Advertisment1

यह एक धर्मिक और राष्ट्रवादी पत्रिका है जो पाठको के आपसी सहयोग के द्वारा प्रकाशित किया जाता है अपना सहयोग हमारे इस खाते में जमा करने का कष्ट करें | आप का छोटा सहयोग भी हमारे लिए लाखों के बराबर होगा |

सार सार तो उड गया अब थोथा थोथा रसायन शास्त्र

सार सार तो उड गया अब थोथा थोथा रसायन शास्त्र

संकलन अश्विनी कुमार तिवारी

हम ‘सलमान और कैटरीना’ की कैमेस्ट्र्री में खुश रहने वाले लोग हैं। इससे क्या फर्क पडता है कि भारत की अपनी एक कैमेस्ट्री है, रसायनों का इतिहास है। देश में रसायानों का प्रयोग आधुनिक रसायन शास्त्र के उद्भव से शताब्धियों पहले होता रहा लेकिन हमारे ढाक के तीन पात हैं - हम पिछडे लोग, हमें कुछ न आया, हमें अंग्रेजों ने सभ्य बनाया। यह ठीक है कि एंटोनी लेवईज़िएयर रसायन विज्ञान के पिता मानें जाते हैं चूंकि उनकी पुस्तक ‘‘तत्वों के रसायन’’ में हाइड्रोजन और ऑक्सीजन तत्वों पता लगाने वर्णन हैं। तथापि तत्वों और रसायनों के मध्यकालीन पश्चिमी अंवेषणों और प्राचीन भारतीय अनुसंधानों की उनसे समानता अथवा विभिन्नता पर मौन क्यों पसरा रहता है? केमिस्ट्री शब्द की उत्पत्ति मिस्र देश के प्राचीन नाम कीमिया से हुई है इसका अर्थ है- कालारंग। भारतीय रस और रसायनों में जितना रंग-बिरंगापन है उसकी सुध लेना वाला कोई क्यों नहीं?

औपनिवेशिक ब्रिटिश-भारत के दौर में कोलकाता के एक रसायान शास्त्री आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय, ब्रिटेन के प्रेसिडेंसी कालेज में प्राध्यापन कर रहे थे। इसी दौरान उन्होंने फ्रांसीसी रसायन शास्त्री बर्थेलो की पुस्तक “द ग्रीक अल्केमी” पढी तो अनुभव हुआ कि भारतीय ज्ञान को दुनिया के समक्ष इसी प्रकार लाया जाना चाहिये। श्री राय ने अभिप्रेरित हो कर आचार्य नागार्जुन की कृति  "रसेन्द्रसारसंग्रह" पर आधारित ‘प्राचीन हिन्दू रसायन’, विषयक लेख लिखकर बर्थेलो को  भेजा। फ्रांसिसी वैज्ञानिक स्तब्ध रह गये, कितना अथाह ज्ञान भारतीय पुराग्रंथों में पसरा पड़ा है और उनकी कोई सुध लेने वाला भी नहीं? बर्थेलो ने आलेख की विस्तृत समीक्षा की जो  जर्नल डे सावंट में प्रकाशित हुई और तब यूरोप भौचक्का रह गया कि रसायन शास्त्र के ज्ञान का वास्तविक आधार तो भारत के पुरा-शास्त्रों में हैं। अपनी इस उपलब्धि से उत्साहित आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र राय ने "हिस्ट्री ऑफ हिन्दू केमिस्ट्री" नाम से पुस्तक लिखी जिसे तत्कालीन विद्वानों ने हाथो-हाथ लिया। भारतीय रसायनों की विकास कथा को सामने रखती कुछ बाद की पुस्तक - प्राचीन भारत में रसायन का विकास (लेखक - सत्यप्रकाश सरस्वती) भी उल्लेखनीय है जो हिंदुस्तानी होने के गर्व को बढाने में सक्षम है।  

कतिपय विद्वानों ने रसायनशास्त्र का जो प्राचीन ज्ञान सामने लाने का श्रम किया है उसका सार-संक्षेप प्रस्तुत कर रहा हूँ जो संभव है हमारी सुप्तेंद्रियों को झकझोर सके। आरम्भ, आधुनिक रसायनशास्त्र की परिभाषा के साथ करते है, जो कहता है कि - यह विज्ञान की वह शाखा है जिसमें हम विभिन्न प्रकार के द्रव्यों की  सरंचना, उनको निर्मित करने की विधियाँ, गुण-धर्मों और उपयोगों का अध्ययन करते है। यदि इस आलोक में प्राचीन भारतीय ज्ञान को टटोलें तो हमें ईसा के जन्म से हजारों वर्ष पूर्व जा कर ठहरना होगा। सिन्धु घाटी की सभ्यता और उसकी लिपि समझ ली गयी तो क्या जानकारियाँ सामने आती हैं यह अलग पहलू है लेकिन उनकी अनेक धात्विक निर्मितियाँ असाधारण हैं। हमारे वेद-उपनिषद भी विभिन्न प्रकार की धातुओं के वर्णन से अटे पडे हैं। यजुर्वेद में उल्लेख है – “अश्मा च मे मृत्तिका च मे गिरयश्च मे पर्वताश्च मे सिकताश्च मे वनसोअतयश्च मे हिरण्यं च मेअयस्य मे श्यामं च मे लोहं च मे सीसं च मे त्रपु च मे यज्ञेन कल्पंताम"। इस एक श्लोक में  पत्थर (अश्मन), मिट्टी (मृत्तिका), बालू (सिक्ता), हिरण्य (सोना), अयस (लोहा), स्याम (ताम्बा),  लोह (लोहा), सीस (सीसा) और त्रपु (रांग/टिन) का उल्लेख है।  यजुर्वेद के ही एक मंत्र में अयस्ताप (आईरन स्मेल्टर) का उल्लेख प्राप्त होता है (मन्यवे अयस्तापं)। तैत्तिरीय संहिता में कृष्णायस (काला लोहा) का उल्लेख है। ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर अयस शब्द का प्रयोग मिलता है। अथर्ववेद में श्याम (ताम्बे), लोहित (लोहे) और हरित (सोने) के साथ त्रपु (राँगा) का भी प्रयोग मिकता है। अथर्ववेद में एक पूरा सूक्त “दधत्यं सीसम” है जो सीसे पर केंद्रित है – हम तुम्हे सीस से बेधते हैं जिससे तुम हमार प्रिय जनों को न मार सको। समझा जा सकता है कि सीस के बने छर्रे युद्ध में काम आते होंगे।   
  
रसायन शास्त्र का भारत में विकास किस तरह हुआ और कितनी बारीकियों का ध्यान रखा गया इसके लिये शतपथ ब्राम्हण से प्राप्त इस उल्लेख को समझना आवश्यक है – “स यद्वानस्पत्य: स्यात प्रदह्येत, यद्धिरण्यमय: स्यात प्रलीयेत, यल्लोहमय: स्यात प्रसिच्येत, यदयस्मय: स्यात प्रदहेत्परीशासावथेय्षाएवैतस्माअतिष्ठत तस्वादेतम्मृन्मयेनैव जुहोति” अर्थात यह  प्रश्न उठाया गया है  कि घृत की आहूति मृन्मय मात्र (मिट्टी के बर्तन) में क्यों दी जानी चाहिये। इसके उत्तर में युक्ति है कि यदि लकडी के पात्र में दोगे तो वह जल जायेगी, यदि सोने के पात्र में दोगे तो वह घुल जायेगा, यदि ताम्बे के पात्र में दोगे तो वह गल जायेगा और यदि अयस्मय पात्र में तो पात्र गर्म हो जायेगा अत: मिट्टी का मात्र ही उचित है। आज हम डिज्योल्यूशन पर चर्चा करें अथवा हीट कंडक्टेंस पर लेकिन ऐसे महत्व के उदाहरणों से कन्नी काट कर निकल जाते हैं।  यह ठीक है कि चरक और सुश्रुत संहिताओं का उद्भव चिकित्सा शास्त्र की दिशा में महत्व का है तथापि  इन शास्त्रों में  औषधीय प्रयोगों के लिए पारद, जस्ता, तांबा आदि धातुओं एवं उनकी मिश्र धातुओं को शुद्ध रूप में प्राप्त करने की जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। ये पुरा-शास्त्र औषधियों के विरचन में व्यवहृत रासायनिक प्रक्रियाओं जैसे द्रवण, आसवन, उर्ध्वपातन आदि का उसी तरह विस्तृत वर्णन प्रदान करते हैं जैसी कि आधुनिक रसायनशास्त्र की परिभाषा में अपेक्षा की गयी है। 

चरक ने अपनी कृति में लवणवर्ग के अंतर्गत विभिन्न पदार्थों को गिनाया जाता है। वे लिखते हैं - सैंधव-सौवर्चल-काल-विड-पाक्यानूप-कूप्य-वलुकैल-मौलक-सामुद्र-रोमकौदिभदौषरपाटेयक-पांशुजान्येवंप्रकाराणि चान्यानि लवणवर्गपरिसंख्यातानि अर्थात नमक के निम्नानुसार प्रकार हो सकते हैं - सैंधव (Rock Salt), सौवर्चल (Sanchal Salt), काल (Black Salt), बिड (Vida), पाक्य (Crystallised Salt), आनूप (Salt from Swamps), कूप्य (Salt from Well Water), वालुकैल (Salt from Sandy Deposits), मौलक (Crystallised Mixed Salt), सामुद्र (Salt from Sea Water), रोमक (Salt from Samber Lake), औदभिद (Salt from efflorescene), औषर (Salt from Alkaline land), पाटेयक (Poitou Salt), पंशुज (Salt from Ashes) आदि। चरक संहिता में विभिन्न रसायनों-रासायनिक प्रक्रियाओं का उल्लेख व आसवों को तैयार करने की विधि भी प्राप्त होती है। कुछ उदाहरण देखें कि “लेलीतकप्रयोगो रसेन जत्या: समाक्षिक: परम: सप्तदशकुष्ठघाती माक्षिकधातुश्च मूत्रेण” अर्थात कुष्ठ रोग के निवारन के लिये लेलीतक (गंधक) और माक्षिक (आयरन पायराईटीज) का प्रयोग उपकर माना जाता है। इसी प्रकार अंजन शब्द आजकल के एंटिमनी सलफाईड के लिये प्रयोग में आता था और नेत्रों को साफ करने में इसका उपयोग होता था। ग्रंथ में अनेक स्थान पर उल्लेखित शब्द कासीस वस्तुत: लोहे का सल्फेट है जो लोह-माक्षिक के उपचयन अथवा लोहे और सल्फ्यूरिक अम्ल के योग से बनाया जाता है। चरक द्वारा अमृतासंज्ञ (नीलाथोथा), गंधक और मन:शिला के साथ अनेक रोगों में गुणकारी बताया गया है। मोटे तौर पर चरक संहिता के  पच्चीसवें अध्याय में आसवों के चौरासी विभेद बताये गये हैं

अम्ल और क्षार के विषय में आज पुस्तकें विवेचानाओं से अटी पडी हैं। चरक ने क्षार का प्रयोग अनेक प्रकार की चिकित्सा में किया गया है। अनेक औषधियों से तैयार किये गये रसक्वाथ को सुखा कर और जला कर क्षार को तैयार किया जाता था। यहाँ जलाने की विधि के साथ अंतर्धूमं शनैर्दग्धवा शब्द का प्रयोग महत्वपूर्ण है जो बताता है कि धुँआ अंदर ही इस तरह बना रहना चाहिये जिससे तथा  वायु का आना जाना कम हो (Air Tight Method) और इस प्रकर जलाने का कार्य धीरे धीरे किया जाना चाहिये।  क्षार की उपयोगिता पर भी अनेक उल्लेख हैं जैसे – “क्षारो हि याति माधुर्यं शीघ्रमम्लोपसंहित: श्रेष्ठमम्लेषु मद्यं च यैर्गुणैस्तान परं श्रृणु” अर्थात क्षारों के प्रयोग से अम्लों का खट्टापन दूर हो जाता है, अम्ल से उपसंहित होने पर क्षार माधुर्य को प्राप्त होता है। इसी कडी में विष और उसके उपयोगों पर चरक के ज्ञान की संक्षिप्त विवेचना आवश्यक है। चिकित्सा स्थान के 23 अध्याय में चरक विष का विस्तार से वर्णन करते हैं। उनके अनुसार साधारणत: तीन  प्रकार के विष होते है – जंगम विष (Animal Poison),  स्थावर विष (Plant Poison) तथा  संज्ञक विष (Slow Poison)।  ग्रंथ में विष के निवारण की भी चौबोस विधियाँ बताई गयी हैं। आज का विज्ञान फ्लेम टेस्ट अथवा ज्वाला परीक्षण की बहुत सी विधियों का प्रयोग करता है। चरक ने भोजन में विष ज्ञात करने के लिये ज्वाला परीक्षण का उल्लेख किया है तथा उन्होंने जलाने पर उत्पन्न होने वाले विभिन्न रंगों से तत्वों की पहचान उल्लेखित की है। चरक के पश्चात सुश्रुत ने रसायन के ज्ञान में महति योगदान दिया है। पानी तथा उसकी गुणवत्ता को ले कर सुश्रुत का बोध देखें। वे लिखते हैं कि पानी में मिली हुई अशुद्धियों अथवा अपद्रव्यों को दूर करने का नाम कलुष प्रसादन है। जिस स्थान पर पानी पंक, शैवाल, हठ (जलकुम्भी), तृण, पद्मपत्र आदि से आच्छादित रहता है, चंद्रमा, सूर्य की किरणे तथा वायु जिस पानी का स्पर्श नहीं करते इस तरह के पानी में छ: प्रकार के दोष उत्पन्न होते हैं -  स्पर्श, रूप, रस, गंध,वीर्य और विपाक्। ये सब दोष अंतरिक्ष जल (वर्षा जल) में नहीं होते। दूषित पानी को आग पर गरम करने से, अल्पदोष वाले पानी को सूर्य की धूप में गरम करने से, मध्यम दोषयुक्त पानी में लोहे की पिंडिला को, रेत को या मिट्टी के ढेले को अग्नि में गरम कर के बुझाने से पानी स्वच्छ हो जाता है। दुर्गंध को दूर करने के लिये नागकेसर, चम्पा, उत्पल (कमल), पाटला आदि के पुष्पों से आस्थापन करना चाहिये। सात वस्तुवें मलिन जल को शुद्ध करने वाली हैं – कतक (निर्मली), गोमेदक (गोमेद रत्न का तेजपात), विसग्रंधि (पद्ममूल), शैवालमूल (काई की जड), वस्त्रमुक्ता और मणि (फिटकरी)।   

हम चरक-सुश्रुत की बात करें तो लगभग इसी समय के महान विद्वान आचार्य विष्णुगुप्त कौटिल्य अथवा उनके ग्रंथ अर्थशास्त्र से अलग हो कर नहीं निकल सकते। ईसा पूर्व तीसरी सदी का यह उद्भट विद्वान अपनी कृति में धातु, अयस्कों, खनिजों एवं मिश्र धातुओं से संबंधित आश्चर्यजनक जानकारी तथा उनके खनन, विरचन, खानों के प्रबंधन तथा धातुकर्म की व्याख्या प्रस्तुत करता है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में चार प्रकार की सिक्का धातुएं वर्णित हैं-मशकम, अर्धमशकम, काकनी एवं अर्धकाकनी। ये सभी रजत, तांबा, लोहा, वंग और सीसा अथवा एंटिमनी को विभिन्न अनुपातों मंव मिलाकर बनाई जाती थीं। इसी प्रकार चांदी एवं पारद की भी कई वर्णों वाली मिश्र धातुएं बनाई जाती थीं। वंग की भी सोने के वर्ण वाली कई मिश्र धातुएं अभ्रक, तांबा, चांदी और पारे के संयोग से विरचित की जाती थीं। स्वर्ण की तो अनेक मिश्र धातुएं उनके ग्रंथ के माध्यम से ज्ञात होती हैं। रसायनशास्त्र से जुडे महत्व के अन्य ग्रंथों में नागार्जुन कृत ‘रस रत्नाकार‘ महत्व की है। छठी शताब्दी में वराहमिहिर ने ‘वृहत्‌ संहिता‘ में अस्त्र-शस्त्रों को बनाने के लिए उच्च कोटि के इस्पात  निर्माण की विधि का वर्णन किया है। भारतीय इस्पात की गुणवत्ता इतनी अधिक थी कि उनसे बनी तलवारों के फारस आदि देशों तक निर्यात किये जाने के ऐतिहासिक प्रमाण मिलते हैं। आठवीं शताब्दी से १२वीं शताब्दी के मध्य लिखी रसायन सम्बंधी कृतियों में प्रमुख हैं-वाग्भट्ट की अष्टांग हृदय, गोविंद भगवत्पाद की रस हृदयतंत्र व रसार्णव, सोमदेव की रसार्णवकल्प व  रसेंद्र चूणामणि तथा गोपालभट्ट की रसेंद्रसार संग्रह। इन्हीं समयों की कुछ अन्य महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं-रसकल्प, रसरत्नसमुच्चय, रसजलनिधि, रसप्रकाश सुधाकर, रसेंद्रकल्पद्रुम, रसप्रदीप तथा रसमंगल आदि।

अष्टांग अंग्रह में दूषित जल का विवरण व इसे शुद्ध करने की विधि विस्तार पूर्वक दी गयी है। अष्टांगहृदय व अष्टांग संशय में धातु की भस्मों की निर्मिति पर जानकारी प्रदान की गयी है एवं  ताम्र्रस, स्वर्नभस्म और लोहरज का आदि का प्रयोग दिया गया है। वृन्द (975 से 1000ई) और चक्रपाणि (1050 ई.) ने अनेक रसायन संदर्भित आयुर्वैदिक ग्रंथों की रचना की। वृन्द ने पर्पटीताम्र नामक एक योग में पारे, गंधक और ताम्बे को पीस कर इनका माक्षिक के साथ पुटपाक विधि द्वारा संयोग कराया गया है, शहद के साथ इनका उपयोग कई रोगों में गुणकारी होता है (रसग्न्धक ताम्राणां चूर्ण कृत्वा समाक्षिकम। पुटपाकविधौ पक्त्वा मधुनालोड्य संलिहेत्य्। सर्वरोगहर्ण्चैतत्पर्पताख्यं रसायनम्)। इन समयों में धातुशोधन तथा विभिन्न प्रकार की भस्मों के निर्माण में बहुत कार्य हुआ है। अपनी प्रयोगशाला में नागार्जुन ने पारे पर बहुत प्रयोग किये थे। विस्तार से उन्होंने पारे को शुद्ध करना और उसके औषधीय प्रयोग की विधियां बताई हैं। 

विषय में अनंत विमर्ष हो सकते हैं लेकिन क्या हम आगे बढते रहने के साथ साथ पिछले पन्ने भी पलटने के लिये तत्पर हैं? ध्यान देने योग्य तथ्य है कि शब्द बदल गये, माध्यम बदल गये, समय भी बदल गया लेकिन पुरातन अपनी जगह स्थिर आधुनिक नकल पर परिहास तो करता ही है। चरक-सुश्रुत वर्णित प्रयोग में लाये गये कतिपय उपकरणों को देखें जैसे - शूर्प (Winnowing basket), उलूखल (Mortar), मुशल (Pestle), अभ्रि (Spade), प्रोक्षणी (A Vessel for sprinkling water), शमी, शम्या (Wooden Pin), मंथनी, स्त्रुक (Offering Spoon), स्त्रुव (Dipping Spoon), उख (Boiler), दृषद-उपल (large and Small Mill Stones), आस्पात्र (Drinking Vessel), कुम्भ (Pitcher), कौलालचक्र (Potter’s Wheel), ग्रह (Cup), पवित्रा (Filter), नेत्र, इघ्म (Fuel Wood), बर्हि (Straw), वेदि (Altar), घिष्ण्य (Lessar Altar), स्त्रुक (Spoons), चमस (Cups/ladle), ग्रावन (Pressing Stones), स्वरु (Chips), उपरव (Sounding Holes), अधिषवण (Pressing boards), द्रोण कलश (Wooden Tub), वायव्य (वायु व्याले), पूतभृत (Receiver of the filtrate), आघवनीय (Mixing Bowl), अग्नीघ्र (Agnidhs Altar), हविर्धान (Oblation Holder)  आदि और मिलान करें कि ये सभी अपने मूल अथवा बदले हुए रूप में आधुनिक  रसायनशालाओं में विद्यमान है।

आधुनिकता ने चोरी-चोरी पुरातन का भरपूर उपयोग किया है किंतु श्रेय देने के समय मौन साध लिया गया है। भारत में यह स्थिति और भी गंभीर है चूंकि यहाँ सबकुछ अंग्रेजी शिक्षा और उनकी निर्धारित तिथियों के बाद आरम्भ होता है। दुर्भाग्य से हमें ऐसे इतिहासकार मिले जो विचारधारा की बीमारी से ऐसे ग्रसित थे, नकारात्मकताओं को उकेरते-खरोंचते उनका सारा जीवन बीत गया। आज यदि हम इस प्राचीन ज्ञान के पक्ष में खडे होते हैं तो लाल झंडा लिये कोई न कोई आपको भगवा आतंकवादी का लेबल देने अथवा शिक्षा का भगवाकरण वाला चिर-परिचित रोना-पीटना सुनाने के लिये खडा मिलेगा।  हमने सार सार उडा दिया है और थोथा थोथा अपने लिये रख लिया है।
✍🏻राजीव रंजन प्रसाद, 
सम्पादक, साहित्य शिल्पी ई पत्रिका
दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ