जीवन-यात्रा
सागर-लहरों पर तिरते मोती दिखे ,
गहराइयों मेंअनूठे रतन ।
गिरि-शिखरों पर बूटियां दिखीं ,
पर मरु में शाद्वल हित किया जतन ।
मृगमरीचिकाएँ भी झलकीं
पर डिगा कभी ना मन ।
सपने भी बुने अथाह
मगर , कोई न हुआ हमदम ।
चलता ही चलता चला गया
चलते ही रहा हरदम ।
कुछ पाना है या कुछ खोना ,
बूझता रहा मेरा मन ।
साँसों का साथ मिला हर क्षण
रहे अजर , अमर तन-मन ।
सुरलहरी कोई दिव्य श्रवण
शाश्वत वाणी हुंकार --
रे मर्त्यपुत्र चलना है बस
कुछ यही यहाँ उपहार ।
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