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निजीकरण कितना जरूरी

निजीकरण कितना जरूरी


लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का अगर अध्ययन करें तो हम पाएंगे कि राज्य सरकार की नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वह राज्य में रहने वाली जनता का ,पालने से कब्रगाह तक के दायित्वों का निर्वहन ठीक प्रकार से करे।
लोककल्याणकारी राज्य से तात्पर्य ऐसे राज्य से है, जो अपने सभी नागरिकों को न्यूनतम जीवन स्तर प्रदान करना अपना अनिवार्य उत्तरदायित्व समझता है ।” प्रो॰ एच॰जे॰ लास्की के अनुसार: “लोककल्याणकारी राज्य लोगों का ऐसा संगठन है, जिसमें सबका सामूहिक रूप से अधिकाधिक हित निहित हो। 
जब सरकारी उपक्रमों के निजी करण की बात आती है तो यहां लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा पर सवाल पैदा होता है ।
यहां निजी करण का मतलब थोड़ा समझ लें --
निजीकरण व्यवसाय, उद्यम, एजेंसी या सार्वजनिक सेवा के स्वामित्व के सार्वजनिक क्षेत्र (राज्य या सरकार) से निजी क्षेत्र (निजी लाभ के लिए संचालित व्यवसाय) या निजी गैर-लाभ संगठनों के पास स्थानांतरित होने की घटना या प्रक्रिया है। एक व्यापक अर्थ में, निजीकरण राजस्व संग्रहण तथा कानून प्रवर्तन जैसे सरकारी प्रकार्यों सहित, सरकारी प्रकार्यों के निजी क्षेत्र में स्थानांतरण को संदर्भित करता है।
मजदूरों को परेशानी क्या है इसे भी समझे -- 
यदि पूजी पतियों के हाथों राज्य के सारे उपक्रम चले जाएं तो फिर वहां जनता के बीच असंतोष और हताशा की स्थिति पैदा होती है इस वक्त देश में जो हालात हैं उस पर तरह-तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं । भारत का राजकोषीय घाटा 6.45 लाख करोड़ रुपए का है । जबकि खर्च बहुत ज्यादा तो इससे निपटने के लिए सरकार अपनी कंपनियों का निजीकरण और विनिवेश करके पैसे जुटाती है । यहां एक महत्वपूर्ण बात यह भी है के सातवीं पंचवर्षीय योजना की समाप्ति तक सार्वजनिक उपक्रमों में पूंजी निवेश की मात्रा लगातार बढ़ाने के बावजूद उनके कार्य किए जाने तथा लगातार हो रहे घाटे ने इनकी सार्थकता पर ही प्रश्न चिह्न खड़े कर दिए । सार्वजनिक इकाइयों की इन समस्याओं तथा परिसीमनों ने ही निजीकरण की जरूरत पैदा की । एक तरफ मजदूर को देखें तो उनका कहना है कि अब निजीकरण के द्वारा सिर्फ शोषण होगा हमारी स्वतंत्रता छीन ली जाएगी और कुंठा की स्थिति पैदा हो जाएगी । मार्क्सवाद का एक सिद्धांत है जिसे अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत कहते हैं इस सिद्धांत के अनुसार
मार्क्स कहते हैं - अतिरिक्त मूल्य उन दो मूल्यों का अंतर है जिसे श्रमिक पैदा करता है और वह वास्तव में पाता है ।यह ऐसा मूल्य है जिसे पूंजीपति श्रमिक के कारण पाता है और जिसके लिए श्रमिक को कुछ भी प्राप्त नहीं होता । यदि किसी वस्तु की लागत मूल्य मजदूरी के साथ ₹200 है और उसे ₹1000 में बेचा जाए तो पूंजीपति मजदूर को श्रम के हिसाब से उसकी मजदूरी नहीं देगा और सारा पैसा अपनी जेब में रख लेगा । जबकि मार्क्स कहते हैं कि यहां बटवारा उचित होना चाहिए। पूंजीपति अपनी पूंजी लगाता है तो मजदूर भी अपना श्रम लगाता है । इस प्रकार आने वाले समय में पूंजी पतियों के द्वारा मजदूरों का शोषण हो सकता है इस ख्याल से मजदूर डरे हुए हैं । यहां एक बात और है जिसकी चर्चा होती है की पार्टी फण्ड में गरीब मज़दूर, किसान पैसा नही देता। पूंजीपति देते हैं। और ये पूंजीपति यह भारी भरकम राशि दान में नहीं देता, वह भली-भांति सोच समझकर और इन राजनीतिज्ञों से बाकायदा सौदा करके, निवेश करता है। और चुनाव के बाद मुनाफे की फसल काटता है।
पर निजीकरण पर जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा अपनी एक अलग राय भी रखता है । 
भारत में अब इस विषय पर आम राय बनती जा रही है कि सरकार द्वारा वाणिज्यिक उपकरणों का संचालन किया जाना किसी भी दृष्टि से न्यायसंगत नहीं है। दुर्लभ वित्तीय कोषों का अभाव, लोक उद्योगों के कर्मचारियों में उत्तरदायित्व तथा जवाबदेही के सम्बन्ध में शिथिल प्रवृति आदि कुछ महत्वपूर्ण कारण हैं जो भारतीय अर्थव्यवस्था में निजीकरण के पक्षधर हैं। यदि उदाहरण के तौर पर हम सिर्फ प्राथमिक शिक्षा की बात करें तो भी डे मील योजना, स्कूल ड्रेस , फ्री में शिक्षा ,पोषाहार आदि की व्यवस्था के बाद भी बच्चों की विद्यालय में उपस्थिति बहुत कम है । वहीं दूसरी तरफ प्राइवेट विद्यालयों में बच्चों की उपस्थिति ज्यादा है। गरीब परिवार का बच्चा भी प्राइवेट विद्यालय में जा रहा है क्योंकि अच्छी शिक्षा गरीब आदमी भी देना चाहता है । अगर हम शिक्षा के गुणवत्ता की बात करें तो सरकारी प्राइमरी विद्यालय और प्राइवेट विद्यालय की शिक्षा में जमीन आसमान का फर्क है । हालांकि प्राइमरी विद्यालय में शिक्षक की योग्यता साथ ही उन की सैलरी दोनों ही बेहतर है । फिर भी शिक्षा के प्रति शिथिलता इतनी ज्यादा है कि कोई अपनी जिम्मेदारी समझने को तैयार नहीं है। यहां यह परेशानी पैदा होगी की सरकारी स्कूल से प्राइवेट स्कूल की फीस बहुत ज्यादा है जिसे वहन कर पाना गरीब के लिए टेढ़ी खीर है । यहाँ सरकार को इस दिशा में सुधार करने की आवश्यकता पड़ेगी । इस तरह सरकारी प्रतिष्ठान ऐसे कई हैं जहां निष्ठा ईमानदारी की बेहद कमी है । निजीकरण के विरोध में जो हैं उनमें से कुछ का मानना ​​है कि कुछ व्यक्तिगत वस्तुओं और सेवाओं को मुख्य रूप से सरकार के हाथ में रहना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति की उन तक पहुंच हो सके (जैसे कानून प्रवर्तन, बुनियादी स्वास्थ्य और बुनियादी शिक्षा )। कोरोना महामारी से लोगों के रोजगार चले गए हैं । मजदूर शहरों को छोड़कर अपने गांव में बैठे हुए हैं । कहीं बाढ़ की विभीषिका है तो कहीं फसलों की मार। हालात बद से बदतर हुए हैं। किसान बारिश और बाढ़ की मार से परेशान है । स्कूल, कॉलेज ,उड्डयन ,रेल सेवा , कल कारखाने आदि बंद पड़े हुए हैं । अब देश को खड़ा करने के लिए विनिवेश की सख्त जरूरत है । अब दूसरे पहलू पर ध्यान दें तो यहाँ विनिवेश ही निजीकरण का मुख्य आधार रहा है। सरकार आर्थिक रूप से बहुत कमजोर हुई है इसी संदर्भ में प्रधानमंत्री को अलग से एक राहत कोष बनानी पड़ी जिसमें देश के लोगों ने पैसा डोनेट किया उस पैसे को आपातकाल के लिए रखा गया है । सरकार की वित्तीय स्थिति पर ध्यान दें तो सरकार राजकोषीय घाटे में चल रही है ऐसे में निजीकरण की महत्ता बढ़ जाती है । निजीकरण के संदर्भ में भारत में दो प्रमुख मुद्दों पर विवाद उत्पन्न होते रहते हैं । एक तो यह कि बेचे जाने वाले हितों का सही मूल्यांकन नहीं होता है, और अपेक्षा से कम मूल्य पर सरकारी शेयर बेच दिये जाते हैं, विवाद का दूसरा मुद्दा यह होता है कि जो सरकारी उपक्रम काफी अच्छे परिणाम प्रदर्शित कर रहे हैं, उनका निजीकरण होना चाहिए अथवा नहीं ।चूंकि हानि पर चलने वाले उपक्रमों के शेयरों में निजी निवेशक रुचि नहीं रखते हैं और विनिवेश के माध्यम से धन जुटाना आवश्यक होता है, इसलिए अच्छे उपक्रमों के विनिवेश से अधिक मात्रा में धन प्राप्त होने की सम्भावना रहती है, लेकिन रुके सरकारी उपक्रमों को नव-जीवन प्रदान करना भी आवश्यक है और इसके लिए निजी क्षेत्र के निवेशक तभी आगे आ सकते है जब विक्रय योग्य सम्पत्ति के मूल्य में उन्हें पर्याप्त रियायत दी जाये और उपक्रम को स्वस्थ बनाने की योजना को मूर्त रूप देने में उन्हें अपेक्षित वित्तीय एवं अन्य सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाए । कुल मिलाकर मेरा मानना है कि निजी और सरकारी दोनों संगठनों के बीच सही तालमेल और विश्वसनीयता बनाए रखने की आवश्यकता पड़ेगी जिस पर सरकार को कुछ नियम बनाने चाहिए । जिससे आम जनता को यह कभी न लगे कि कहीं से हमारा शोषण हो रहा है और दूसरी तरफ मजदूरों को अपनी शिथिलता छोड़कर ईमानदारी के साथ अपना काम करना पड़ेगा तभी देश उन राष्ट्रों की श्रेणी में शामिल हो सकता है जो आज विकसित हैं ।
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