धन कमाने वाली राजनीति, देश के साथ गद्दारी है
राधा बिहारी ओझा.

इस प्रश्न का संपूर्ण उत्तर बस एक ही वाक्य में है, " अगर राजनीति कर रहे व्यक्ति के दिमाग में या मन में एक पल के लिए भी यह बात आ जाय कि मुझे इस माध्यम से कुछ आमदनी भी हो जाय तो वह व्यक्ति राजनीतिज्ञ नहीं, दलाल और भठियारा है."
लोकतंत्र का मूल सूत्र है:"अगर आपको आजीविकासूत्रकमानी हो तो खेती करिए, व्यापार करिए,नौकरी करिए, मजदूरी करिए या कुछ भी ऐसा काम करिए, जिससे आपकी आजीविका चल सके लेकिन आजीविका चलाने के लिए कृपाकर राजनीति मत करिए."
लोकतंत्र में प्रत्येक स्तर पर जनप्रतिनिधियों का प्रावधान समाज की बेरोजगारी दूर करने के लिए नहीं किया गया है.जनप्रतिनिधि जनता के हक तथा विश्वास के रखवाले हैं.स्पष्ट है अगर जनप्रतिनिधि पैसा कमाता है तब वह जनता के साथ तथा लोकतंत्र के साथ विश्वासघात करता है.
अब इस बात की सप्रसंग व्याख्या :
पंचायत में लगभग दस हजार की आबादी पर हमें एक मुखिया और एक सरपंच चाहिए.मुखिया और सरपंच उसी गाँव के या पंचायत क्षेत्र के लोगों के भाई, चाचा, भतीजा, बाबा, पोता, मामा, भगिना आदि होते हैं, मतलब घर के ही होते हैं.और कहा गया है, एक घर (अपना घर) डायन भी बक्शती है.अब अगर मुखिया, सरपंच भी अपने लोगों के प्रति ईमानदारी नहीं निभा पावें तो उनको तो भाई चुल्लू भर पानी में डूबकर मर जाना चाहिए.कुछ लोग कह सकते हैं, पंचायत के चुनाव में भी खर्च होता है, तो यह भी अत्यधिक शर्म की ही बात है कि मुखिया तथा सरपंच के चुनाव में भी खर्च होता है.पंचायत के लोगों को जागरूक होकर गंभीरतापूर्वक यह सुनिश्चित करना होगा कि सबसे पहले वे पंचायत स्तर पर ईमानदार तथा कर्मठ जनप्रतिनिधि का चुनाव करें.
"आओ हम सब अपने जमीर को जगावें,
सबसे पहले बढ़िया एक मुखिया बनावें."
अब विधायक के बारे में :
साढ़े तीन से चार लाख मतदाताओं के बीच से एक विधायक का चुनाव किया जाता है.अब अगर हम चार लाख मतदाताओं के लिए या लगभग पाँच लाख की आबादी के लिए एक भी ऐसे आदमी की तलाश नहीं कर सकते जो ईमानदारी पूर्वक तथा कर्मठता पूर्वक अपने लोगों के हक की रखवाली कर सके तो इससे बढ़कर दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति दूसरी क्या हो सकती है.
यही बात सांसद के लिए भी लागू होती है.अठारह से बीस लाख मतदाताओं के लिए एक व्यक्ति सांसद बनता है और हमें आवश्यकता है कि वह एक व्यक्ति कर्मठ हो, ईमानदार हो और आजीविका कमाने के बोझ से मुक्त हो.
बीच में पंचायत समिति तथा जिला परिषद भी है.वहाँ भी इसी तरह की स्थिति है.
अब बात आती है कि ये प्रत्येक स्तर के जो जनप्रतिनिधि हैं, उनका परिवार कैसे चलेगा? तो मैं बहुत ही विनम्रतापूर्वक कहूँगा कि भाई जिन्हें परिवार की चिंता है वे जनप्रतिनिधि क्यों बनते हैं? जनप्रतिनिधि बनना जनता की सेवा करने का संकल्प है और यह केवल पाँच वर्ष के लिए ही होता है.अगर आप सन्यासी नहीं हैं, गृहस्थ हैं तब जनप्रतिनिधि तब बनिए जब गृहस्थी के बोझ से मुक्त हो जाइए.जब गृहस्थी चलाने की ही चिंता है तब भला जनप्रतिनिधि बनने के लिए क्यों परेशान हैं?
स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान सैकड़ों, हजारों लोग अपना घर, परिवार, आमदनी सब छोड़कर आजादी की लड़ाई लड़ने के लिए घर से बाहर आये थे.अब हमें उस आजादी की रक्षा करनी है और लोकतंत्र को मजबूत करना है.अगर जनता चाहे और प्रबुद्ध लोग संकल्प कर लें तो जनप्रतिनिधि बनने के लिए प्रत्येक स्तर पर जनप्रतिनिधि सही व्यक्ति की तलाश हम क्यों नहीं कर सकते हैं?
आजकल बहुत लोगों का एक मुहाबरा हो गया है,युवकों को राजनीति में आना चाहिए.सही बात है, अवश्य आना चाहिए.लेकिन ये युवा कौन हों, किस प्रकार के हों, यह भी तो परिभाषित होना चाहिए.अगर कोई युवा राजनीति में आकर ही शादी-व्याह, घर-परिवार सब बसाना चाहे और इन सभी स्थापनाओं के लिए धन की व्यवस्था भी राजनीति से ही करने की योजना बनावे तो यह कितनी खतरनाक तथा चिंता की बात है? इसलिए युवा राजनीति में आवें, अवश्य आवें, लेकिन स्वामी विवेकानन्द, भगत सिंह,चंद्रशेखर आजाद की सोच वाले या जिस प्रकार आजादी के आंदोलन के समय के युवा आते थे, उसी समय की तरह की सोच वाले युवा राजनीति में आवें.
कृपा कर लोकतंत्र के जमाने में वैसे लोग राजनीति में आने नहीं नहीं सोचे तथा जनता वैसे लोगों को राजनीति में तरजीह नहीं दे, जो राजनीति को आजीविका का साधन मानते हों,जिनकी सोच सतही हो,जिन लोगों की अच्छे सिद्धांत से कोई जान-पहचान ही नहीं हो,जिनकी फिलासफी (दर्शन) जीरो(शून्य) हो और जिनका उद्देश्य बस समाज का संस्कार भ्रष्ट करना हो और लूट-पाट कर किसी प्रकार भौतिक रूप से धनी बन जाना हो.
हम भारत के लोग रोज रात को निंद के लिए जब विछावन पर जायँ तब एक मिनट के लिए अपने मन को एकाग्र कर निश्चित रूप से अपने लोकतंत्र की सुरक्षा तथा इसकी मजबूती के लिए संकल्प लें.
हम देख रहे हैं, लोकतंत्र के लुटेरे आज बहुत सक्रिय हैं.इसलिए आम जनता का तथा प्रत्येक समझदार और संवेदनशील नागरिक का यह पावन कर्तव्य है कि इस विषय पर गंभीरता के साथ सोचे तथा इसे हल्के में नहीं ले.राजनीति को और लोकतंत्र को हमें सर्कस बनने से रोकना है.इसे हमें हर बोलवा तथा गोंड़ कारोकनानाच भी नहीं बनने देना है.
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