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आत्महत्या वनाम अध्यात्म

आत्महत्या वनाम अध्यात्म

लेखक कमलेश पुण्यार्क ' गुरूजी'

आत्महत्या की परिभाषा मेरे विचार से कुछ और है । आत्महत्या तो प्रायः हर कोई करता है । गौर करने की बात ये है कि मनुष्य जीवन में अनेक बार आत्महत्या करने को विवश होता है और बारबार करता भी है ।
आत्महत्या कोई शौक या खुशी से थोड़े जो करता है । जीवन की विसंगतियाँ, विफलतायें, विडम्बनायें, संघर्ष, टूटन, कसक, निराशा ये सब मिल कर आत्महत्या कराते हैं । मन की मुरादों का बारम्बार अपूरित रह जाना या कहें पूरा न हो पाना, मन मारना और फिर धीरे-धीरे अवसाद के अन्धकूप में औंधे मुंह गिर जाना...। मेडिकल सांयन्स जिसे डिप्रेशन कहता है- उसके ही घटक या स्रजक हैं ये सब हालात व स्थितियाँ ।
मुझे नहीं लगता कि ऐसा कोई भी व्यक्ति होगा जिसने आत्महत्या न की हो कभी । जी हाँ, आत्महत्या शब्द से जिसे लोग जानते हैं वह तो आत्महत्या कतई है ही नहीं । वह तो शरीर-हत्या है, बिलकुल अन्तिम विकल्प ।
दरअसल जीवन से या कहें जीवन में, जो हम चाह रहे होते हैं ; जीवन से जो हमारी आशायें होती हैं, अपेक्षायें होती हैं, उसकी पूर्ति किसी भाँति होती नहीं दीखती तो अन्तिम कदम, अन्तिम पहल है - शरीर हत्या यानी जीवन को ही समाप्त कर देने का प्रयास । इस मुकाम तक पहुँचने वाले ज्यादातर लोग वास्तव में जीवन का जंग हारे हुए लोग होते हैं । संघर्ष से उबे हुए लोग होते हैं । या फिर ऐसा भी होता है कि जीवन का जंग लड़ने से कतराने वाले लोग होते हैं, जो आत्मघात का प्रयास करते हैं । किन्तु बहुत बार ऐसा भी होता है कि भौतिक दुनिया की सारी चीजें पा चुके लोग भी इस ओर कदम बढ़ाते हैं । दूसरे शब्दों में कहें तो कह सकते हैं कि भौतिकता से उबे हुए लोग ऐसा कदम उठाते हैं । क्यों कि उन्हें भ्रम होता है कि भौतिकता से सबकुछ हासिल हो जायेगा और अति पर पहुंच कर भी जब ‘ सबकुछ ’ लब्ध होता नहीं दीखता तो आत्मघात का प्रयास करते हैं ।
वर्तमान में ये चलन बहुत तेजी से बढ़ रहा है । बढ़ने का खास वज़ह है दुनिया का बहुत तेजी से विकास । सुख-सुविधाओं का विकास । किन्तु इसके विपरीत, शान्ति का नितान्त ह्रास । आनन्द का अभाव । शरीर के तल पर सुख मिल रहा है । सुख की वृद्धि हो रही है, किन्तु मन के तल पर शान्ति खोती चली जा रही है, आनन्द कहीं दूर छिटकता चला जा रहा है ।
तो अन्ततः आदमी करेगा क्या- तथाकथित आत्महत्या यानी की शरीर की हत्या ही तो करेगा !
मजे की बात ये है कि सुख-सुविधायें भौतिक हैं । बाहर से आने वाली चीजें हैं । अतः इन्हें धन से प्राप्त किया जा सकता है । धन कोई उधार भी दे दे सकता है । इसे छीना भी जा सकता है । खरीदा भी जा सकता है । चुराया भी जा सकता है । किन्तु शान्ति इसके बिलकुल विपरीत वस्तु है जो आकार में अति सूक्ष्म है और प्रकार में अति श्रेष्ठ । उसकी सारी शर्तें भी विपरीत हैं । भौतिकता और धन से उसे कुछ लेना-देना नहीं । सांख्य की भाषा में कहें तो बीस के बाद, इक्ककीसवें पायदान पर रहने वाले राज परिवार का सदस्य है ये ।
और सबसे सूक्ष्ततम है आनन्द । ये शान्ति की चौखट लांघने के बाद, भीतर में ही कहीं छिपा मिल जाता है, क्यों कि ये बाहर कहीं से आने वाली चीज नहीं है । ये अपने आपमें, अपने आप से खिलने वाला फूल है । किन्तु है सबसे कीमती । अनमोल— मोल से परे कहना ज्यादा अच्छा होगा ।
मन का जहाँ कोई वश नहीं चलता , बुद्धि भी दूर छिटक चुकी रहती है, अहंकार तिरोहित हो जाता है, तब कहीं जाकर आनन्द का प्रस्फुटन होता है । आनन्द की अनुभूति होती है । आनन्द का अमृत भीतरी आकाशगंगा से ही निर्झरित होने लगता है ।
वर्तमान में इनका नितान्त अभाव, निरन्तर बढ़ती दूरियाँ ही आत्महत्या का उत्प्रेरक है । ज्योतिषशास्त्र के अनुसार ग्रह-स्थितियाँ भी इस बात का किंचित संकेत देती हैं ।
जन्मलग्न, लग्नेश, तथा तृतीय और एकादश भाव यानि शरीर सहित कुण्डली की दोनों भुजायें- ये सब यदि पापग्रह प्रभावित हों तो आत्महत्या की स्थिति बनती है । ऐसी स्थिति गोचर यानी ग्रह संक्रमण क्रम में भी यदि बन रही हो तो वही काल होता है, जिसमें मनुष्य आत्मघात करने का प्रयास करता है । मारकेश की विविध दशायें भी काल निर्धारण में सहायक होती हैं । शुभग्रहों की किंचित स्थिति यदि बनी तो असफल होता है, तथा पापग्रहों की प्रबलता रहने पर आत्मघात घटित हो जाता है ।
श्रीकृष्ण कहते हैं- स्वभावोऽध्यात्मउच्यते...। अध्यात्मसागर में डुबकी लगा चुका आदमी ही आनन्द को उपलब्ध हो सकता है । किनारे पर खड़ा होकर अध्यात्म-अध्यात्म की रट लगाने वाला कदापि नहीं । किन्तु मजे की बात ये है कि आजकल ज्यादातर लोग अध्यात्म को चादर की तरह ओढ़ने का प्रयास करते हैं । आनन्द की तरह अध्यात्म को भी बाहर की वस्तु समझ लेते हैं । कुछ अच्छी-अच्छी बातें करने की कला को ही अध्यात्म समझ लेते हैं । कुछ अच्छे व्यवहार और क्रियाकलाप को अध्यात्म समझ लेते हैं । आसन-प्राणायाम को ही अध्यात्म समझ लेते हैं । और जब उन्हें स्वयं ही पता नहीं होता, फिर औरों को क्या बतायेंगे । तैरने के नियम जान लेने से तैरना थोड़े जो आ जाता है ।
श्रीकृष्ण ने स्पष्ट कर दिया है, ताकि किसी तरह की शंका न रहे । अध्यात्म कोई शास्त्र नहीं है, जिसे रट मारा जाये । वह तो ‘स्व’ की अनुभूति की स्थिति में अवतरण है । छलांग है । यह कंठी नहीं है , माला नहीं है, चोला नहीं है, चीवर नहीं है, चिमटा नहीं है, विन्दी नहीं है, त्रिपुण्ड नहीं है, मन्दिर नहीं है, मूर्ति नहीं है, पूजा नहीं है । प्रत्युत इन सबसे बहुत ऊपर है । प्रायः हमसब इसे गलत अर्थों में प्रयोग कर देते हैं ।
अतः यहाँ करना कुछ नहीं है , समझना है सिर्फ है । अस्तु ।
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