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तुलसीदास जी की प्रासंगिकता

तुलसीदास जी की प्रासंगिकता

तुलसी हर्षवर्धन कलिपावनावतार श्री राम कथा के अनुपम एवं अंतिम उद्गाता सांस्कृतिक क्रांति के सफल पुरोधा कविकुलपरम गुरु अभिनव बाल्मीकि गोस्वामी श्री तुलसीदास जी की जयंती पर शत शत नमन
गोस्वामी जी का जीवन बाल बैरागी के रूप में उभरा धा ।कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि उनका विवाह रत्नावली के साथ हुआ था परंतु गोस्वामी जी स्वयं स्वीकार करते हैं
बूझ्यो ज्यों ही कह्यो मैं हूं चेरा ह्वैहोः राबरोजू ,
मेरो कोउ कहूं नहीं चरण गहत हौं
मींज्यो गुरु पीठ अपनाई बोलि बाँह गही ,सेवक सुखद वाँको विरूद बहत हौं।
लोग कहें पोच सो न सोच न संकोच मेरे ,
ब्याह न बरेखी जात पाँत न चहत हौं। तुलसी अकाज काज राम ही के रीझे खीझे ,
प्रीति की प्रतीति ताते मुदित रहत हौं।
मानस में हमारे जीवन का सारा समाधान मिलता है और इसीलिए लोग उनके जीवन को सभी अंगो का संपूर्ण अनुभव मानते हैं। आज सबसे अधिक क्षरण हमारी संस्कृति की हुई है ।राष्ट्र, समाज, घर, परिवार और ब्यष्टि, माता- पिता, गुरु- शिष्य, भाई- भाई, स्त्री- पुरुष सभी संबंधों का जिस तरह निर्देशन गोस्वामी जी ने किया है, वह स्तुत्य हैं एवं अनुपम है, दुर्लभ है और अपरिमेय है। पति पत्नी का प्रेम
प्रभा जाए कँह भानु बिहाई।
कहां चंद्रिका चंदु तजी जाई।।
आगे,
मातु पिता भ्राता हितकारी ।
मित्र प्रद सब सुनु राजकुमारी ।।
अमित दान भरता वैदेही ।
अधम सो नारि जो सेवन तेही ।।
वृद्ध रोग बस जड़ धन हीना ।
अंग बधिर क्रोधी अति दीना।।
ऐसेहु पति कर किए अपमाना ।
नारी पाव जमपुर दुख नाना ।।
एकइ धर्म एक व्रत नेमा।
काय वचन मन पति पद प्रेमा ।
पुत्र धर्म
प्रात काल उठि के रघुनाथा ।
मातु पिता गुरु नावहिं माथा ।।
आयसु मांगी करहि पुर काजा ।
देखि चरित्र हरसइ मन राजा ।।
अनुज सखा संग भोजन करहीं।
मातु-पिता अज्ञा अनुसरहीं।।
वेद पुराण सुनहिं मन लाई ।
आपु कहहीं अनुजन्ह समुझाई ।।
और तो और ,14 वर्ष से पूर्व की अवस्था में उन्हें विश्वामित्र जी के साथ भेज दिया गया । वहां भी वे उतना ही पसंद दिखते हैं। कंटकाकीर्ण मार्ग का कष्ट उन्हें व्यथित नहीं करता।
मुनि के संग बिराजत बीर।
गुरु के साथ संबंध तो पराकाष्ठा पार कर गई है।
प्रात कहा मुनिसन रघुराई।
निर्भय यज्ञ करहु तुम्ह जाई ।।
होम करण लागे मुनि झारी ।
आप रहे मगही की रखवारी ।।
मुनि की आज्ञा और निर्देश की प्रतीक्षा किए बिना ही इन्होंने प्रातकाल होते ही स्वयं मुनि से कहा, "आप जाकर यज्ञ करें।"
गुरु सेवा
गुरु के साथ किस तरह का व्यवहार होना चाहिए इसे देखा जा सकता है
सभय सप्रेम विनीत अति सकुच सहित दोउ भाई ।
गुरु पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाई।।
मुनिवर सयन किन्ही तब जाई।
लगे चरण चापन दोउ भाई ।।
जिन्ह के चरण सरोरुह लागी ।
करत विविध जप योग विरागी।।
सो दोउ बंधु प्रेम जनु जीते।
गुरु पद कमल पलोट प्रीते।।
बार-बार मुनि अज्ञा दिन्ही।
रघुवर जाई सयन तब किन्ही।।
लेकिन लक्ष्मण जी अभी भी सेवा में लगे ही रहे ।
पुष्प वाटिका से फूल लाने में विलंब हो गया। कुछ घटनाएं प्रणय शिक्त हो गईं।परन्तु पुष्प वाटिका से लौटकर गुरु को सारा वृत्तांत कह देते हैं।
होइ न विमल विवेक और, गुरुसन किए दुराव ।
राजा के रूप में
मुखिया मुख सो चाहिए खानपान को एक ।।
पालइ पोसइ सकल अग तुलसी सहित विवेक ।।
बस ,,करन पुनीत हेतु निज।वानी ।
सादर समर्पित ।गोस्वामी जी महाराज के श्री चरणों में।
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