गुरुवार है
गुरुमहाराज जी की वंदना का दिन
पंडित श्रीकृष्ण दत्त शर्मा,
अवकाश प्राप्त अध्यापक
सी 5/10 यमुनाविहार दिल्ली
*श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य
दृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू।
बड़े भाग उर आवइ जासू॥
भावार्थ:-श्री गुरु महाराज
के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश
अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में
आ जाता है, उसके बड़े भाग्य हैं॥
राजा परीक्षित ने यहां
प्रश्न कर दिया- शुकदेवजी से पूछते हैं गुरुदेव! मेरी समझ में नहीं आया, सज्जनों! बहुत बहुत ध्यान से पढ़े, परीक्षित
कहते हैं- श्रीकृष्ण ने परायी स्त्रियों के साथ रास किया, परायी
स्त्रियों के गले में गलबहियाँ डालकर कृष्ण नाचे, ये कहां का
धर्म है? मेरी समझ में नहीं आया?
परीक्षित के समय में कलयुग
आ गया था, परीक्षित कहते हैं- कलयुग आगे आ रहा है,
शुकदेवजी बोले- अब तो घोर कलियुग आने वाला है और कलयुग के लोगों को
तो जरा सी बात चाहिये, फिर देखों, शास्त्रार्थ
पर उतर आते हैं- ऐसा क्यों लिखा? ऐसा क्यों किया? मनुस्मृति में लिखा है कि धर्म का तत्व गुफा में छुपा हुआ है, इसलिये बड़े जिस रास्ते से जायें, छोटों को उसी
रास्ते से जाना चाहिये।
ईश्वर अंश जीव अविनाशी।
चेतन अमल सहज सुखराशी।।
हम लोग ईश्वर के अंश हैं, जीव ईश्वर का दश है तो कलयुग के लोगों को लीक प्वाइंट मिल गया,
ऐसे ही जो ईश्वर कोटि के पुरूष होते हैं, यदि
धर्म के विपरीत भी वो कोई काम करे, उन्हें कोई दोष नहीं लगता,
क्योंकि वे ईश्वर है, कर्तु, अकर्तु अन्यथा "कर्तु समर्थ ईश्वरः" ईश्वर वो है जो नहीं करने
पर भी सब कुछ करे और करने के बाद भी कुछ नहीं करे।
नैतत् समाचरेज्जातु मनसापि
ह्रानीश्वरः।
विनश्यत्याचरन् मौढयाधथा
रूद्रोऽब्धिजं विषम्।।
दूसरी बात- तुमने कहां, जो ईश्वर ने किया वो हम करेंगे, मैं
इसका विरोध करता हूँ, शुकदेवजी कहते हैं- जो ईश्वर होता है
उनका अनुकरण हमें कभी नहीं करना चाहिये, तुम ये बताओ शंकरजी
कौन है? परीक्षित ने कहा शंकरजी ईश्वर है, तुम कहते हो- ईश्वर ने जो किया वो हम करेंगे तो समुद्र में से जितना जहर
निकला था, पूरे जहर को शंकरजी पी गये।
शंकरजी ईश्वर है इसलिये
दस-बीस हजार टन जहर पी गये, तुम उनके अंश हो तो तुम तौले-दो तौले ही
पीकर देखो, शिवजी ने विष पी लिया, उन्हें
बुखार भी नहीं आया और हम एक बूंद भी विषपान करेंगे तो डेढ़ मिनट में ही हमारा राम
नाम सत् हो जायेगा, जो कार्य ईश्वर ने किया वो हम कैसे कर
सकते हैं।
ईश्वराणां वचः सत्यं
तथैवाचरितं क्वचित्।
तेषां यत् स्ववचोयुक्तं
बुद्धिमांस्तत् समाचरेत्।।
ईश्वर के वचन को मानो, ईश्वर के वचन सत्य है, देखो सज्जनों!
रामजी और कृष्णजी के चरित्र में अन्तर क्या है? जो रामजी ने
किया है वो हम कर सकते हैं और कृष्णजी ने जो कहा वो हम कर सकते हैं, रामजी के किये हुए को करो और कृष्णजी के कहे हुए को करो।
कृष्णजी के किये हुए को हम
नहीं कर सकते, क्योंकि राम का जो चरित्र है वो विशुद्ध
मानव का चरित्र है और कृष्णजी का जो चरित्र है वो विशुद्ध ईश्वरी योगेश्वर का
चरित्र है, दोनों ही भगवान् हैं, लेकिन
रामजी के चरित्र में मानवता का प्रदर्शन ज्यादा है और कृष्णजी के चरित्र
योगेश्वरता का प्रदर्शन है।
प्रातः काल उठ के रघुनाथा।
मात-पिता गुरु नावहिं
माथा।।
रघुवर प्रातः उठकर
माता-पिता गुरुजनों को प्रणाम करते हैं, ये तो काम हम कर सकते हैं कि नहीं? हम भी कर सकते
हैं और सब को करना ही चाहिये, लेकिन सात दिन के कृष्ण ने
पूतना को मार दिया, ये तो हम नहीं कर सकते, छः महीना के कृष्ण ने शकटासुर मार दिया, ये तो हम
नहीं कर सकते, पूरे ब्रजमंडल में आग लग गयी और ब्रजवासीयों
के देखते-देखते कृष्ण ने उस दावाग्नि का पान कर लिया, ये हम
कर सकते हैं क्या?
कृष्ण ने लाखों गोपियों के
साथ रास किया, उसे हम नहीं कर सकते, शुकदेवजी कहते हैं- यह कोई स्त्री-पुरुष का मिलन नहीं था, जीव और ईश्वर का मिलन था, यह रासलीला छः महीनों तक
चली थी, क्या छः-छः महीनों तक ब्रज गोपियाँ अपने घर से बाहर
रह सकती थी, इसी बात से सिद्ध होता है कि यह तो जीव का प्रभु
से मिलन था।
हम कहते हैं कि हम ईश्वर
के अंश हैं, इस पर भी मैं यह कहना चाहता हूं, हम जानते हैं अंश का अर्थ होता है थोड़ा यानी छोटा जैसे हम लोग गंगाजी में
नहाते हैं, गंगा स्नान करते वक्त हमारे मुंह से निकलता है
हर-हर गंगे, हर-हर गंगे, यह जानते हुए
भी कि भारत के जितने भी महानगर है, उन ज्यादातर महानगरों की
सारी गंदगी गंगाजी में ही जाती है।
चाहे वो रूद्रप्रयाग हो या
उत्तरकाशी हो, हरिद्वार हो या देवप्रयाग, ऋषिकेश हो या प्रयाग, सारा गंदा पानी गंगाजी में
जाता है फिर भी हम गंगा स्नान करते हैं और बोलते हैं हर-हर गंगे•• क्यों? क्योंकि हम जानते हैं, इन
सारे नगरों की गंदगी मिलकर भी गंगा को गंदा नहीं कर सकती, गंगा
विशाल है, गंगा महान् है।
लेकिन आपने कहा- मोतीभाई
गंगा स्नान करने चलिये, हमने गंगा स्नान करते-करते सोचा कि
शालिग्रामजी की सेवा के लिए गंगाजल ले चलूं, सो मैंने एक
चांदी की कटोरी में अढ़ाई सौ ग्राम गंगाजल भी लिया, स्नान
करके लौटे तो धर्मशाला के कमरे का ताला खोलने के लिये मैंने गंगाजल की कटोरी नीचे
रख दी, पीछे से गंदे मुँह वाला सूअर उस गंगाजल की कटोरी में
मुंह लगाकर आधा गंगाजल तो पी गया।
मैंने देखा तो मन खिन्न हो
गया, तो सज्जनों! अब बताओ कि क्या उस बचे हुए
गंगाजल से मैं अपने शालिग्रामजी भगवान् को स्नान कराऊँ या नहीं? नहीं कराऊँगा, क्योंकि सूअर का मुंह लग जाने से वो
गंगाजल गंदा हो गया, और बहती हुई गंगा में तो पूरा सूअर ही
डूब जाये तो कोई असर नहीं होता, इसी कटोरी से मुंह लगाया तो
असर क्यों हुआ? क्योंकि बहती हुई गंगा विशाल है और कटोरी का
गंगाजल अंश है, तो जो ताकत उस विशाल गंगा में है वो अंश में
नहीं रही।
इसलिये ईश्वर जो विशाल है
और हम ईश्वर के अंश हैं, अंश होने के नाते जो कार्य ईश्वर करता है
वो हम कैसे कर सकते हैं? इसलिये ईश्वर के चरित्र को प्रणाम
करो, ईश्वर के चरित्र का वंदन करो, दूसरी
बात- कुछ नास्तिक लोगों को ये कामी पुरुष की सी लीला लगती है, नहीं-नहीं कृष्ण ने जो गोपियों के साथ जो रास किया ये काम लीला नहीं-
"का विजय प्रख्यापनार्थ सेयं रासलीला" काम को जीतने के लिये प्रभु ने
रासलीला की।
कोई कहता है हम हलवा नहीं
खाते, अरे, खाओगे कहाँ से
तुम्हें मिलता ही नहीं है, नहीं खाना तो वो है जो मिलने पर
भी इच्छा नहीं रहे, कहते हो कि हम तो ब्रह्मचारी है, जब शादी किसी ने करवाई नहीं, अपनी बेटी किसी ने दी
ही नहीं, सगाई वाला कोई आया ही नहीं तो ब्रह्मचारी तो अपने
आप हो गये।
नैष्ठिक ब्रह्मचारी सिवाय
कृष्ण के किसी और के चरित्र में नहीं है, कृष्ण ने कामदेव से कहा- कोपीन पहन कर जंगल में समाधि लगाकर तो काम को सभी
जीतते है, लेकिन असंख्य सुंदरी नारियों के गले में हाथ डालकर
रासविहार करके भी मैं तुम पर विजय प्राप्त करूँगा, ये तो काम
को जीतने की है रासलीला, इसलिये तो प्रभु ने काम को उल्टा
लटका दिया आकाश में।
गोपियाँ कृष्ण के संग रास
कर रही थी, वे तो वेद के मंत्र थे साक्षात्, जीव है गोपी और ईश्वर है स्वयं श्रीकृष्ण, तो जीव और
ईश्वर का जो विशुद्ध मिलन है उसी को हम रास कहते हैं, ये काम
लीला नहीं, काम को जीतने वाली लीला है, काम के मन में अभिमान था कि मैंने सबको जीत लिया, ब्रह्मा
को जीत लिया, वरूण को जीत लिया, कुबेर
को जीत लिया, यम को जीत लिया, वो
योगेश्वर कृष्ण को जीतना चाहता था।
प्रभु ने असंख्य सुंदरी
गोपियों के बीच रहकर भी काम को जीता, मन और इन्द्रियों पर जिसका नियंत्रण है उसे कोई विचलित नहीं कर सकता,
इस रास लीला के प्रसंग को सुनने का मतलब क्या है? रास के मंगलमय् प्रसंग को जो व्यक्ति सुनते है, पढ़ते
है और पढ़कर और चिन्तन के द्वारा इस काम विजय को जीवन में उतारने का प्रयास करते
हैं उन व्यक्तियों के ह्रदय में भक्ति प्रगट हो जाती है, और
अंत में गोविन्द के चरणों में प्रीति हो जाती है, और ह्रदय
का सबसे बड़ा रोग जो काम है वो काम हमेशा के लिये निकल जाता है।
बताओं, जिस
रासलीला को सुनने से या पढ़ने से मन का काम निकल जाये, वो
स्वयं कामलीला कैसे हो सकती है? परीक्षित के मन का संदेह दूर
हो गया, गोविन्द ब्रजवासीयों के वश में है, इनका प्रेम इतना अगाध सागर है कि ब्रजवासीयों के प्रेम के सागर में
ब्रह्मा भी गोता लगाये तो थाह नहीं पा सकते, विधाता में
सामर्थ्य नहीं है थाह पाने की, एक अलौकिक बात- यहाॅ गोविन्द
से मिलना भी है, गोविन्द से मिलन की आकांक्षा भी है तो
गोविन्द के प्रति आशीर्वाद का भाव भी है।
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