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जीवन-यात्रा

जीवन-यात्रा

  राधमोहन मिश्र माधव
सागर-लहरों पर तिरते मोती दिखे , 
गहराइयों मेंअनूठे रतन ।
गिरि-शिखरों पर बूटियां दिखीं ,
पर मरु में शाद्वल हित किया जतन ।
मृगमरीचिकाएँ भी झलकीं
पर डिगा कभी ना मन ।
सपने भी बुने अथाह 
मगर , कोई न हुआ हमदम ।
चलता ही चलता चला गया 
चलते ही रहा हरदम ।
कुछ पाना है या कुछ खोना ,  
बूझता रहा मेरा मन ।
साँसों का साथ मिला हर क्षण
रहे अजर , अमर तन-मन ।
सुरलहरी कोई दिव्य श्रवण  
शाश्वत वाणी हुंकार --
रे मर्त्यपुत्र चलना है बस 
कुछ यही यहाँ उपहार । 
     
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