बारह मासों में से सावन का महीना अपनी विशेष पहचान रखता है
अश्विनी कुमार तिवारी
हिन्दू कैलेण्डर के बारह मासों में से सावन का महीना अपनी विशेष पहचान रखता है। इस माह में चारों ओर हरियाली छाई रहती है। ऐसा लगता है मानों प्रकृति में एक नई जान आ गई है। वेदों में मानव तथा प्रकृति का बड़ा ही गहरा संबंध बताया गया है। वेदों में लिखी बातों का अर्थ है कि बारिश में ब्राह्मण वेद पाठ तथा धर्म ग्रंथों का अध्ययन करते हैं। इन मंत्रों को पढऩे से व्यक्ति को सुख तथा शांति मिलती है। सावन में बारिश होती है। इस बारिश में अनेक प्रकार के जीव-जंतु बाहर निकलकर आते हैं। यह सभी जन्तु विभिन्न प्रकार की आवाजें निकालते हैं। उस समय वातावरण ऐसा लगता है कि जैसे किसी ने अपना मौन व्रत तोड़कर अभी बोलना आरम्भ किया हो।
जीव-जन्तुओं की भाषा का वर्णन इस प्रकार किया गया है कि जिस प्रकार बारिश होने पर जीव-जन्तु बोलने लगते हैं उसी प्रकार व्यक्ति को सावन के महीने से शुरु होने वाले चौमासों (चार मास) में ईश्वर की भक्ति के लिए धर्म ग्रंथों का पाठ सुनना चाहिए।
धर्मिक दृष्टि से समस्त प्रकृति ही शिव का रुप है। इस कारण प्रकृति की पूजा के रुप में इस माह में शिव की पूजा विशेष रुप से की जाती है। सावन के महीने में वर्षा अत्यधिक होती है। इस माह में चारों ओर जल की मात्रा अधिक होने से शिव का जलाभिषेक किया जाता है।
शिव पूजन क्यों किया जाता है:
प्राचीन ग्रंथों के अनुसार समुद्र मंथन के दौरान समुद्र से विष निकला था। इस विष को पीने के लिए शिव भगवान आगे आए और उन्होंने विषपान कर लिया। जिस माह में शिवजी ने विष पिया था वह सावन का माह था। विष पीने के बाद शिवजी के तन में ताप बढ़ गया। सभी देवी - देवताओं और शिव के भक्तों ने उनको शीतलता प्रदान की लेकिन शिवजी भगवान को शीतलता नहीं मिली। शीतलता पाने के लिए भोलेनाथ ने चन्द्रमा को अपने सिर पर धारण किया। इससे
उन्हें शीतलता मिल गई। ऐसी मान्यता भी है कि शिवजी के विषपान से उत्पन्न ताप को शीतलता प्रदान करने के लिए मेघराज इन्द्र ने भी बहुत वर्षा की थी। इससे भगवान शिव को बहुत शांति मिली। इसी घटना के बाद
सावन का महीना भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए मनाया जाता है। सारा सावन, विशेष
रुप से सोमवार को, भगवान शिव को जल अर्पित किया जाता है। महाशिवरात्रि के बाद पूरे
वर्ष में यह दूसरा अवसर होता है जब भग्वान शिव की पूजा बड़े ही धूमधाम से मनाई जाती है।
सावन माह की विशेषता: हिन्दु धर्म के अनुसार सावन के पूरे माह में भगवान शंकर का पूजन किया जाता है। इस माह को भोलेनाथ का माह माना जाता है। भगवान शिव का माह मानने के पीछे एक पौराणिक कथा है।
इस कथा के अनुसार देवी सती ने अपने पिता दक्ष केे घर में योगशक्ति से अपने शरीर का त्याग कर दिया था। अपने शरीर का त्याग करने से पूर्व देवी ने महादेव को हर जन्म में पति के रुप में पाने का प्रण किया था।अपने दूसरे जन्म में देवी सती ने पार्वती के नाम से हिमालय और
रानी मैना के घर में जन्म लिया। इस जन्म में देवी पार्वती ने युवावस्था में सावन के माह में निराहार रहकर कठोर व्रत किया। यह व्रत उन्होंने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए किए। भगवान शिव पार्वती से प्रसन्न हुए और बाद में यह व्रत सावन के माह में विशेष रुप से रखे जाने लगे।
कामार्थी>काँवारथी>काँवरिया
काम और अर्थ के लिये धर्म का आश्रय लेने वाले कांवरिये आपका रुद्री पाठ या कोई स्तोत्र नहीं जानते । ये भोले भालेे भोले भक्त बस बम भोले बोल अपना पूजन कर लेते हैं।
भारत में दो ही महीनें कुछ खास हैं एक सावन दूजा फागुन , ज्यों शरद और बसंत। सावन में स्त्रियाँ चहकती हैं तो फागुन में पुरुष बहकते हैं । दोनों ही मासों में कांवर यात्रा होती है । शिवतत्व लोक में रचा बसा हुआ है यही भारत हैं।
महाभारत की कथा में जब पांडव वनवासी हुये तब द्रौपदी सहित भीमसेन ने भी युधिष्ठिर को युद्ध के लिये खूब उकसाया । वनपर्व के तेतीसवें अध्याय में भीमसेन ने युधिष्ठिर को उपदेश किया जिसके कुछ श्लोकों का संक्षेप इस प्रकार है
राजन् ! धनकी इच्छा रखनेवाले पुरूष महान् धर्म की अभिलाषा रखता है और कामार्थी मनुष्य धन चाहता है जैसे धर्म से धनकी और धन से काम की इच्छा करता है, उस प्रकार वह कामसे किसी दूसरी वस्तु की इच्छा नहीं करता है। ‘जैसे फल उपभोग में आकर कृतार्थ हो जाता है, उससे दूसरा फल नहीं प्राप्त हो सकता तथा जिस प्रकार काष्ठ से भस्म बन सकता है; इसी तरह बुद्धिमान् पुरूष एक कामसे किसी दूसरे काम की सिद्धि नहीं मानते, क्योंकि वह साधन नहीं, फल ही है। ‘राजन् ! जो खोटी बुद्धिवाला मनुष्य काम और लोभ के वंशीभूत होकर धर्म के स्वरूप को नहीं जानता, वह इहलोक और परलोक में भी सब प्राणियों का वध्य होता है। ‘राजन् ! आपको यह अच्छी तरह ज्ञात है कि धनसे ही भोग्य-साम्रगी का संग्रह होता हैं और धनके द्वारा जो बहुत-से कार्य सिद्ध होते हैं, उसे भी आप जानते हैं। ‘उस धनका अभाव होने पर अथवा प्राप्त हुए धनका नाश होने पर अथवा स्त्री आदि धन के जरा-जीर्ण एवं मृत्यु-ग्रस्त होने पर मनुष्य की जो दशा होती है, उसी को सब लोग अनर्थ मानते हैं। वही इस समय हमलोगों को भी प्राप्त हुआ है।। ‘पांचों ज्ञानेन्द्रियों, मन और बुद्धि की अपने विषयों में प्रवृत होने के समय जो प्रीति होती है, वही मेरी समझ में काम है। वह कर्मों का उत्तम फल है। इस प्रकार धर्म, अर्थ और काम तीनों को पृथक्-पृथक् समझकर मनुष्य केवल धर्म, केवल अर्थ अथवा केवल काम के ही सेवन में तत्पर न रहे। उन सबका सदा इस प्रकार सेवन करे, जिससे इनमें विरोध न हो। इस विषय शास्त्रों का यह विधान है कि दिन के पूर्वभाग में धर्म का, दूसरे भाग में अर्थ का और अंतिम भाग में काम का सेवन करे। ‘वक्ताओं में श्रेष्ठ ! उचित काल का ज्ञान रखनेवाला विद्धान् पुरूष धर्म, अर्थ और काम तीनों का यथावत् विभाग करके उपयुक्त समयपर उन सबका सेवन करे। ‘ राजन् ! इसी प्रकार लौकिक सुख की इच्छावालों के लिये धर्म, अर्थ, कामरूप त्रिवर्ग की प्राप्ति ही परम श्रेय है। अतः महाराज ! भक्ति और योगसहित ज्ञान का आश्रयलेकर आप शीघ्र ही या तो मोक्ष ही प्राप्ति कर लीजिये अथवा धर्म, अर्थ, कामरूप त्रिवर्ग की प्राप्ति के उपायका अवलम्बन कीजिये। जो इन दोनों के बीच में रहता है, उसका जीवन तो आर्त मनुष्य के समान दुःखमय ही है। ‘मुझे मालूम है कि आपके सदा धर्मका ही आचरण किया है, इस बात को जानते हुए भी आपके हितैषी, सगे-सम्बन्धी आपको (धर्मयुक्त) कर्म एवं पुरूषार्थ के लिये ही प्रेरित करते हैं। महाराज ! इहलोक और परलोक में भी दान, यज्ञ, संतो का आदर, वेदों का स्वाध्याय और सरलता आदि ही उत्तम एंव प्रबल धर्म माने गये हैं।
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