नाग जाति
संकलन अश्विनी कुमार तिवारी
कल मैंने नाग पंचमी पर एक लेख पोस्ट किया था, उक्त लेख के बाद बहुत से मित्रों के निवेदन आए हैं की इस विषय पर और विस्तृत जानकारी प्रस्तुत की जाए। कई मित्रों की अलग अलग जिज्ञासायें भी थी, इसलिए आज उनमें से कुछ महत्वपूर्ण विषयों के लेकर एक अन्य लेख तैयार किया है। आशा करता हूँ कि यह लेख अधिकांश मित्रों की जिज्ञासा को शांत करेगा साथ ही जिनके लिये और जानकारी अपेक्षित है उनके लिये उपयोगी भी होगा।
प्रारम्भ करते हैं अरुण उपाध्याय जी के लेख से -
नाग जाति
कई मनुष्य जातियों को नाग कहते थे। भीमसेन को विष देने के बाद वे अपने नाना आर्यक नाग के पास पहुंचे थे। अर्जुन की एक पत्नी नाग कन्या उलूपी थी (वर्तमान नागालैण्ड, मणिपुर की)। बंगाल में नाग ब्राह्मणों तथा कृषकों की भी उपाधि है। ओड़िशा के अधिकांश राज परिवार नागेश्वर गोत्र के हैं। उनका एक स्थान भूवनेश्वर में नागेश्वर टांगी है। (टांगी नाम के प्रायः ५० स्थान ओड़िशा, छत्तीसगढ़ में परशुराम की छावनी थे)। नाग भारत तथा विदेश में व्यापारी थे। जो केन्द्र में उत्पादन या भण्डारण करते थे वे माहेश्वरी, जो हर दिशा में वितरण किये वे नाग, अग्रवाल आदि हैं। अतः माहेश्वरी अपने को बड़ा मानते हैं। इनके नाम पर भारत के कई स्थान हैं-अहिच्छत्र, अहिगृह (आगरा), नागपुर, भागलपुर (भोगवती), नागावली नदी, नागपत्तनम्। अहिगृह में रहने वालों को अघरिया कहते हैं जो पश्चिम ओड़िशा, छत्तीसगढ़ में हैं। प्रायः हर देश में नाग थे जिनका वर्णन महाभारत में कई स्थलों पर है। कश्यप-कद्रू की सन्तान नहुष नाग थे जिनको मध्य अमेरिका में नहुआ कहते थे। आस्तीक नाग को मेक्सिको में एज्टेक कहते हैं। वासुकि नाग दक्षिण अमेरिका (पुष्कर द्वीप में रहते थे जो देव-असुर समुद्र मन्थन में समन्वय के लिए झारखण्ड आये थे तथा उनके नाम पर वासुकिनाथ गंगा तट पर मन्दार पर्वत (मन्दराचल) के छोर पर है। जापान में नाग स्थान नागासाकी था।
✍🏻अरुण कुमार उपाध्याय
भगवान श्रीकृष्ण की दादीमाँ मारिषा नागकन्या थी। अर्जुन ने भी नागकन्या उलुपी से विवाह किया था। प्रभु श्रीराम के पुत्र कुश की पत्नी पत्नी भी नागकन्या थीं।
सिर्फ भारत मे ही नही विश्व के हर कोने में सांपो की पूजा की जाती है तो यदि कोई आपकी संस्कृति को अपमानित करे और कहे कि आप लोग पिछड़े है तो ये उदहारण आप उन्हें दे सकते है।
#चीन में -
चीन में आज भी ड्रैगन यानी महानाग की पूजा होती है और उनका राष्ट्रीय चिन्ह भी यही ड्रैगन है । विश्व के अनेक देशो में विधान-वैविध्य से इनकी पूजा होती है I
#अमेरिका -
दक्षिण अमेरिका के आदिवासी वर्ष में एक दिन सर्पो की पूजा करते है I वे सर्पो के संभावित निवास स्थान के समीप जाकर चावल के दाने गिराते है I यह एक प्रकार का संकेत या निमंत्रण है, जिसके द्वारा सर्पो को पूजा-स्थल पर आने की सूचना दी जाती है I पर्व के दिन हजारो सर्प इस पत्थर के पास आकर एकत्र होते है I ये आदिवासी इनको निर्भय होकर पकड़ते है और उन्हें मक्के के दाने की बनी हुयी खीर खिलाते है I यह द्रश्य बड़ा ही रोमांचक एवं लुभावना होता है I हजारो नागो के बीच मनुष्य को हँसते-खेलते देखकर आश्चर्य होता है I सर्प भी नाना प्रकार के खेल दिखाते है, नृत्य करते है और फन लहराकर प्रेम प्रकट करते है I अमेरिका निवासी गोरी प्रजाति के लोग इस उत्सव में भाग नहीं लेते I किन्तु वे इस अद्भुत द्रश्य को देखने के लिए अपनी कारो या सवारी के अन्य साधनों से पूजा स्थल पर पहुँचते है और दिनमान इस द्रश्य का आनंद उठाते है I सूर्यास्त के बाद सभी सर्प अपने स्थान को चले जाते है I यह क्रम हजारो साल से यथावत चला आ रहा है , किन्तु सर्पो से इन आदिवासियो को आज तक कोई छति नहीं हुयी है I
अमेरिका में कोलंबस के समय नागपूजा प्रचलित थी । एक मान्यता के अनुसार अमेरिका के ओहियो नामक राज्य में नाग-संप्रदाय के लोग निवास करते थे ।
#नेपाल -
नेपाल में नाग को वर्षा और समृद्धि का देवता माना जाता है । जापान में भी सर्प को वर्षा का देवता मानते हैं । अफ्रीका में तो नागपूजा की परंपरा आज भी विद्यमान है । पुराने जमाने में वहाँ नाग को प्रसन्न करने के लिए भेड़-बकरियों की बलि भी दी जाती थी।
#स्काटलैण्ड -
स्कॉटलैंड के अनेक प्राचीन स्मारकों में हमें सर्प की आकृतियां बनी हुई मिलती हैं ।
#आयरलैंड -
आयरलैंड में 17 मार्च को प्रति वर्ष संत-सर्प-दिवस मनाया जाता है ।
#रोम -
रोम में आज भी वर्ष में एक बार नाग पूजा का महोत्सव मनाया जाता है , जिसमें कुमारी कन्याएं सर्पों को जौ के आटे से बना केक खिलाती हैं । यदि सांप उस केक को खा ले तो इसे बड़े सौभाग्य का संकेत माना जाता है ।
#मिस्र -
मिस्र में सर्पों की देवताओं के समान पूजा की जाती थी । वहाँ के मंदिरों की दीवारों पर नागों की आकृतियां अंकित की जाती थीं तथा कुछ विशेष प्रकार के सर्पों को उनकी मृत्यु के बाद उनकी ममी बना कर दफनाया भी जाता था। ' ईजो ' नामक नाग को तो वहां बुद्धि का देवता माना जाता था। नील नदी के रक्षक भी सर्प ही समझे जाते थे ।
#इटलीएवमसिसली -
इटली तथा सिसली में भी कुछ स्थानों पर नागपूजन किया जाता है ।
#स्वीडन -
स्वीडन में 16 वीं शताब्दी तक नागों का गृह देवता के रूप में पूजन किया जाता था ।
#पोलैंड -
पोलैंड में भी प्राचीन काल में नागपूजा का त्यौहार राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाया जाता था।
#ऑस्ट्रेलिया -
ऑस्ट्रेलिया में मान्यता है कि एक बड़े नाग ने जब अपनी पूंछ को झटका दिया , तभी इस सृष्टि की उत्पत्ति हुई। भारत के समान ऑस्ट्रेलिया के धार्मिक ग्रंथों में ऐसा वर्णन है कि उसी बड़े नाग के हिलने-डुलने से भूकंप आते हैं। पुराने जमाने में वहां नाग की प्रतिमा पर हाथ रख कर शपथ लेने का भी रिवाज था। ।
#विशेष -
विश्व के लगभग सभी देश सर्प की किसी न किसी रूप में पूजा करते है।
श्रीलंका , कंबोडिया , जावा तथा फिजी आदि देशों में भी नागपूजा की काफी लंबी परंपरा रही है ।
नागो के सम्बन्ध में सबसे रोचक घटना ग्रीक द्वीप सीफालोनिया के मार्कोपोलो एवं अर्जीनिया नामक गाँव के पास की है i यहाँ हाली स्नैक (Holy snake) नामक एक गिरिजाघर है I इसमें वर्जिन मेरी के दिन अर्थात 6 अगस्त को हजारो अनाहूत सर्प एकत्र होते है और गिरिजाघर में स्थित मूर्ति का दर्शन करते है I यह सभी सर्प मूर्ति के चरणों में दस दिन तक लोटते रहते है I पंद्रह अगस्त के दिन इनका अभियान पूरा होता है I इसके बाद वे यथा स्थान वापस चले जाते हैं I यह विलक्षण घटना भी प्रतिवर्ष नियमित रूप से घटित होती है I इस अवधि मे कोई भी व्यक्ति गिरिजाघर में जाकर यह द्रश्य देख सकता है क्योंकि वे सर्प आगंतुको की ओर जरा भी ध्यान न देकर अपने कार्य में संलग्न रहते है I वहां के लोगो ने इस घटना की फिल्मे भी तैयार की है ताकि जिज्ञासु लोग उन्हें देखकर सच्चाई स्वीकार कर सके
✍🏻अजेष्ठ त्रिपाठी
मैं नागों में अनंत (शेष नाग) हूं।- श्रीकृष्ण
भारत में नाग देवता की पूजा का प्रचलन प्राचीन काल से ही चला आ रहा है। नाग नाम की एक प्राचीन प्रजाती हुआ करती थी जिसके वंशज आज भी भारत में विद्यमान है। एक समय था जबकि धरती पर आधे मानव और आधे पशु के समान लोग रहते थे। पुराणों में सर्पमानव के होने का उल्लेख मिलता है। जिस तरह सूर्यवंशी, चंद्रवंशी और अग्निवंशी माने गए हैं उसी तरह नागवंशियों की भी प्राचीन परंपरा रही है। महाभारत काल में पूरे भारत वर्ष में नागा जातियों के समूह फैले हुए थे। विशेष तौर पर कैलाश पर्वत से सटे हुए इलाकों से असम, मणिपुर, नागालैंड तक इनका प्रभुत्व था। कुछ विद्वान मानते हैं कि शक या नाग जाति हिमालय के उस पार की थी। अब तक तिब्बती भी अपनी भाषा को 'नागभाषा' कहते हैं।
3000 ईसा पूर्व आर्य काल में भारत में नागवंशियों के कबीले रहा करते थे, जो सर्प की पूजा करते थे। उनके देवता सर्प थे। पुराणों अनुसार कैस्पियन सागर से लेकर कश्मीर तक ऋषि कश्यप के कुल के लोगों का राज फैला हुआ था।
कश्यप ऋषि की पत्नी कद्रू से उन्हें आठ पुत्र मिले जिनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं- 1. अनंत (शेष), 2. वासुकी, 3. तक्षक, 4. कर्कोटक, 5. पद्म, 6. महापद्म, 7. शंख और 8. कुलिक। कश्मीर का अनंतनाग इलाका अनंतनाग समुदायों का गढ़ था उसी तरह कश्मीर के बहुत सारे अन्य इलाके भी दूसरे पुत्रों के अधीन थे।
नाग वंशावलियों में 'शेष नाग' को नागों का प्रथम राजा माना जाता है। शेष नाग को ही 'अनंत' नाम से भी जाना जाता है। इसी तरह आगे चलकर शेष के बाद वासुकी हुए फिर तक्षक और पिंगला। वासुकी का कैलाश पर्वत के पास ही राज्य था और मान्यता है कि तक्षक ने ही तक्षकशिला (तक्षशिला) बसाकर अपने नाम से 'तक्षक' कुल चलाया था। उक्त तीनों की गाथाएं पुराणों में पाई जाती हैं।
अग्निपुराण में 80 प्रकार के नाग कुलों का वर्णन है, जिसमें वासुकी, तक्षक, पद्म, महापद्म प्रसिद्ध हैं। नागों का पृथक नागलोक पुराणों में बताया गया है। अनादिकाल से ही नागों का अस्तित्व देवी-देवताओं के साथ वर्णित है। जैन, बौद्ध देवताओं के सिर पर भी शेष छत्र होता है। असम, नागालैंड, मणिपुर, केरल और आंध्रप्रदेश में नागा जातियों का वर्चस्व रहा है।
भारत में उपरोक्त आठों के कुल का ही क्रमश: विस्तार हुआ जिनमें निम्न नागवंशी रहे हैं- नल, कवर्धा, फणि-नाग, भोगिन, सदाचंद्र, धनधर्मा, भूतनंदि, शिशुनंदि या यशनंदि तनक, तुश्त, ऐरावत, धृतराष्ट्र, अहि, मणिभद्र, अलापत्र, कम्बल, अंशतर, धनंजय, कालिया, सौंफू, दौद्धिया, काली, तखतू, धूमल, फाहल, काना, गुलिका, सरकोटा इत्यादी नाम के नाग वंश हैं।
नाग से संबंधित कई बातें आज भारतीय संस्कृति, धर्म और परम्परा का हिस्सा बन गई हैं, जैसे नाग देवता, नागलोक, नागराजा-नागरानी, नाग मंदिर, नागवंश, नाग कथा, नाग पूजा, नागोत्सव, नाग नृत्य-नाटय, नाग मंत्र, नाग व्रत और अब नाग कॉमिक्स। नाग पूजा संबंधित देशभर में कई प्राचीनकालीन मंदिर विद्यमान है। उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर के उपर नागराज का एक मंदिर है जो प्रतिवर्ष नागपंचमी के दिन ही खुलता है। इसी तरह का एक रहस्यमयी मंदिर है मन्नारसला मंदिर
मन्नारसला श्रीनागराज मंदिर केरल के अलप्पुझा जिले के हरीपद गांव में स्थित है। मन्नारसला मंदिर के रास्ते और पेड़ों पर लगभग 30,000 से अधिक सांपों के चित्र बनाए गए हैं। 16 एकड़ के क्षेत्र में फैला यह मंदिर हरे-भरे घने जंगलों से घिरा हुआ है। नागराज को समर्पित इस मंदिर में नागराज तथा उनकी जीवन संगिनी नागयक्षी देवी की प्रतिमा स्थित है।
इस मंदिर में उरुली कमजाहथाल (Uruli Kamazhthal) नामक विशेष पूजा की जाती है जो बच्चे की इच्छा रखने वाली महिलाओं के लिए फलदायी मानी जाती है। एक कथा के अनुसार, नागराज की पूजा का का संबंध भगवान परशुराम से है जिन्हें केरल का निर्माता माना जाता है। मन्नारसला मंदिर का यह इतिहास 'मंडरा सलोद्यम' (Mandara Salodyam) नामक एक संस्कृत कविता में लिखा गया है। इस कविता के लेखक मन्नरसला एम.जी नारायणन हैं।
कहा जाता है कि पुराणों में वर्णित प्रसिद्ध नाग शेष, तक्षक और कर्कोटक ने इस स्थान पर भगवान् शिव की तपस्या की थी। इस मंदिर में शिव की पूजा नागेश्वर के रूप में की जाती है। तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने दर्शन दिए और इन सर्पों की इच्छा पूरी की। इस मंदिर के पास राहू का भी स्थान है। राहू को सर्पों का देवता माना जाता है।
इस मंदिर के बारे में कथा प्रचलित है कि जब परशुराम हैययवंशियों की हत्या करने के पाप से छुटकारा पाना चाहते थे तो वे केरल में एक स्थान पर गए जहां की इस भूमि को उन्होंने दान कर दिया। इस बात से प्रसन्न होकर नागराजा ने परशुराम की इच्छा पर इसी स्थान पर निवास करने का निर्णय लिया।
✍🏻श्वेताभ पाठक
पुराणों अनुसार सभी नागों की उत्पत्ति ऋषि कश्यप की पत्नि कद्रू की कोख से हुई है। कद्रू ने हजारों पुत्रों को जन्म दिया था जिसमें प्रमुख नाग थे- अनंत (शेष), वासुकी, तक्षक, कर्कोटक, पद्म, महापद्म, शंख, पिंगला और कुलिक। कद्रू दक्ष प्रजापति की कन्या थीं।
अनंत (शेष), वासुकी, तक्षक, कार्कोटक और पिंगला- उक्त पांच नागों के कुल के लोगों का ही भारत में वर्चस्व था। यह सभी कश्यप वंशी थे। इन्ही से नागवंश चला।
पुराणों के शोधानुसार नाग वंशावलियों में ‘शेष नाग’ को नागों का प्रथम राजा माना जाता है। शेष नाग को ही ‘अनंत’ नाम से भी जाना जाता है। इसी तरह आगे चलकर शेष के बाद वासुकी हुए फिर तक्षक और पिंगला। वासुकी ने भगवान शिव की सेवा में नियुक्ति होना स्वीकार किया।
वासुकी का कैलाश पर्वत के पास ही राज्य था और मान्यता है कि तक्षक ने ही तक्षकशिला (तक्षशिला) बसाकर अपने नाम से ‘तक्षक’ कुल चलाया था। उक्त तीनों की गाथाएं पुराणों में पाई जाती हैं। शेषनाग (अनंत) को भगवान विष्णु की सेवा का अवसर मिला।
एक सिद्धांत अनुसार ये मूलत: कश्मीर के थे। कश्मीर का ‘अनंतनाग’ इलाका इनका गढ़ माना जाता था। कांगड़ा, कुल्लू व कश्मीर सहित अन्य पहाड़ी इलाकों में नाग ब्राह्मणों की एक जाति आज भी मौजूद है। महाभारत काल में पूरे भारत वर्ष में नागा जातियों के समूह फैले हुए थे। विशेष तौर पर कैलाश पर्वत से सटे हुए इलाकों से असम, मणिपुर, नागालैंड तक इनका प्रभुत्व था। ये लोग सर्प पूजक होने के कारण नागवंशी कहलाए। कुछ विद्वान मानते हैं कि शक या नाग जाति हिमालय के उस पार की थी। अब तक तिब्बती भी अपनी भाषा को ‘नागभाषा’ कहते हैं।
उनके बाद ही कर्कोटक, ऐरावत, धृतराष्ट्र, अनत, अहि, मनिभद्र, अलापत्र, कम्बल, अंशतर, धनंजय, कालिया, सौंफू, दौद्धिया, काली, तखतू, धूमल, फाहल, काना इत्यादी नाम से नागों के वंश हुआ करते थे। भारत के भिन्न-भिन्न इलाकों में इनका राज्य था।
अथर्ववेद में कुछ नागों के नामों का उल्लेख मिलता है। ये नाग हैं श्वित्र, स्वज, पृदाक, कल्माष, ग्रीव और तिरिचराजी नागों में चित कोबरा (पृश्चि), काला फणियर (करैत), घास के रंग का (उपतृण्य), पीला (ब्रम), असिता रंगरहित (अलीक), दासी, दुहित, असति, तगात, अमोक और तवस्तु आदि।
‘नागा आदिवासी’ का संबंध भी नागों से ही माना गया है। छत्तीसगढ़ के बस्तर में भी नल और नाग वंश तथा कवर्धा के फणि-नाग वंशियों का उल्लेख मिलता है। पुराणों में मध्यप्रदेश के विदिशा पर शासन करने वाले नाग वंशीय राजाओं में शेष, भोगिन, सदाचंद्र, धनधर्मा, भूतनंदि, शिशुनंदि या यशनंदि आदि का उल्लेख मिलता है।
पुराणों अनुसार एक समय ऐसा था जबकि नागा समुदाय पूरे भारत (पाक-बांग्लादेश सहित) के शासक थे। उस दौरान उन्होंने भारत के बाहर भी कई स्थानों पर अपनी विजय पताकाएं फहराई थीं। तक्षक, तनक और तुश्त नागाओं के राजवंशों की लम्बी परंपरा रही है। इन नाग वंशियों में ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि सभी समुदाय और प्रांत के लोग थे।
नागवंशियों ने भारत के कई हिस्सों पर राज किया था। इसी कारण भारत के कई शहर और गांव ‘नाग’ शब्द पर आधारित हैं। मान्यता है कि महाराष्ट्र का नागपुर शहर सर्वप्रथम नागवंशियों ने ही बसाया था।
वहां की नदी का नाम नाग नदी भी नागवंशियों के कारण ही पड़ा। नागपुर के पास ही प्राचीन नागरधन नामक एक महत्वपूर्ण प्रागैतिहासिक नगर है।
इसके अलावा हिंदीभाषी राज्यों में ‘नागदाह’ नामक कई शहर और गांव मिल जाएंगे। उक्त स्थान से भी नागों के संबंध में कई किंवदंतियां जुड़ी हुई हैं।
✍🏻फेसबुक
महाभारत नागों की भी कहानी होती है। हमें इतिहास राजाओं की कहानी की तरह पढ़ाया जाता है। टीवी पर दिखाते समय शायद ये दिक्कत हुई कि ऐसे ही सिस्टम में पढ़े-लिखे आज के लोगों ने जब महाभारत को दर्शाया तो उसे किसी पांडव और कौरवों के राजा बनने के लिए हुई लड़ाई के तौर पर दर्शाया। एक किताब के तौर पर जो भृगु महाभारत में हर जगह हैं, उनका कहीं जिक्र तक टीवी के जरिये महाभारत समझने की कोशिश करने वालों को दिखाई-सुनाई ही नहीं दिया। महाभारत में नाग बिलकुल शुरू में ही आ जाते हैं।
उत्तंक नाम का एक छात्र जब अपनी गुरुदक्षिणा के लिए रानी से उनके कुंडल मांगने पहुँचता है, तभी वो उसे सावधान करती हैं कि नागराज कई दिन से इन कुण्डलों पर निगाह जमाये बैठा है। वो गरीब छात्र की गुरुदक्षिणा का इंतजाम तो करती हैं, मगर साथ ही उसे चोरी से सावधान भी कर देती हैं। सावधानी के वाबजूद तक्षक कुण्डल चुरा कर भाग जाता है। छात्र बेचारा पीछा करता हुआ पाताल पहुंचा, आखिर जैसे तैसे कुण्डल लेकर वापस गुरु माता के पास लौटता है। इस एक कहानी में कम से कम पांच नीति कथाएँ होती हैं, मगर फ़िलहाल उनसे ध्यान हटाकर हम नागों पर ही ध्यान रखेंगे।
तो वापस आते हुए, नागों का दूसरा बड़ा जिक्र कृष्ण के कालिया दमन, और भीम को विष देकर नदी में फेंके जाने के समय आता है। यमुना के इलाकों में नागों का कब्ज़ा था इस से ये बात भी समझ आती है। कृष्ण ने पांडवों के सहयोग से उन्हें इस इलाके से दूर किया था। कृष्ण और अर्जुन बाद में खांडवप्रस्थ को भी नागों से खाली करवा लेते हैं। कृष्ण को चक्र चलाना तो काफी पहले ही परशुराम सिखा चुके होते हैं, लेकिन अग्नि से उन्हें यहीं दिव्यास्त्र मिलते हैं। सुदर्शन चक्र भी अग्नि ने दिया, और अर्जुन को गांडीव भी अग्नि ने इसी समय दिया।
इस खांडव वन को जलाने की लड़ाई में अग्नि की सहायता जहाँ कृष्ण-अर्जुन कर रहे थे वहीँ वहां रहने वाले नागों की रक्षा इंद्र कर रहे थे। इंद्र नागों को बचा नहीं पाए और सिर्फ तक्षक का एक पुत्र अश्वसेन निकल के भाग पाने में कामयाब हुआ। बाकी वहां रहने वाले तक्षक के वंशज नाग वहीँ मारे गए। इस दुश्मनी को ना अश्वसेन भूला ना तक्षक। इस खांडव वन को इन्द्रप्रस्थ बनाने से थोड़ा ही पहले अर्जुन का नागकुमारी उलूपी ने अपहरण कर लिया था। इस वैवाहिक सम्बन्ध के कारण अर्जुन को पानी के अन्दर ना हारने का भी वरदान था।
नागों से इस दोस्ती-दुश्मनी का नतीजा महाभारत की लड़ाई में भी दिखेगा। युद्ध में जब कर्ण अर्जुन से लड़ रहे होते हैं तो यही खाण्डववन वाला अश्वसेन कर्ण के तरकश में जा घुसा। कर्ण के बाण से चिपक के वो अर्जुन तक पहुँच जाना चाहता था, लेकिन कृष्ण अपने अंगूठे से रथ को दबा देते हैं। इस बार इंद्र, जो कि कभी नागों की सहायता कर रहे थे, उन्हीं का दिया मुकुट अर्जुन के काम आ जाता है। कर्ण का तीर रथ के दब जाने के कारण अभेद्य मुकुट से टकराकर टूट गया और अश्वसेन अर्जुन तक नहीं पहुँच पाया। अश्वसेन दोबारा भी कर्ण के पास उसके तीर पर सवार होने का प्रस्ताव लेकर पहुंचा था, लेकिन कर्ण नागों की मदद को ओछी हरकत मानकर इनकार कर देता है।
युद्ध के अंत में जब दुर्योधन तालाब में छुपा होता है और पांडव उसे ढूंढ निकालते हैं तब भी दुर्योधन नागों की वजह से बाहर आता है। अगर अर्जुन पानी में उतरता तो दुर्योधन का मारा जाना तय था, जबकि बाहर निकलकर भीम से द्वन्द युद्ध में दुर्योधन के पास विजय की थोड़ी संभावना बनती थी। इसलिए दुर्योधन ने बाहर आना चुना था। नागों ने युद्ध के ख़त्म होने पर युद्ध में शामिल हुए अन्य लोगों की तरह शत्रुता की भावना भी नहीं छोड़ी थी। कई साल बाद जब अर्जुन के पोते को शाप मिलता है तो तक्षक उसे डसने पहुँच जाता है। कोई उसे बचा ना पाए इसलिए काश्यप नाम के वैद्य (ऋषि नहीं, ये दुसरे थे) को वो धन इत्यादि देकर दूसरी दिशा में रवाना भी कर देता है।
शुरू में जिस उत्तंक का जिक्र है वो भृगुकुल के ऋषि धौम्य के शिष्य वेद के शिष्य थे। महाभारत की शुरुआत में ही धौम्य ने उनके शेष पर विजयी होने की भविष्यवाणी की थी। महाभारत के अंतिम हिस्से में जन्मजेय के सर्प यज्ञ में उत्तंक ही पुरोहित थे।
अगर आप सेक्युलर विचारधारा के मुताबिक (जल्दबाजी में) इसे दो अलग अलग सभ्यताओं की जंग कहकर किसी आर्य-नाग युद्ध जैसा कुछ बताना चाहते हैं तो मत कीजिये। नाग और कौरव-पांडव के अलावा कई कुलों का जिक्र महाभारत में आता है। सब के सब इंद्र, वरुण, अग्नि, विष्णु, शिव आदि देवी-देवताओं के ही उपासक दिखते हैं। कोई एक दुसरे की परम्पराओं को हेय या निकृष्ट बता रहा हो ऐसा भी नहीं दिखता। एक दुसरे से वैवाहिक संबंधों के कारण सामाजिक बहिष्कार जैसे कोई मामले भी नजर नहीं आते। ये कहानियां इसलिए याद आई क्योंकि कर्ण के धनुष पर चढ़े अश्वसेन जैसी ये तस्वीर कल मनीष शुक्ला जी की वाल पर नजर आ गई थी।
बाकी हर अपराध पर संवेदना जताने के बहाने से जब भारत के बहुसंख्यकों पर छुपा प्रहार होने लगता है तो वो कर्ण के तीर पर चढ़े अश्वसेन जैसा ही दिखता भी है। आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता, वो तो खैर पता ही है।
✍🏻आनन्द कुमार
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