देवी अहिल्याबाई होलकर का वृक्षारोपण मे योगदान
सात बारा शब्द का उद्गम
अश्वनी कुमार तिवारी
साधारणतःभारत मे (जमीन)घर real estate की खरीद बेच करते समय "सात बारा"(खसरा या मिसल बंदोबस्त, बी-वन की नकल)ये निकालना पडता है।सात बारा ये कोई कानूनी नाम या धारा नही ये अहिल्याबाई होलकर ने दिया हुआ योगदान है ।
उन्होने सरकारी खर्च से गरीब किसान के यहा १२फलो के झाड लगवाये उसमे से सात झाड किसान के व पांच झाड सरकार के।
बारह झाडो कि निगरानी कर सात झाडो की अर्थात् ७/१२के फल खुद किसान खाऐ और रहे पाच झाड के फल ५/१२सरकारी जमा करना पडता बचे फल और गरीबो को बाटने के लिऐ ।इसके लिए एक सरकारी दफ्तर निर्माण कर झाडो का हिसाब (गिनती किस कि जमीन मे कितने वृक्ष है)तैयार किया गया ।इस हिसाब दाखिले को "सात बारा" के नाम से जाना जाता था ।ज़ो आज समय तक जाना जाता है ।
सांस्कृतिक रूप से भारत के, हिन्दू राजा-रानी को प्रजा का पालन अपनी संतान की तरह करना होता था। अब इसमें दिक्कत ये थी कि परंपरागत रूप से बेटियां अपने पिता के घर से खाली हाथ भी नहीं भेजी जा सकतीं! राजमाता से मिलकर कोई राजकीय अतिथि हो, या साधारण प्रजाजन, उसे कुछ विशेष दिया जा सके इसलिए राजमाता ने कुछ बुनकरों को मालवा और सूरत से बुलवाकर अपने राज्य में, माहेश्वर में बसाया और इन्होंने नौ गज की कुछ ख़ास रेशमी साड़ियाँ बनाना शुरू किया। राजमाता के आदेश पर बनते थे तो इनका रंग भी लाल-केसरिया, हरा और बैंगनी तक सीमित था, अब इसमें दूसरे रंग भी होते हैं।
माहेश्वर इलाके से होने के कारण इनका नाम भी “माहेश्वरी” साड़ी ही होता है। इन्हें आसानी से इनके डिजाईन से पहचाना जा सकता है। इसपर डिजाईन में कुछ धारियां (स्ट्राइप्स) होंगी, या फिर कुछ हीरे की आकृति (चेक-स्क्वायर) हो सकते हैं। फूलों के नाम पर इसमें चमेली से प्रेरित फूलों के डिजाईन होते हैं। चटाई (मैट पैटर्न) और चमेली के फूल के अलावा ईट (ब्रिक पैटर्न) के पहले डिजाईन का श्रेय भी राजमाता अहिल्याबाई होल्कर को ही जाता है। समय बीतने के साथ अब इन साड़ियों में रेशम के अलावा सूती भी इस्तेमाल होने लगा है।
कभी कभी इसके बॉर्डर पर जरी या ब्रोकेड भी नजर आ जाता है। इसके बॉर्डर की एक और ख़ास बात होती है कि इन्हें सीधा-उल्टा दोनों तरफ से बुना जाता है, इसलिए साड़ी को दोनों तरफ से पहना जा सकता है। ये बनारसी जैसी भारी साड़ियों में नहीं, बल्कि हल्की साड़ियों में गिनी जाती है इसलिए मौसम या अवसर का भी बहुत ज्यादा चुनाव नहीं करना पड़ता। फ़िलहाल इसके पांच प्रकार मिलते हैं – चंद्रकला, बैंगनी चंद्रकला, चन्द्रतारा, बेली और परबी। इसमें से चंद्रकला और बैंगनी चंद्रकला तो प्लेन (कम डिजाईन वाले) हैं, बाकी के तीन ज्यादा डिजाईन वाली साड़ियाँ होती है।
बाकी हाल के दौर में फ्रांस-ब्रिटेन जैसे इलाकों में भी ये साड़ी काफी प्रचलन में रही है। किसी फॉर्मल सी दफ्तर की पार्टी में किसी साड़ी में लिपटी नवयौवना की साड़ी पर ईट, चटाई, या चमेली के फूल दिख सकते हैं। अगर दिखें तो अट्ठारहवीं सदी की राजमाता अहिल्याबाई होल्कर को याद कर लीजियेगा, ये माहेश्वरी साड़ी भी उन्हीं की है!
31 मई को राजमाता अहिल्याबाई होल्कर की जयंती थी
✍🏻आनन्द कुमार
गया जी (तीर्थ) में फल्गु नदी के किनारे विष्णुपाद या विष्णुपद मंदिर का निर्माण मालवा की रानी देवी अहिल्या बाई होल्कर ने सन 1787 में कराया।
इस मंदिर के निर्माण में 3 लाख रुपए का खर्च आया था और बारह वर्षों तक 6 सौ मजदूर काम करते रहे। ये शिल्पी और मजदूर राजस्थान के जयपुर से लाए गए थे। इनके साथ शर्त थी कि काम पूरा होते ही इन्हें अपने-अपने घर लौटना पड़ेगा।
सन 1795 में जब उनका देहावसान हुआ तब भी ये शिल्पी और मजदूर मंदिर के आसपास काम में लगे हुए थे लेकिन इनकी मृत्यु की खबर सुनकर काम रोक दिया गया। इस वक़्त राजा मित्रजित ने इन शिल्पियों और मजदूरों को सनद देकर बसाया।
अष्टकोणीय (अष्टफलकीय) आधार पर खड़े किए गए इस मंदिर के ऊपर तक 8 फलक ही हैं। इस मंदिर में 18 स्तम्भ हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि सभी पर अलग-अलग पोज़ के 'नारायण चरण' बनाए गए हैं। यह 'नारायण चरण' 30 सेंटीमीटर का है जिस पर शंख, चक्र, गदा अंकित हैं।
विष्णुपाद मंदिर स्थानीय बैसाल्ट चट्टानों को काटकर बनाया गया है। मंदिर के शीर्ष पर सोने का कलश और झण्डा लगा हुआ है जिसका वजन 51 किलोग्राम है। मंदिर अपनी वास्तुकला के लिए विश्व विख्यात है जिसमें नट मंदिर और गर्भगृह की प्राचीन परंपरा का पालन किया गया है। गर्भगृह का शिखर 1 सौ मीटर ऊंचा है और नट मंदिर की ऊंचाई 30 मीटर है।
ये बैसाल्ट पत्थर गया से 19 मील दूर पत्थलकट्टी से लाए गए थे। इन पत्थरों को प्रभावी काला रंग देने के लिए सीम (Dolichos lablab) की पत्तियों और तने के रस इस्तेमाल किए गए। इस मंदिर को धर्मशिला के नाम से भी जाना जाता है।
ऐतिहासिक रिकॉर्ड बताते हैं कि अहिल्या बाई मालवा की रानी थी जिनकी राजधानी महेश्वर थी। वे शिव भक्त थी लेकिन विष्णु की भक्ति भी कम नहीं करती थीं।
गया में विष्णुपाद मंदिर के निर्माण से पहले उन्होंने महाराष्ट्र के अमरावती में चंद्रभागा (पूर्णा) नदी के तट पर एक विष्णुपद मंदिर बनवाया था जो बरसात के मौसम में लगभग पूरी तरह डूब जाता था। यह मंदिर 16 स्तंभों पर टिका हुआ है जिसके सभी स्तंभों पर विष्णु के एक-एक जोड़े चरण चिह्न अंकित हैं लेकिन सभी एक-दूसरे से भिन्न हैं। विष्णु का चरणचिह्न इस मंदिर में सालों भर लगभग पूरी तरह डूबा रहता है। यही वो मंदिर था जिसने गया में विशाल मंदिर बनवाने की प्रेरणा उन्हें दी।
वे राजस्थान की मीराबाई की तरह ही भक्त थी जिनका उद्देश्य था - 'मेरो तो गिरधर गोपाल, दूसरों न कोई'। परिवार में सबको खो देने के बाद इन्होंने प्रजा और ईश्वर के प्रति अपना पूरा समय दिया।
गया के प्रति उनकी आस्था ने विवाह के पश्चात इस मंदिर का निर्माण कराया था। गया की सबसे पहली यात्रा उन्होंने अपनी दादी के साथ 1731 में की थी। तब वे 6 वर्ष की थी।
कहते हैं नर्मदा नदी को साड़ी चढ़ाने की परंपरा इन्होंने ही शुरू की थी। ये बेहतरीन तीरंदाज़ थीं। तीर में साड़ी का एक किनारा बांधकर और उसे प्रत्यंचा पर चढ़ाकर खींचते हुए नर्मदा नदी पार कर देती थी। इसे देखने के लिए जनसमूह उमड़ पड़ता था। यह परंपरा उनके बाद भी चलती रही।
जब इनकी मृत्यु हुई थी तब भारत भर में कई मंदिरों में काम चल रहा था। ये सभी रुक गए। गया में तब विष्णुपाद मंदिर के प्रांगण में इनकी एक प्रतिमा बनाकर इन शिल्पियों ने स्थापित करा दी। यह प्रतिमा आज भी इस मंदिर में है।
इन्होंने जिन मंदिरों का निर्माण कराया इनमें काशी विश्वनाथ मंदिर भी एक था, जिसे अपने वास्तविक जगह से थोड़ा हटाकर बनाया गया क्योंकि वास्तविक जगह में ज्ञानवापी मस्जिद खड़ी थी।
रानी अहिल्याबाई ने त्रयंबकेश्वर मंदिर का निर्माण भी कराया। इंदौर स्टेट गज़ेटियर बताता है कि मालवा स्टेट के अंदर के इंदौर, महेश्वर और आलमपुरा तथा स्टेट के बाहर के उज्जैन, ओंकारेश्वर, रावर, कुंभर, पुष्कर, पूना, जेजुरी, बद्रीनाथ, हरिद्वार, अयोध्या, काशी, गया, वृन्दावन, नेमिषारण्य, अमरकंटक, पंढरपुर और रामेश्वर में मंदिर, छतरी घाट और धर्मशाला का निर्माण भी इनके कार्यकाल में जमकर हुआ।
✍🏻उदय शंकर
विदेशी इतिहास की तुलना में अगर भारतीय मंदिर स्थापत्य को देखें तो एक अनोखी सी चीज़ आपको ना चाहते हुए भी नजर आ जायेगी | आप जिस भी प्रसिद्ध मंदिर का नाम लेंगे, पूरी संभावना है की उसका पुनःनिर्माण रानी अहिल्याबाई होल्कर ने करवाया होगा | दिल्ली के कालकाजी मंदिर से काशी के ज्ञानवापी तक कई इस्लामिक आक्रमणकारियों के तुड़वाए मंदिरों के जीर्णोद्धार का श्रेय उन्हें ही जाता है |
इसी क्रम को थोड़ा और आगे बढ़ा कर अगर ये ढूँढने निकलें की जीर्णोद्धार तो चलो रानी ने करवाया, बनवाया किसने था ? तो हुज़ूर आपको आसानी से राजवंश का नाम मिलेगा | थोड़ा और अड़ जायेंगे तो पता चलेगा कि ज्यादातर को बनवाया भी रानियों ने ही था | कईयों के शिलालेख बताते हैं कि किस रानी ने बनवाया | धूर्तता की अपनी परंपरा को कायम रखते हुए इतिहासकार का वेष धरे उपन्यासकार ये तथ्य छुपा ले जाते हैं |
काफी लम्बे समय तक भारत मे परिचय के लिए माँ का नाम ही इस्तेमाल होता रहा है | उत्तर भारत से ये पहले हटा, दक्षिण में अब भी कहीं कहीं दिखता है | पिता के नाम से परिचय देने की ये नयी परिपाटी शायद इस्लामिक हमलों के बाद शुरू हुई होगी | अक्सर बचपन में जो लोग “नंदन” पढ़ते रहे हैं उसका “नंदन” भी अर्थ के हिसाब से यही है | नामों मे “यशोदा नंदन”, “देवकीनंदन”, भारतीय संस्कृति मे कभी अजीब नहीं लगा | हाँ इसमें कुछ कपटी कॉमरेड आपत्ति जताएंगे कि ये तो पौराणिक नाम हैं, सामाजिक व्यवस्था से इनका कोई लेना देना नहीं |
ये भी छल का एक अच्छा तरीका है | ये आसान तरीका इस्तेमाल इसलिए हो पाता है क्योंकि भारत का इतिहास हजारों साल लम्बा है | दो सौ- चार सौ, या हज़ार साल वालों के लिए जहाँ हर राजा का नाम लेना, याद रखना आसान हो जाता है वहीँ भारत ज्यादा से ज्यादा एक राजवंश को याद रखता है, हर राजा का नाम याद रखना मुमकिन ही नहीं होता | भारत के आंध्र प्रदेश पर दो हज़ार साल पहले सातवाहन राजवंश का शासन था | इनके राजाओं के नामों मे ये परंपरा बड़ी आसानी से दिखती है |
सातवाहन राजवंश का नाम सुना हुआ होता है, और इसके राजा शतकर्णी का नाम भी यदा कदा सुनाई दे जाता है | कभी पता कीजिये शतकर्णी का पूरा नाम क्या था ? अब मालूम होगा कि शतकर्णी नामधारी एक से ज्यादा थे | अलग अलग के परिचय के लिए “कोचिपुत्र शतकर्णी”, “गौतमीपुत्र शतकर्णी” जैसे नाम सिक्कों पर मिलते हैं | एक “वाशिष्ठीपुत्र शतकर्णी” भी मिलते हैं | ये लोग लगभग पूरे महाराष्ट्र के इलाके पर राज करते थे जो कि व्यापारिक मार्ग था | इसलिए इन नामों से जारी उनके सिक्के भारी मात्रा मे मिलते हैं |
कण्व वंश के कमजोर पड़ने पर कभी सतवाहनों का उदय हुआ था | भरूच और सोपोर के रास्ते इनका रोमन साम्राज्य से व्यापारिक सम्बन्ध था | पहली शताब्दी के इनके सिक्के एक दुसरे कारण से भी महत्वपूर्ण होते हैं | शक्तिशाली हो रहे पहले शतकर्णी ने “महारथी” राजकुमारी नागनिका से विवाह किया था | नानेघाट पर एक गुफा के लेख मे इसपर लम्बी चर्चा है | महारथी नागनिका और शतकर्णी के करीब पूरे महाराष्ट्र पर शासन का जिक्र भी आता है |
दुनियां मे पहली रानी, जिनका अपना सिक्का चलता था वो यही महारथी नागनिका थीं | ईसा पूर्व से कभी पहली शताब्दी के बीच के उनके सिक्कों पर ब्राह्मी लिपि में, सिक्कों के बीचो बीच “नागनिका” लिखा हुआ होता है | उनके पति को विभिन्न शिलालेख “दक्षिण-प्रजापति” बताते हैं | चूँकि शिलालेख, गुफाओं के लेख कई हैं, इसलिए इस साक्ष्य को नकारना बिलकुल नामुमकिन भी हो जाता है | मर्दवादी सोच होने की वजह से शायद “महारथी” नागनिका का नाम लिखते तथाकथित इतिहासकारों को शर्म आई होगी |
बाकी अगर पूछने निकलें कि विश्व मे सबसे पहली सिक्कों पर नाम वाली रानी का नाम आपने किताबों मे क्यों नहीं डाला ? तो एक बार किराये की कलमों की जेब भी टटोल लीजियेगा, संभावना है कि “विक्टोरिया” के सिक्के निकाल आयें !
हाल में ही एक ज्योतिष-भविष्यवाणी वगैरह करने वाले बेजान दारूवाला की मृत्यु हुई तो अलग-अलग किस्म की कई बहसें भी नजर आयीं। हमें उनके साथ ही नारायणन की अंग्रेजी कहानी “एन एस्ट्रोलोजर डे” याद आई। उसका भविष्यवाणी करने वाला भी वैसे ही सुन्दर वाक्य गढ़ता था, जैसे बेजान दारूवाला। उसका एक प्रिय जुमला था “तुम्हें अपनी मेहनत का पूरा फल नहीं मिलता”! इस वाक्य से अधिकांश लोग सहमत होते, क्योंकि सबको लगता है कि वो जितनी मेहनत कर रहा है, उसका पूरा नतीजा, लाभ, उसे मिल नहीं रहा।
ये भी छल का एक अच्छा तरीका है। किसी और को आपके नुकसान का जिम्मेदार बताना, या किसी ऐसे पर दोष थोपना जो दोषारोपण पर जवाब ना दे, अक्सर इस्तेमाल होता है। मृत व्यक्ति जवाब नहीं देगा, तो उसे गलत बता सकते हैं। भारतीय इतिहास से लोग कहने नहीं आने वाले कि वो मर्दवादी थे या नारीवादी, इसलिए ये भी कर सकते हैं। जिसे तथाकथित वैज्ञानिक सोच कहा जाता है, उसमें शोध के बिना किसी बात को सही ही नहीं, गलत भी नहीं कहा जा सकता। बिलकुल वैसे ही जैसे निष्पक्ष जांच तो कभी भारतीय इतिहास या शिक्षण पद्दतियों की हुई नहीं तो उन्हें सही-गलत, मर्दवादी या नारीवादी नहीं कह सकते।
ये छल का आसान तरीका फिर भी इस्तेमाल इसलिए हो पाता है क्योंकि भारत का इतिहास हजारों साल लम्बा है। दो सौ- चार सौ, या हज़ार साल वालों के लिए जहाँ हर राजा का नाम लेना, याद रखना आसान हो जाता है वहीँ भारत ज्यादा से ज्यादा एक राजवंश को याद रखता है। हर राजा का नाम याद रखना मुमकिन ही नहीं होता। भारत के आंध्र प्रदेश पर दो हज़ार साल पहले सातवाहन राजवंश का शासन था। इनके राजाओं के नामों मे परंपरा बड़ी आसानी से दिखती है।
सातवाहन राजवंश के राजा शतकर्णी का नाम भी यदा कदा सुनाई दे जाता है। कभी पता कीजिये शतकर्णी का पूरा नाम क्या था ? अब मालूम होगा कि शतकर्णी नामधारी एक से ज्यादा थे। अलग अलग के परिचय के लिए “कोचिपुत्र शतकर्णी”, “गौतमीपुत्र शतकर्णी” जैसे नाम सिक्कों पर मिलते हैं। एक “वाशिष्ठीपुत्र शतकर्णी” भी मिलते हैं। ये लोग लगभग पूरे महाराष्ट्र के इलाके पर राज करते थे जो कि व्यापारिक मार्ग था। इसलिए इन नामों से जारी उनके सिक्के भारी मात्रा मे मिलते हैं।
कण्व वंश के कमजोर पड़ने पर कभी सतवाहनों का उदय हुआ था। भरूच और सोपोर के रास्ते इनका रोमन साम्राज्य से व्यापारिक सम्बन्ध था। पहली शताब्दी के इनके सिक्के एक दुसरे कारण से भी महत्वपूर्ण होते हैं। शक्तिशाली हो रहे पहले शतकर्णी ने “महारथी” राजकुमारी नागनिका से विवाह किया था। नानेघाट पर एक गुफा के लेख मे इसपर लम्बी चर्चा है। महारथी नागनिका और शतकर्णी के करीब पूरे महाराष्ट्र पर शासन का जिक्र भी आता है।
दुनियां मे पहली रानी, जिनका अपना सिक्का चलता था वो यही महारथी नागनिका थीं। ईसा पूर्व से कभी पहली शताब्दी के बीच के उनके सिक्कों पर ब्राह्मी लिपि में, सिक्कों के बीचो बीच “नागनिका” लिखा हुआ होता है। उनके पति को विभिन्न शिलालेख “दक्षिण-प्रजापति” बताते हैं। चूँकि शिलालेख, गुफाओं के लेख कई हैं, इसलिए इस साक्ष्य को नकारना बिलकुल नामुमकिन भी हो जाता है। मर्दवादी सोच होने की वजह से शायद “महारथी” नागनिका का नाम लिखते तथाकथित इतिहासकारों को शर्म आई होगी।
अगर पूछने निकलें कि विश्व मे सबसे पहली सिक्कों पर नाम वाली रानी का नाम आपने किताबों मे क्यों नहीं डाला ? तो एक बार किराये की कलमों की जेब भी टटोल लीजियेगा, संभावना है कि “विक्टोरिया” के सिक्के निकाल आयें ! हाल फ़िलहाल में अगर ऐसे नामों का सामने आना देखना हो तो कभी इंदौर के बारे में सोचिये। कभी एक बार हम लोग इंदौर में किसी सर्वेक्षण के सिलसिले में थे और इंदौर में एक आड़ा बाजार है। हम लोगों ने पूछा ये अजीब नाम क्यों ?
जिस स्थानीय व्यक्ति से पूछा था, उन्हें भी नहीं पता था। मगर उन्होंने पूछ-ताछ करके इस बारे में मालूम करने की बात कही और मामला आया-गया हो गया। मेरे दिमाग में सवाल अटका पड़ा रहा। बिहारी की हिन्दी के हिसाब से बाजार अगर टेढ़ा होता तो उसे आड़ा कहना समझ में आता। “टंग अड़ाना” जैसी कहावतों वाला रोकना या अड़ जाना भी मतलब हो सकता था। आखिर कैसे ये बाजार लोगों को रोक लेगा, या टेढ़ा है, क्यों आड़ा नाम होगा? इस सवाल का जवाब हमें कुछ साल बाद कहीं और मिला। किसी दौर में इंदौर होल्कर मराठा शासकों की राजधानी हुआ करता था और राजमाता अहिल्याबाई होल्कर वहीँ पास में रहती थीं।
उनके बनवाए मंदिर अब भी उस इलाके में हैं। इस्लामिक हमलों में भग्न, उत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक के करीब करीब सभी मंदिरों के जीर्णोद्धार का श्रेय राजमाता अहिल्याबाई को जाता है। कहते हैं एक रोज उनके पुत्र मालोजी राव का रथ इस रास्ते से निकल रहा था और हाल ही में जन्मा एक बछड़ा उनके रथ के आगे आ गया। रथ रुका नहीं और टक्कर से बछड़े की मृत्यु हो गई। गाय वहीँ मृत बछड़े के पास बैठी थी कि वहां से राजमाता अहिल्याबाई का रथ गुजरा। उन्होंने रथ रोककर पूछताछ की कि ये क्या हुआ है? पूरी बात मालूम करके वो दरबार में पहुंची और मालोजी राव की पत्नी मेनाबाई से पूछा कि माँ के सामने ही बेटे को मार देने वाले की क्या सजा होनी चाहिए?
मेनाबाई बोली, उसे तो प्राण दंड मिलना चाहिए। राजमाता अहिल्याबाई ने मालोजीराव के हाथ पैर बांधकर, जहाँ बछड़ा मरा था वहीँ डालने का आदेश दिया और कहा कि इसपर रथ चढ़ा दो! अब राजमाता ने बछड़े जैसा ही रथ की टक्कर से मारने का दंड तो दे दिया लेकिन कोई सारथी रथ चलाने को तैयार नहीं था। आख़िरकार राजमाता खुद ही रथ चलाने रथ में सवार हो गयी। राजमाता को रथ बढ़ाते ही रोकना पड़ गया, क्योंकि मालोजी को बचाने एक गाय बीच में आ गयी थी। राजमाता रथ बढ़ाती कि वही गाय फिर रथ के सामने आकर खड़ी हो जाती जिसका बछड़ा मलोजीराव के रथ से मारा गया था। बार-बार हटाये जाने पर भी गाय ने अड़कर मलोजीराव को बचा लिया।
अपना बछड़ा खोकर भी उसे मारने वाले की जान बचाने पर अड़ जाने वाली इस गाय की वजह से इंदौर के इस बाजार का नाम “आड़ा बाजार” है। भारत की रानियों/राजमाताओं के बारे में सोचते वक्त अलग तरीके से सोचने की जरुरत होती है। राजमाता अहिल्याबाई होल्कर के बारे में सोचने की जरूरत इसलिए भी है क्योंकि उत्तर भारत के जिस भी पुराने मंदिर को आप देखते हैं, लगभग हरेक उनका बनवाया हुआ है। दिल्ली का कालकाजी मंदिर जिसे औरंगजेब ने तुड़वाया था, वो हो या गया का विष्णुपद मंदिर, हरेक के जीर्णोद्धार में उनका योगदान रहा है।
राजमाता अहिल्याबाई होल्कर (31 मई 1725 – 13 अगस्त 1795) और उनके जैसी कई अन्य को तथाकथित इतिहासकारों ने जो स्थान नहीं दिया, वो कभी मंदिर जाते समय अपने बच्चों को आप खुद भी बता सकते हैं। बाकी जैसे अड़ा बाजार में गाय अड़ गयी थी, वैसे मंदिर जाने में शेखूलरिज्म जो बीच में अड़ता है, सो तो है ही!
✍🏻आनन्द कुमार
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