जयंती (९ अगस्त) पर विशेष
महान शब्द-शिल्पी और भावितात्मा साहित्यर्षि थे आचार्य शिवपूजन सहाय :- डा अनिल सुलभ
हिन्दी भाषा और साहित्य के लिए अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर देने वाले महान शब्द-शिल्पी आचार्य शिवपूजन सहाय एक ऐसे विनम्र साहित्यकार और संपादक थे, जिन्हें साहित्यर्षि कहा जाना अधिक उपयुक्त होगा। उनकी विनम्रता और सरलता, पूज्य राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की स्मृति कराती थी। उनके हृदय में साहित्य और साहित्यकारों के प्रति जो उदात्त भाव थे वे विरल और दुर्लभ हैं। यद्यपि कि उनके हाथ में संपादन की बहुत ही दृढ़ और कड़ी 'छेनी-हथौड़ी' थी, पर उन्होंने उससे किसी साहित्यकार के चित्र को बिगाड़ा नही, बल्कि उन्हें तराश कर साहित्य-देवी की वन्दनीय प्रतिमा बना दिया। उन्होंने जिस निष्ठा से हिन्दी की सेवा की, जितना लिखा, यदि अपने लिए लिखा होता तो, केवल उनके ही ग्रंथों से एक बड़ा ग्रंथागार भरा होता, पर उन्होंने अपनी लेखनी का बहुलांश, साहित्यकारों को, विशेषकर नवोदित साहित्यकारों को दिया, उनके अनगढ़ साहित्य को निखारने और चमकाने तथा उनपर 'भूमिका' या 'उपोधघात' लिखने में। वे उन कृतात्मा साहित्यकारों में थे ,जिन्होंने जिस निष्ठा से माँ भारती की सेवा की उसी निष्ठा से भारता माता की स्वतंत्रता के महान-संग्राम में भी भाग लिया। उनकी महान सेवाओं और एकनिष्ठ साहित्य-साधना के लिए भारत सरकार ने 'पद्म-भूषण' के अलंकरण से उन्हें विभूषित किया। वे बिहार राष्ट्र भाषा परिषद के संस्थापक-निदेशक और बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के भी अध्यक्ष रहे, जहाँ राष्ट्रभाषा परिषद का कार्यालय आरंभ हुआ था। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के १०० वर्ष के गौरवशाली इतिहास का वह स्वर्णयुग था जब शिवजी सम्मेलन परिसर में रहकर हिन्दी-सेवा किया करते थे। उन्होंने सम्मेलन भवन को देश भर के साहित्यकारों का तीर्थ-स्थल बना दिया था और उनके संपादन में प्रकाशित हो रही पत्रिका'साहित्य', देश में 'शोध-साहित्य' की सबसे बड़ी पत्रिका मानी जाती थी। इस पत्रिका में छपना परम सौभाग्य का विषय माना जाता था।वे एक ऐसे मनीषी संपादक और शब्द-शोधक थे, जिन्हें कथा-सम्राट 'मुंशी प्रेमचंद्र के अनेक उपन्यासों और महाकवि जयशंकर प्रसाद के विश्व-विश्रुत महाकाव्य 'कामायनी' के परिशोधन का गौरव प्राप्त है। वे सच्चे अर्थों में भावितात्मा साहित्यर्षि थे!
शिवजी का जन्म शाहाबाद (अब बक्सर ) जिले के इटाढ़ी प्रखंड अंतर्गत उनवास ग्राम में, ९ अगस्त १८९३ को एक निम्न मध्यम-वर्गीय किंतु कुलीन सारस्वत कुल में हुआ था। उनके पूज्य पिता श्री वागीश्वरी दयाल, आरा के एक ज़मींदार के पटवारी थे। शिवजी की प्रारंभिक शिक्षा ग्रामस्थ पाठशाला में हुई। प्राथमिक-शाला की पढ़ाई पूरी करने के पश्चात उनका नामांकन आरा के बहु-प्रशंसित विद्यालय 'के जे ऐकेडमी' में करा दिया गया, जहाँ से उन्होंने १९१३ में प्रवेशिका की परीक्षा उत्तीर्ण की। आर्थिक कारणों से इनकी उच्च-शिक्षा की अभिलाषा अधूरी रह गई। इसी शिक्षा और आयु में उन्हें वृति की खोज करनी पड़ी और वे वाराणसी की कचहरी में नक़ल-नवीस हो गए। किंतु भगवत-कृपा से उन्हें शीघ्र ही, उसी विद्यालय में शिक्षक का पद प्राप्त हो गया, जहाँ से उन्होंने प्रवेशिका की थी।
शिवजी में साहित्य के प्रति आग्रह किशोर-वय से ही था। अध्यापन का कार्य मिला तो साहित्याध्यन और सृजन के लिए अवकाश भी मिला। और इस प्रकार उनके उस महान साहित्यिक-जीवन का आरंभ हुआ, जिसने उन्हें, हिन्दी साहित्य के क्षितिज पर कांतिमान नक्षत्र के रूप में प्रतिष्ठित किया। उन दिनों आरा नगर, साहित्य और संस्कृति के उज्जवल केंद्र के रूप में प्रतिष्ठा अर्जित कर रहा था। यहाँ की नागरी प्रचारिणी सभा, संपूर्ण देश में प्रतिष्ठा पा चुकी थी, जो देश की प्राचीन साहित्यिक संस्थाओं के रूप में आज भी जीवित है। पुण्य श्लोक शिवनंदन सहाय, पं सकल नारायण शर्मा, पं ईश्वरी प्रसाद शर्मा आदि स्तुत्य विद्वान इसी संस्था से प्राणापान से जुड़े हुए थे। शिवनंदन बाबू और पं सकल नारायण शर्मा बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष भी रह चुके थे। इन्हीं विद्वानों का साहचर्य पाकर शिवजी की साहित्यिक प्रतिभा और चेतना प्रस्फुटित और परिष्कृत हुई।
यह काल स्वतंत्रता के महान और निर्णायक संग्राम की पृष्ठभूमि तैयार कर रहा था। गांधी जी का अहिंसक चंपारण सत्याग्रह आरंभ हो चुका था। गांधी जी के आह्वान पर उन्होंने भी अपने विद्यालय के अध्यापक-पद का त्याग कर दिया और असहयोग आंदोलन में कूद पड़े। गाँव-गाँव जाकर वे कांग्रेस के लिए प्रचार और जन-जागरण के कार्य करने लगे। कुछ साहित्यिक अग्रजों की प्रेरणा से वे वर्ष १९२१ में कलकत्ता (अब कोलकाता) चले गए, जहाँ उन्होंने अनेक वर्षों तक, 'मारवाड़ी सुधार', 'मतवाला', 'समन्वय', 'गोलमाल', 'उपन्यास तरंग', 'मौजी', 'आदर्श' आदि साहित्यिक पत्रिकाओं का संपादन किया। इन पत्रिकाओं के संपादक के रूप में उन्हें पर्याप्त ख्याति मिली और सम्मान प्राप्त हुआ। वे देश के सुप्रतिष्ठ और श्रेष्ठ भाषाविद संपादक के रूप में सुख्यात हो चुके थे। इसी अवधि में उनकी बहुचर्चित कृति 'देहाती दुनिया' (उपन्यास) और कथा-संग्रह 'विभूति' का प्रकाशन हो चुका था। 'देहाती दुनिया' को, जो ग्राम्य-सुषमा पर आंचलिकता के स्वर से युक्त उपन्यास है, प्रथम आँचलिक उपन्यास माना जाता है। 'विभूति' में संकलित उनकी कहानियाँ 'मुंडमाल' और 'कहानी का प्लॉट' साहित्य-संसार में लोकप्रियता का शिखर छू रही थी।
उनकी संपादन-कला और शब्द-शिल्प से प्रभावित होकर, 'माधुरी' के अनुरागी प्रकाशक दुलारे लाल भार्गव ने उन्हें आग्रह कर लखनऊ बुला लिया। अपने लखनऊ प्रवास में, उन्होंने अनेक साहित्यिक विभूतियों को अपना सौजन्य प्रदान किया। इसी अवधि में उन्होंने मुंशी प्रेमचंद्र के प्रसिद्ध उपन्यास 'रंगभूमि' समेत उनकी अनेक कहानियों का भाषा-परिशोधन भी किया। प्रेमचंद्र, आचार्य जी से इतने प्रभावित थे कि, वे अपनी रचनाओं को प्रकाशित करने से पूर्व एक बार उनसे अवश्य दिखा लेना चाहते थे। वर्ष १९२६ में शिवजी वाराणसी चले गए, जहाँ उन्हें महाकवि जयशंकर प्रसाद की 'कामायनी' एवं अन्य रचनाओं को देखने का अवसर मिला। कहा जाता है कि, शिवजी के आग्रह पर प्रसाद जी ने'कामायनी' में अनेक परिवर्तन भी किए। १९३१ में वे बिहार के सुल्तानगंज (अब झारखण्ड) आ गए, जहाँ उन्होंने 'गंगा' का संपादन किया। लगभग एक वर्ष के पश्चात वे पुनः बनारस लौट आए और १९३२ में काशी से प्रकाशित पाक्षिक-पत्र 'जागरण' के संपादन का दायित्व स्वीकार किया। इनके पश्चात प्रेमचंद्र इसके संपादक हुए थे।
लहेरिया सराय में स्थापित हुए अपने समय के चर्चित प्रकाशन संस्थान 'पुस्तक भंडार' के संस्थापक महोदय के आग्रह पर शिवजी बिहार के लहेरिया सराय आ गए। यह कोई १९३४-३५ का वर्ष था। यहाँ उन्होंने लगभग ६ वर्ष बिताए और इस अवधि में उन्होंने अनेक हिन्दी लेखकों और कवियों की पांडुलिपियों का उद्धार किया। छपरा के सुप्रसिद्ध विद्वान, जो बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के प्रधानमंत्री भी हुए, श्री उमानाथ जी के उद्योग से शिवजी राजेंद्र कौलेज में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक के रूप में छपरा आ गए। तब यशस्वी कवि द्विज जी विभागाध्यक्ष थे। द्विज जी के पश्चात शिवजी हिन्दी विभाग के अध्यक्ष हुए। यह भी एक रोचक प्रसंग है कि एक प्रवेशिका उत्तीर्ण व्यक्ति किसी महाविद्यालय का विभागाध्यक्ष था। यह अद्भुत उपलब्धि भी शिवजी के ही नाम है। लगभग दस वर्षों तक शिवजी ने शिक्षा-दान करते हुए, छपरा में हिन्दी को संवलित किया।
इधर पटना में 'पुस्तक भंडार' का कार्यालय आरंभ हो गया था तथा बेनीपुरी जी और दिनकर जी 'हिमालय' नाम से एक साहित्यिक पत्रिका निकालने का उद्योग कर रहे थे। उनकी इच्छा थी कि शिवजी ही उसका संपादन करें। इस इच्छा से उन्होंने राजेंद्र बाबू से आग्रह किया और उनके प्रयास से एक वर्ष का विशेष अवकाश अवकाश लेकर शिवजी पटना आ गए और 'हिमालय' का संपादन किया, एक वर्ष के भीतर यह पत्रिका संपूर्ण हिन्दी पट्टी में विशेष स्थान बनाने में सफल हो गई।अवकाश एक वर्ष के लिए ही था, सो वे पुनः राजेंद्र कौलेज वापस हो गए।
१९५० में शिवजी को राज्य सरकार ने पटना बुला लिया और वे नव-स्थापित 'बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के संस्थापक संचालक (तब इस पद को 'मंत्री' कहा जाता था) नियुक्त किए गए। परिषद का कार्यालय, क़दमकुआं स्थित बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन भवन में आरंभ किया गया था। शिवजी सम्मेलन भवन में ही रहा करते थे। उन्होंने अपनी कर्मठता, विद्वता और घोर परिश्रम से परिषद को अप्रतिम ऊँचाई प्रदान की। अनेक दुर्लभ ग्रंथों का प्रकाशन कराया। परिषद द्वारा अनेक खंडों में प्रकाशित ग्रंथ 'हिन्दी साहित्य और बिहार' एक महान उपलब्धि है, जिसके कारक और कारण भी शिवजी ही थे। उनका साहित्यिक अवदान इतिहास शेष है। उन्होंने राजेंद्र बाबू की आत्म-कथा, 'द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ', 'राजेंद्र अभिनंदन ग्रंथ', 'जयंती-स्मारक ग्रंथ' (पुस्तक भंडार की रजत-जयंती पर प्रकाशित), 'बिहार की महिलाएँ' आदि अत्यंत मूल्यवान और साहित्यिक महत्त्व के ग्रंथों का संपादन किया। 'विभूति' और 'देहाती दुनिया' के अतिरिक्त 'भीष्म', 'अर्जुन' (जीवन-चरित), 'दो घड़ी' (व्यंग्य), 'ग्राम सुधार' आदि उनकी प्रकाशित कृतियाँ तथा अनेक अप्रकाशित रचनाएँ, हिन्दी साहित्य की मूल्यवान धरोहर हैं । उनके विद्वान पुत्र प्रो मंगलमूर्ति ने चार भागों में उनके समग्र 'शिवपूजन रचनावली' का प्रकाशन कर एक अत्यंत कल्याणकारी और स्तुत्य कार्य किया है। तथापि शिवजी ने हिन्दी भाषा और साहित्य के उन्नयन में जितने महनीय कार्य किए हैं, उनका मूल्यांकन अभी भी शेष है। गद्य साहित्य में उनके अप्रतिम अवदान का सम्यक् मूल्याँकन होने पर वे हिन्दी साहित्य के इतिहास में 'द्विवेदी-युग' की भाँति गद्य में 'शिवजी-युग' के रूप में प्रतिष्ठित किए जाएँगे।
बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में उनके कार्यों को मैं यों भी 'सम्मेलन का स्वर्ण-युग' मानता हूँ। वे वर्ष १९४१ में, सम्मेलन के १७ वें अधिवेशन के सभापति चुने गए थे। उनके अध्यक्षीय भाषण, जो सम्मेलन द्वारा प्रकाशित ग्रंथ 'बिहार की साहित्यिक प्रगति' में संकलित भी है, हिन्दी भाषा के समक्ष खड़ी बाधाओं की स्पष्ट पहचान कर, उसके निदान का मार्ग प्रशस्त करता है। जब वे राष्ट्रभाषा परिषद के मंत्री के रूप में, सम्मेलन परिसर में स्थाई रूप से निवास करने लगे, सम्मेलन को भी उनकी महान सेवाएँ प्राप्त हुईं। तत्कालीन अध्यक्ष रामवृक्ष बेनीपुरी जी के आग्रह पर उन्होंने सम्मेलन पत्रिका 'साहित्य' के संपादन का दायित्व स्वीकार किया। सम्मेलन के साहित्यमंत्री और समालोचना के शिखर-पुरुष आचार्य नलिन विलोचन शर्मा के संपादन-सहयोग से शिवजी द्वारा संपादित यह शोध-पत्रिका भारतवर्ष में साहित्य की शीर्ष पत्रिका मानी जाती थी। इस पत्रिका में स्थान पा लेना, बड़ा साहित्यकार हो जाने का प्रमाण-पत्र था। इसी में छपे नलिन जी की समालोचना के कारण, फनीश्वर नाथ 'रेणु', रातोंरात कथा-साहित्य के वरेण्य-पुरुष हो गए, अन्यथा वे भी उन सैकड़ों मनीषी साहित्य-सेवियों की भाँति अज्ञात ही रह जाते, जो समालोचकों की दृष्टि से अलक्षित रह गए। उनके काल में निरंतर देश भर के मनीषी साहित्यकारों का आना होता रहा। बड़े-बड़े कवि-सम्मेलन हुए। उनकी दिवंगता पत्नी बच्चन देवी के नाम से साप्ताहिक 'बच्चन देवी गोष्ठी' हुआ करती थी, जिसमें देश भर के विद्वान आया करते थे।
अत्यंत सादगी भरा जीवन जीने वाले शिवजी इतने सरल और विनम्र थे कि, सम्मेलन और परिषद के सभी छोटे बड़े कार्य वे स्वयं कर लिया करते थे। पत्र लिखने, पत्रोत्तर लिखने, लिफ़ाफ में भरने और पैदल चलकर डाक-पेटी में गिराने तक के कार्य वे स्वयं करते थे। वे गांधी-दर्शन के सर्वतोभावेन आदर्श पुरुष थे। वर्ष १९५६ में परिषद के मंत्री के पद को उत्क्रमित किया गया, तबसे शिवजी उसके निदेशक हो गए। किंतु संविदा की तिथि से ६ माह पूर्व ही उन्हें १९५९ में पद से मुक्त कर दिया गया, जिसके कारण उन्हें अवकाश-प्राप्ति का लाभ (पेंशन) नही मिला। सम्मेलन भवन भी छूट गया। मीठापुर में किराए के एक मकान में उनके अंतिम के कुछ वर्ष कठिनाई में बीते। भोजन तक की भी चिंता रही। यह एक साहित्यिक महात्मा के साथ अन्याय की एक अलग कथा है, जो फिर कभी। हिन्दी भाषा को सनाथ करने वाले शिवजी २१ जनवरी, १९६३ को अनेक पीढ़ियों को अनाथ कर के संसार से विदा हो गए।
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