परछाईं की दौड़
दौड़ जारी है—अपने ही अक्स के साथ।
कभी आगे, कभी पीछे,
कदमों की परछाईं
हर मोड़ पर
एक नई शक्ल ले लेती है।
चलते हुए लगता है
कि जीवन की धूप में
साथ है कोई—
पर वह साथ
न नीयत का है,
न नियति का।
वह तो बस
भीतर की एक गूंज है
जो चुपचाप
हर निर्णय पर सवाल करती है।
कभी वह मुस्कराता है,
तो छाया लंबी हो जाती है।
कभी रुकता है—
तो पीछे खड़ी वही परछाईं
उसकी थकान को पहचान लेती है।
यह दौड़ किसी और से नहीं,
उस “मैं” से है
जो दिखता नहीं,
पर हर वक़्त
साथ चलता है।
कभी सोचता है—
क्या मैं भाग रहा हूँ?
या खुद को पा लेने की
बस एक कोशिश है ये?
अब उसने सीख लिया है
कि ठहरना भी ज़रूरी है
—कभी-कभी।
क्योंकि जो भागते हैं
हरदम,
वे परछाईं को पहचान नहीं पाते।
और जब उसने
स्वयं को देखा—
धूप में, अँधेरों में,
हर पड़ाव पर,
तो जाना—
यह दौड़
शांति तक पहुँचने का
एक रास्ता है।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
"कमल की कलम से"
(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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