Advertisment1

यह एक धर्मिक और राष्ट्रवादी पत्रिका है जो पाठको के आपसी सहयोग के द्वारा प्रकाशित किया जाता है अपना सहयोग हमारे इस खाते में जमा करने का कष्ट करें | आप का छोटा सहयोग भी हमारे लिए लाखों के बराबर होगा |

हरामखोरी का खिताब

हरामखोरी का खिताब

कमलेश पुण्यार्क "गुरूजी"
 
पुरानी बातों का आधार लेकर नयी बात की ओर बढ़ा जा सकता है। प्राकृतिक आपदाओं का आना-जाना पुरानी बात है। ये बात अलग है कि नये जमाने में शोर-शराबा अपेक्षाकृत अधिक होता है। इसके पीछे जमाने में उपलब्ध साधन और जमानेवालों का अ-धैर्य— दोनों कारण हैं। इन दोनों में किसकी मात्रा अधिक है—कहना जरा कठिन है।

एक समय में भारी अकाल पड़ा था। वो जमाना भेंड़तन्त्र वाला नहीं, राजतन्त्र वाला था। दीर्घकालिक अकाल से छोटे-बड़े सभी पीड़ित थे। राजा ने उनकी मदद के लिए राजकोष का मुंह खोल दिया । आज के ‘मनरेगा’ जैसी कई योजनायें बनाकर लोगों को रोजगार दिया जाने लगा। मजदूर तबके के लोग तो खुशी-खुशी आगे आ गए, किन्तु जमींदारी ठाटवालों को भूखे मर जाना उचित लगा, परन्तु अकर्मण्य रहकर, खैरात लेना धर्मविरुद्ध जान पड़ा । उनके विचारों का मान रखते हुए राजा ने घोषणा की कि दिन भर में जो तालाब खोदे जायें, उन्हें वे लोग रात में जाकर भर दिया करें। उनकी मान और जान दोनों की रक्षा हो जायेगी। राजा के इस मन्तव्य का सबने स्वागत किया।

सच कहें तो, प्राकृतिक आपदाऐं पहले जैसी अब आती ही नहीं हैं। जो आती भी हैं, उनका शत-प्रतिशत जिम्मेवार केवल प्रकृति नहीं, बल्कि इन्सान का भी बहुत बड़ा योगदान होता है। इन्सान में सबसे बड़ी कमी आ गयी है—धीरज और साहस की और इसके विपरीत लोभ, क्रोध, आलस्य का विकास हो गया है। कम काम, अधिक दाम की चाह हाबी है।

एक ओर हम ‘आत्मनिर्भर भारत’ का बिगुल बजा रहे हैं, दूसरी ओर हरामखोरी का खिताब बांटे जा रहे हैं। “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा ” और “अल्लाह ईश्वर तेरे नाम” इन दोनों के संयुक्त प्रयास का प्रतिफल है देश की आजादी । आजादी के साथ-साथ अभाव, अशिक्षा और दारिद्रता का अनचाहा उपहार भी मिला। ये उपहार इसलिए मिले, क्यों कि सोने की चिड़ियाँ हजारों-हजार वर्षों से नुचती चली आ रही थी। उसी चिड़ियाँ को अब नये अन्दाज़ में नोचने के नुस्ख़े इज़ाद हो रहे हैं।

पुरानी समस्याओं से निपटने के लिए भविष्यद्रष्टा तत्कालीन नेताओं ने कई उपाय सुझाये, जिनमें कुछ उपाय तो एक जिद्दी,कुटिल शीर्षस्थ नेता के भेंट चढ़ गए, उस नेता के जो लगभग सभी राष्ट्र-शुभेच्छुओं पर भारी पड़ता था। वैसे भी अधर्म बड़ा वजनी होता है। जिसके कारण धर्म को हमेशा परेशानी उठानी पड़ती है। उस गोमांस भक्षक ने सम्राट भरत के धर्मप्राण भारतवर्ष को भारतवर्ष न रहने देने का आजीवन अथक प्रयास किया और काफी हद तक सफल भी रहा । भारतमाता के दोनों हाथ काट कर अपनी कुर्सी का पाया बनवाया, जिसपर बैठकर आद-औलाद राजभोग सके। वर्ण-व्यवस्था तो युगों-युगों से थीं, किन्तु जातिप्रमाणपत्र निर्गत कर, जातियता का विषवृक्ष लगाया । राष्ट्र जाति और पार्टी में बंट कर रह गया । “टीक और टोपी” हमारी पहचान बन गयी। एक राष्ट्र में दो संविधान भी थोप दिए गए । धारा 370 का कोढ़ दे दिया गया, जिसे ठीक करने में सत्तर साल लग गए । वनवास से लौटे राम को ताले में बन्द कर दिया गया, जिसकी चाभी बनाने में वर्षोवरस लग गए। तात्कालिक सहयोग-विकास की अनिवार्यता के नाम पर “आरक्षण” की पुड़िया थमा दी गयी— स्वस्थ होने के लिए खाते रहो इसे दस वर्षो तक । किन्तु कुटिल शकुनि की काल-गणना में वो दस वर्ष आजतक पूरा नहीं हुआ । आसानी से पूरा होने की आशा भी व्यर्थ है।

दरअसल, खैरात लेने की आदत जो पड़ गयी है। हाथ पसारने की लत जो लगा दी गयी है—चंद वोटों के मोल पर। मुफ़्त में यदि सबकुछ मिल ही जाया करे, फिर कुछ करने की जरुरत ही क्या है ! खिचड़ी से खलीता तक यूँ ही मिल जाए, फिर कोई क्यों कुछ करना चाहे ! मेहनत करके पढ़ा जाता है आगे बढ़ने के लिए । योग्यता हासिल करने के लिए । अच्छी नौकरी पाने के लिए । और यदि अच्छी नौकरी सिर्फ पासमार्क्स पर ही मिल जाए, फिर ज्यादा अंक लाने की ज़हमत क्यों उठाया जाए !

हरामखोरी के खिताब के और भी कई नमूने हैं । साठ-सत्तर के दशक में एक योजना आयी थी—स्वतन्त्रता सेनानियों के लिए । बड़ी मज़ेदार योजना थी—माँ की सेवा यदि किए हों, तो इनाम ले जाइये...।

सोचने वाली बात है—माँ की सेवा का भी भला कहीं इनाम लिया जाता है ! और इससे भी उम्दा मज़ेदार बात ये है कि उन दिनों जेलरों की खूब चाँदी कटी। जेलअधिकारी मालामाल हो गए । अंग्रेजीराज के जेल रजिस्टर खंगालने की अच्छी खासी कीमत थी । बेचारे सच्चे सेनानी तो वहाँ भी पिछड़ गए, किन्तु लुच्चे-लफंगों की बाढ़ आगयी । अनगिनत जाली प्रमाणपत्र मुहैया कराये गए जेल अधीक्षकों द्वारा, जिनके बदौलत स्वतन्त्रता सेनानी का इनाम हासिल होना था।

हरामखोरी के खिताब वाली योजना भारत जैसे स्वर्णिम राष्ट्र में ही बन सकती है। क्योंकि—
हम उस गौरवशाली राष्ट्र के वासी हैं, जहाँ प्रधानमन्त्री के हत्यारे से हाथ मिलाकर, जाँच को रद्दी की टोकरी के हवाले कर देते हैं...जहाँ गौहत्या विरोधी धरणार्थियों पर लाठियाँ बरसायी जाती हैं। हम उस गौरवशाली राष्ट्र के वासी हैं, जो विश्व का सबसे बड़ा गोमांस निर्यातक है...जहाँ सेना के बलिदान पर संसद में बेहयाई पूर्वक प्रमाण मांगे जाते हैं...जहाँ संसदसत्र के दौरान पॉर्नवीडियो देखने की सुविधा है...जहाँ समलैंगिकता पर सुप्रीमकोर्ट मुहर लगाती है...आतंकवादियों की वरषी मनायी जाती है...उत्तराखण्ड की भीषण आपदा में लाशों का सौदा लाखों में होता है, चील-कौए और नेता एक साथ ज़श्न मनाते हैं। जहाँ सत्यनिष्ठ आर्टिकल राईटर को ढाईबजे रात में प्रेसविल्डिंग से नीचे फेंककर, आत्महत्या का केश बना दिया जाता है...जहाँ ग्राउण्डरिपोर्टरों पर FIR दर्ज़ होते हैं। हम उस गौरवशाली राष्ट्र के वासी हैं, जहाँ मनरेगा जैसी योजनाओं में भी डॉक्टर, ईन्जीनियर, एम.बी.ए., एम.सी.ए. भीड़ लगाये हुए हैं। हम उस गौरवशाली राष्ट्र के वासी हैं, जहाँ के अधिकांश नेता मद्रनरेश शल्य की भूमिका में दानवीर कर्ण के सारथी बने हैं। हम उस धर्मनिर्पेक्ष राष्ट्र के वासी हैं, जहाँ मन्दिरों की करोड़ों दान राशि से मस्जिद और चर्च बनाये जाते हैं। हम उस महान राष्ट्र के वासी हैं, जहाँ 95प्रतिशत वाले किरानी-चपरासी बनते हैं और 35प्रतिशत वाले कलक्टर की कुर्सी डटाते हैं । हम उस गौरवशाली राष्ट्र के वासी हैं, जहाँ चोर-लुटेरे, रेपिस्ट, मर्डरर, किडनैपर मन्त्री बन सकते हैं। जहाँ जानवरों का चारा और मॉल की मिट्टी भी बिना पाचक के ही पच जाता है...जहाँ गैर जाति से विवाह कर वर्णसंकर कौम पैदा करने पर सरकारी इनाम दिया जाता है...जहाँ महामारी को भी वियररचेक की तरह भुनाया जाता है। हम उस गौरवशाली राष्ट्र के वासी हैं, जहाँ सरकारें जाति प्रमाणपत्र निर्गत करती है, ताकि हरामखोरी वाली कतार में अधिक से अधिक वोटर बैठ सकें...।

कितनी गाऊँ गौरवगाथा !

संक्षेप में बस इतना ही समझ लें कि हम आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहे हैं।
इसे परमुखापेक्षी कहने की बेवकूफी न करें।
वन्देमातरम्।
दिव्य रश्मि केवल समाचार पोर्टल ही नहीं समाज का दर्पण है |www.divyarashmi.com

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ