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आस्था और श्रद्धा का श्राद्धपक्ष

आस्था और श्रद्धा का श्राद्धपक्ष

पितृपक्ष अभी चल ही रहा है। जिउतिया एक ऐसा त्योहार है, जो इसी पक्ष में आता है । मातायें इसकी तैयारी में लग गयी हैं । इस अवसर पर यदाकदा उपयोग में आने वाला नोनी का साग पचास से सौ रुपये किलो तक बिक जाता है । यही हाल मड़ुये के आटे का भी है । सतपुतिया झींगी का तो कहना ही क्या । अभी हाल में ही करमा एकादशी के नाम पर करमी का साग भी इसी तरह ‘परियानी’ पर तौल कर बिका । अनन्तचतुर्दशी के दिन खीरा का डंठल और पत्ता भी पचास-साठ रुपये किलो बिक चुका है। खीरे की तो बात ही न पूछें। लगता है- खीरा नहीं, हीरा है। कटहल का पत्ता इस समय गया शहर में पितृपक्ष में खूब बिक रहा है। नदी किनारे के सारे काशी-कंडे घास-फूस भी बिक गए पितृपक्ष के नाम पर। पंडितों को भी कुश और काशी का भेद शायद ही पता हो ।

हद हो गयी !

एक ओर हम आधुनिक कहने लगे हैं खुद को और दूसरी ओर ऐसी वैचारिक (वौद्धिक) दरिद्रता !!

हम ये भी जानने का प्रयास नहीं करते कि ये क्या है। हम कर क्या रहे हैं। और ये सब हो क्या रहा है। लाखों पिंडदान होते हैं। सरकारी आंकड़े तो और भी अधिक कहते होंगे, क्यों कि उससे उनकी व्यवस्था वजट प्रभावित होती है। आंकड़े बड़े होंगे तो बिल भी अच्छा बनेगा।

ये जान कर आश्चर्य लगे या ये सोचें कि झूठ कह रहा हूँ, किन्तु पूर्णतः सत्य है— दुर्भाग्य की बात है कि एक प्रतिशत पिंड भी सही विधि से नहीं होता है। ढाई से तीन घंटे का कर्मकाण्ड पांच-दस मिनट में निपट जाता है। दान-दक्षिणा जहाँ भरपूर होता है,वहाँ भी सिर्फ आडम्बर और अलंकार ही दीखता है। मन्त्र और क्रियाविधि ताक पर होती है। भीड़ में ये भी गारंटी नहीं है कि कर्मकांडी ब्राह्मण ही हों। धोती-कुर्ता, टीक और टीका ही काफी है पहचान के लिए। हालांकि पायजामा-कुर्ता, पैन्ट-शर्ट कुछ भी चलने लगा है आजकल। वैसे भी खोल (कपड़े) में क्या रखा है ! योग्यता की तो बात ही बेमानी है। जिसने हिन्दी व्याकरण का भी मुंह नहीं देखा है, वो भी वैदिक स्वरों में (मन्त्रों में नहीं) श्राद्ध करा रहे हैं धड़ल्ले से। यजमान बेचारे को क्या पता , वो सिर्फ ऊँची आवाज सुन कर मस्त है, जो खास कर उसकी ही क्षेत्रीय भाषा में होती है।

लोग कहते हैं— श्रद्धा से श्राद्ध होता है। किन्तु ये बात बिलकुल गलत है। श्रद्धा से देवताओं की पूजा हो सकती है। वहाँ गलत मन्त्रोच्चारण भी शायद माफ हो सकता है, किन्तु श्राद्ध तो मन्त्रशुद्धि, वाकशुद्धि, क्रियाशुद्धि, द्रव्यशुद्धि, भावशुद्धि सबका समेकित परिणाम है। ये पांचों तत्त्व अनिवार्य रुप से होने चाहिए श्राद्ध में। अन्यथा धर्म के नाम पर ठगी है। इससे तो कहीं अच्छे हैं वो चोर-डाकू। कम से कम वे धर्म और आस्था से तो खिड़वाड़ नहीं कर रहे हैं।

आस्था और श्रद्धा के दूसरे पक्ष पर जायें तो वहां भी कुछ ऐसा ही खेल है। हम ये सोचने-जानने की जरुरत ही नहीं समझते कि जो कुछ कर रहे हैं क्यों कर रहे हैं। बस इतना ही काफी होता है कि लोग कर रहे हैं। ‘हम’ और ‘लोग’ का फर्क ही पता नहीं।

गान्धारी की तरह ‘शतपुत्रवती भव’ के आशीष की कामना तो दूर, कुन्ती की तरह पांच पुत्रों की चाह भी है किसी को? ‘हम दो हमारे दो’ की अनिवार्यता वाले जमाने में नोनी की तरह वंश-विस्तार का क्या तुक है ? क्या तुक है एक फल के अन्दर हजार बीजों वाले मड़ुये का ? क्या तुक है ‘सतपुतिया’ झींगी का जो हमेशा गुच्छे में होता है और बहुत अधिक मात्रा में फलता भी है। हम तो फूल ही मरोड़ दे रहे हैं। मसल दे रहे हैं। रोक दे रहे हैं। आने ही नहीं दे रहे हैं। प्रकृति के हर नियम को अपने अधीन बनाने की कुचेष्ठा में सदा लगे हुए हैं।

और हमारी कामनाएं ?

वांछित-अवांछित कामनाओं की भीड़ में हम कहीं खो गए हैं। ये अकूत कामनाएं ही हमें खींच ले जाती हैं पाखंडियों के पास। चारों ओर छली, प्रपंची, धूर्त, जालसाज, लुटेरे, धोखेबाज रुप बदले, अपनी तरह-तरह की दुकानें लगाये बैठे हैं और हम मनोवांछाओं की आँधी में उड़े जा रहे हैं उनके पास।

कालनेमी को पहचानने में हनुमान को भी धोखा हो गया था। हमारी-आपकी क्या औकाद है उनके सामने ? फिर भी आँखें तो खोलनी ही होंगी। समझना हमें ही होगा। कोई और समझाकर कुछ नहीं कर सकता। और ऐसा भी नहीं है कि सच और झूठ, असली और नकली का पहचान असम्भव है। थोड़ा कठिन भले हो।
आस्था अच्छी है। श्रद्धा और भी अच्छी है। किन्तु इन दोनों के आगे ‘अन्ध’ शब्द जुड़ जाये, तो सब गुड़ गोबर। दयावान ईश्वर की दी हुयी बुद्धि और विवेक का सहयोग नहीं लेंगे, मन और मनोवांछाओं के गुलाम बने रहेंगे, तो सिर्फ आस्था और श्रद्धा का श्राद्ध ही हो सकता है । सम्यक् कल्याण की आशा कदापि नहीं । अस्तु।
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