,।
                   3-माता श्री ने भी आंख को केवल भोग साधन मानकर पति के प्रति कर्तव्य निर्वहन के लिए बालक के प्रति कर्तव्य का बलिदान कर अपनी आंखों पर पट्टी बांध लिया ।
                   4-बालकों को कभी स्नेह नहीं मिला। लकड़ी के निर्जीव खिलौने, अस्त्र-शस्त्र के प्रतीक ही उनके जड़ साथी रहे, जिन्हें प्रयोग के बाद ठोकर मार कर फेंक दिया जाता। अंधराजमहल में शून्य झमेलों का पारावार लिए ऊपर से शकुनी मामा का दुःसंग । इन परिस्थितियों में उनकी दृष्टि से आर्य संस्कृति विलोपित हो गई है ।वे मर्यादाएं भूल गए।इसका प्रतिफल हुआ कि-
                                                                1- पहले प्रणाम करने की जगह गुरु के हृदय को आघात लगे, ऐसी मर्मांतक भाषा का उपयोग किया ।
                                                                 2-ग्रुरु प्रदत विद्या का उपयोग नहीं कर या गुरु का मार्गदर्शन नहीं लेकर अपनी सेना की विशालत रचना में स्वयं का मार्गदर्शन किया।
                                                                  3- अपनी सेना की व्यवस्थित देखरेख के बदले शत्रु सेना के व्यूह की जासूसी की प्रधानता दी।
                                                                  4- अपनी सेना तैयार नहीं है फिर भी पहले शंख फूंकने की अधीरता है।
        अंधकार में आकंठ डूबे दुर्योधन का बल है उसकी सेना की संख्या एवं शस्त्रों का जखीरा । आचार्य एवं पितामह दोनों हतप्रभ हें।भीष्म के पास बाल ब्रह्मचारी शक्ति है ,वे श्रीकृष्ण को पहचान रहे हैं। उनके प्रति भक्ति भी है ,परंतु दुर्योधन का नमक खाने के कारण सत्य तिरोहित हो गया है ,असत्य पक्ष के साथ खड़ा होना पड़ा है ।तामसिक धृति से मिथ्या राज्य निष्ठा है और परोक्ष में दुर्योधन को खुश करने की वृति।
          युद्ध का आरंभ शंख वादन से होता है ।इसकी प्रेक्षा तो हुई नहीं, आतुरता हावी है ।शंख पितामह के होठ से जैसे ही लगा कि सारी मर्यादाएं समाप्त हो गईं। महारथी- रथी -हाथीदल-अश्वदल- पैदल का क्रम नहीं रहा ।ग्यारहों छावनी सेना के सारे बाद्य एक साथ बज उठे। शोरगुल मच गया।
          दूसरे दल में इसकी आतुरता नहीं है । सभी आदेश एवं मर्यादा सूत्र में बंधे हैं। सभी महारथियों के शंख बजने में 4 घंटे लग गए।
                                                                                                                         परंतु इससे युद्ध आरम्भ नहीं होता ।
    ईधर अर्जुन की उम्र 64 वर्षों की है ।इनका जन्म जंगल में हुआ था ।माता-पिता की अमृत -दृष्टि का छलगता हुआ पोषण इन्हें मिला है तथा प्रकृति के पशु पक्षी, नदी ,पहाड़, बनादि के आश्रम, तपोवनों के वेद- उपनिषद्, धर्म -चर्चाओं के सत्संग उनके संवेदनशील हृदय को ऐसा झकझोरते हैं क रिपु दल के लोग उन्हें कुटुंब -संबंधी दिखलाई पड़ते हैं ।इस प्रकार अर्जुन का मोह आरम्भ होता है।
     यहां अठारह श्लोकों  में अर्जुन अपना तर्क लेकर खड़ा नजर आता है । लड़ना नहीं है ,यह निश्चित है ।श्री कृष्ण अर्जुन की भावना समझते हैं ।उसकी निष्कामता सहयोग- भावना, दूरदृष्टि,त्याग, क्षमा, पापभिरुता, सच्चे सुख का शोध- सबको वंदना करते हैं , लेकिन अपनी कठोर आंखों से युद्धविराम की आज्ञा नहीं देते ।इसलिए प्रथम अध्याय में विषाद- योग का प्रतिपादन किया गया है ।
     कुछ लोग गीता का दूसरे अध्याय से ही आरंभ मानते हैं ।उपदेश यहीं से आरंभ होता है ।आत्मज्ञान और सद्बुद्धि यानी जीवन सिद्धांत और स्थितप्रज्ञता,जिसे गणित की भाषा में विनोबा ने शांख्य बुद्धि कहा है। स्थितप्रज्ञता =शांख्य- बुद्धि (निर्गुण)+योग-बुद्धि (शगुण)= स्थितप्रज्ञ (साकार) ।
    तीसरे अध्याय में कर्मयोगी,यानी योगः कर्मसु कौशलम्, संपूर्ण जीवन शास्त्र माना है। चौथे अध्याय में कर्मयोग सहकारी साधना यानी विकर्म,पाँचवें अध्याय  में योग और सन्यास यानि दुहरी  अकर्मण्यता ,छट्ठे अध्याय में चित्तवृति निरोध यानी योगः चित्तवृति निरोधः,सातवें अध्याय में ईश्वर शरणता यानी भक्ति योग,आठवें अध्याय में सातत्व योग यानी प्रमाण साधना,नौवें अध्याय में समर्पण योग यानी मानव सेवा रुपी राज विद्या,दसवें अध्याय में विभूति चिंतन,ग्यारहवें अध्याय में विश्वरूप दर्शन,बारहवें अध्याय में सगुण- निर्गुण भक्ति,तेरहवें अध्याय में आत्मानात्म विवेक,चौदहवें अध्याय में गुणोत्कर्ष और गुण निस्तार,पंद्रहवें अध्याय में पूर्ण योग यानी सर्वत्र पुरुषोत्तम दर्शन,सोलहबें अध्याय में दैवी और आसुरी वृत्तियों का झगड़ा,सत्रहवें अध्याय में साधक का कार्यक्रम जिसमें आहार शुद्धि एवं व्यवहारशुद्धि संन्निहित है एवं अट्ठारहवें अध्याय में फल त्याग की पूर्णता यानी ईश्वर-प्रसाद की सम्पूर्ण ब्याख्या है।अर्जुन का अंतिम प्रश्न यहीं समाप्त होता है और भगवान् श्रीकृष्ण एकहीं श्लोक में उत्तर देते हेंः-
                                   ॥सर्व धर्मान्परितज्य मामेकं शरणं ब्रज।
                                    अहत्वां सर्व पापेभ्योः मोक्ष्यामि मा शुचः॥
                 और इस अध्याय के अट्ठरहवें श्लोक में गीता की प्रतिपूर्ति होती हैः-
                                  ॥यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थोधनुर्धरः।
                                    तत्र श्रीविजयो भूतिधुर्वा नीतिर्मतिर्मय॥
   इसलिए गीता सभी लोगों के लिए सभी समय में समान और सम्यक रूप से उपयोगी है ।यह स्वयं स्वयं सिद्ध है और यही मोक्ष है। इसी मोक्ष में जीवन है और जीवन्तता है।
  डॉ  सच्चिदानन्द प्रेमी
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