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आहुति विमर्श


आहुति विमर्श

लेखक पंडित कमलेश पुण्यार्क ‘गुरूजी’

सप्तशती पाठान्त होमःविशेष विचार

किसी भी अनुष्ठान की समाप्ति होमकार्य से होती है। इस सम्बन्ध में कई बातों का ध्यान रखना आवश्यक है । सर्वप्रथम इस बात का निर्णय होना चाहिए कि होमकार्य हेतु कुण्ड-निर्माण करे अथवा स्थण्डिल (वेदिका) । नित्य अथवा सामान्य पूजन क्रम में तो सुविधानुसार किसी पात्र में धूप जला कर घी से कुछ आहुतियाँ डाल देते हैं, किन्तु अनुष्ठान विशेष हेतु कुण्ड वा स्थण्डिल निर्माण अत्यावश्यक है। कुण्डसिद्धि ग्रन्थों में कुण्ड के अनेक प्रकार कहे गए हैंचौकोर, चन्द्राकार, वृत्ताकार, योन्याकार, त्रिभुजाकार, षट्कोणाकार, सप्तकोणाकार इत्यादि ।
इनमें सर्वाधिक सरल होता है चतुरस्रकुण्ड । चतुरस्रकुण्ड दो प्रकार का होता है - मेखला रहित और मेखला सहित । नियम है कि अधिक आहुतियाँ देनी हों तो मेखलारहित तथा कम आहुतियाँ देनी हों तो मेखलासहित कुण्ड-निर्माण करना चाहिए।
स्कन्दपुराण में कहा गया हैन्यूनसंख्योदिते कुण्डेऽधिको होमो विधीयते।न न्यूनसंख्यो होमश्चाऽधिककुण्डे कदाचन ।।
1.    मेखलारहित कुण्ड एक घनहाथ(लंबा,चौड़ा,गहरा)होना चाहिए, उसके ऊपर नौ अंगुल ऊँची मेखला बनती है।
2.    मेखलासहित कुण्ड की लम्बाई और चौड़ाई तो एक-एक हाथ ही होती है,पर गहराई पन्द्रह अंगुल होना चाहिए, जिसके ऊपर नौ अंगुल की मेखला होती है। इसका क्षेत्रफल एक घनहस्त के करीब होता है। समुचित दिक्साधन करके द्वादशास्र एक हस्त परिमित कुण्ड बनाकर उसके ऊपरी भाग पर एक-एक अंगुल चारो ओर छोड़कर नौ अंगुल ऊंची, चार अंगुल चौड़ी पहली मेखला, उसके बाहर (पहली मेखला से संलग्न) पांच अंगुल ऊँची और तीन अंगुल चौड़ी दूसरी मेखला, उसके बाहर दो अंगुल ऊँची, दो ही अंगुल चौड़ी तीसरी मेखला बनानी चाहिए। इस सम्बन्ध शास्त्र वचन इस प्रकार हैः-
द्विरंगुलोच्छ्रितो वप्रः प्रथमः समुदाहृतः । त्र्यंगुलोच्छ्रायसंयुक्तं वप्रद्वयमथोपरि ।। द्वयंगुलंस्तत्र विस्तारः सर्वेषां कथितो बुधैः ।। (मत्स्यपुराण ९३/९६)
यावान् कुण्डस्य विस्तारः खननं तावदीरितम् । खाताद् बाह्येऽङ्गुलः कुण्डः सर्वकुण्डेष्वयं विधिः ।।
तथा च शारदातिलके
व्यासात्खातः करः प्रोक्तो भिन्नं तिथ्यङ्गुलेन तु । कुण्डात्परं मेखला स्यादुन्नता सा नवाङ्गुलैः ।।
प्रधानमेखलोत्सेधमुक्तमत्र नवाङ्गुलम् । तद्वाह्यमेखलोत्सेधं पञ्चाङ्गुलमितिस्फुटम् ।।
तद्वाह्यमेखलोत्सेधमङ्गुलद्वितयं क्रमात् । चतुस्त्रिद्वयङ्गुलव्यासो मेखलात्रितयस्य तु ।।
मेखला के बाद अब योनि की चर्चा करते हैं -१२ अंगुल ऊँची, १२ अंगुल लम्बी और ८ अंगुल चौड़ी पीपल के पत्ते सदृश कुण्ड के पश्चिम भाग में योनि बनानी चाहिए, जो एक अंगुल कुण्ड में प्रविष्ट हो। कुण्ड के बीच में तीन अंगुल ऊँची, चार अंगुल चौड़ी, चार अंगुल लम्बी नाभि भी बनानी चाहिए। यथा-
दीर्घा सूर्याङ्गुला योनिस्त्र्यंशो ना विस्तरणे तु । एकाङ्गुलोच्छ्रिता सा तु प्रविष्टाभ्यन्तरे तथा ।।
कुम्भद्वयार्थसंयुक्ता अश्वत्थदलवन्मता । अङ्गुलष्ठमेखलायुक्ता मध्ये त्वाज्याधृतिक्षमा ।। (त्रैलोक्यसार)
इस प्रकार योनि और नाभि से युक्त तीन मेखला वाला कुण्ड श्रेष्ठ माना गया हैयोनिनाभिसमायुक्तं कुण्डं श्रेष्ठं त्रिमेखलम् ।
इसी प्रसंग में पुनः कहते हैं- कि स्त्री यजमान हो तो योनिकुण्ड ही बनावे। साथ ही इस बात का भी ध्यान रखे कि योनिकुण्ड में योनि और पद्मकुण्ड में नाभि नहीं बनावे -योनिकुण्डे तथा योनिं पद्मे नाभिं च वर्जयेत् ।।
महान विद्वान कमलाकर भट्टजी ने सिद्धान्ततत्वविवेक में योनिकुण्ड की निर्माण विधि को स्पष्ट किया है
फलात् खखाष्टवेदाघ्नात् त्र्यादिखाद्रिहृतात्पदम् । बाहुरश्वत्थपत्राभे योनिकुण्डे प्रजायते ।।
समत्रिभुजवत् तस्माद् व्यासोऽप्यत्राद्यहस्तके । कुण्डे भुजो भवेद् व्यासोऽअंगुलाद्यो गणितेन वै ।।
समत्रिभुजवत्पूर्वे कृत्वा तुल्यं त्रिबाहुकम् । योनिकुण्डे ततो बाहुत्रयमध्यातद् भुजाद् बहिः ।।
मण्लार्धत्रयं लेख्यं बाह्वर्धभ्रमणादिह । एकार्धवृत्तमध्याच्च पार्श्वयोस्तद्भुजाग्रगे ।।
काये रेखे च तत्सक्ते चापे त्यक्त्वाऽवशेषकम् । योनिकुण्डं भवेदाद्यमश्वत्थदलयोनिभम् ।।
योनिकुण्ड में भुज=√(योनिकुण्ड का क्षेत्रफल×४८००)/( ७०७३) = √(५७६×४८००)/( ७०७३) = २७६४८०० / ७०७३ = ३९०।५४ (स्वल्पान्तर से अंगुलात्मक लब्धि)
ज्ञातव्य है कि एक हाथ के कुण्ड का अंगुलात्मक क्षेत्रफल २४×२४=५७६ होता है। इसे ही उक्त सूत्र में सुलझाया गया है। इसी को भुज मानकर समत्रिकोण त्रिभुज बनाकर, भुजार्ध को केन्द्र मानकर तीनों अर्धवृत्त निर्माण करके,ऊपर के चापार्ध बिन्दु त्रिकोण के कोणपर्यन्त रेखा को जोड़कर शेष चापार्ध को हटा देने से पीपल के पत्ते सदृश योनिकुण्ड बन जाता है। शेष क्रिया चतुर्भुजवत् ही रहती है। न्यून आहुति हो तो १×१ हाथ की सामान्य वेदिका(स्थण्डिल) ही बनावें, इसमें भी तीन मेखलायें अवश्य हों। इसमें योनि नहीं बनानी चाहिए। यथास्थण्डिले मेखला कार्या कुण्डोक्ता स्थण्डलाकृतिः ।
योनिस्तत्र न कर्तव्या कुण्डवत् तन्त्रवेदिभिः ।।
निर्माण सम्बन्धी अन्यान्य नियम भी हैं । कई बारीकियाँ भी हैं। नियमोलंघन का भयंकर दुष्परिणाम भी है। इनका आकार आहुति की मात्रा पर भी निर्भर है। नियमों के विशेष बन्धन से मुक्ति और दुष्परिणामों से बचने हेतु विद्वानों ने यहाँ तक कह दिया है किकुण्डेतु बहवो दोषाः स्थण्डिले बहवो गुणाः । तस्मात्कुण्डं परित्यज्य स्थण्डिले हवनं चरेत् ।। तथाच मानहीने महाव्याधिरधिके शत्रुवर्द्धनम् । अनेक दोषदं कुण्डमत्र न्यूनाधिकं यदि । तस्मात्सम्यक् पीरक्ष्यैव कर्त्तव्यं शुभनिच्छता ।। कुण्डनिर्माण में बहुत प्रकार के दोष हैं एवं वेदी निर्माण में अनेक गुण । अतः वेदी पर ही होम करना प्रशस्त है। नाप (लम्बाई, चौड़ाई, गहराई, योनि, यूप,पीठादि) में कमी होने से व्याधि की आशंका रहती है एवं अधिक होने पर शत्रुओं की वृद्धि होती है। किंचित आचार्यों के मत से अधिक होने पर आचार्य एवं यजमान व्याधिग्रस्त होता है तथा कम होने पर धन-पशु आदि की हानि होती है। टेढ़ा-मेढ़ा होने पर विविध संताप झेलना पड़ता है। छिन्न मेखला से मरण एवं मेखलाहीन होने पर द्रव्यनाश होता है। योनि में त्रुटि हो तो स्त्रीनाश एवं कंठ में त्रुटि हो तो पुत्रशोक झेलना पड़े। माप में किंचित त्रुटि होने पर भ्रातृद्रोह, विशेष त्रुटि होने पर मृत्यु भी हो सकती है। अतः कल्याण की आकांक्षा वाले को माप की न्यूनाधिकता का सम्यक् ज्ञान रखना अति आवश्यक है एवं कुण्ड निर्माण कार्य अति सावधानी पूर्वक करना चाहिए ।
आजकल लोहे के बने-बनाये कुण्ड बाजार में आसानी से उपलब्ध हैं, जिसे लोग धड़ल्ले से प्रयोग भी कर रहे हैं। देखा-देखी और बाजारीकरण के दौड़ में अज्ञानता और मूर्खता का जीता-जागता उदाहरण है ये । मजे की बात ये है कि किसी विद्वान ने इस पर अंगुली उठाना या दिशा निर्देश देना भी आवश्यक नहीं समझा ।
जिस-तिस माप का बना हुआ लौहकुण्ड पदार्थ, परिमाण और परिणाम तीनों दृष्टि से विचारणीय है। डामरतन्त्र में कहा गया हैसुवर्णे कार्यसिद्धिः स्याद्रौप्ये वश्यंजगद्भवेत् । ताम्रंतयोरभावेऽपि कांस्ये विद्वेषणं भवेत् । मारणं लौहपात्रेस्यादुच्चाट्टो मृण्मये तथा । अतः लौहकुण्ड का सर्वदा परित्याग करना चाहिए। सबसे आसान है तांबे या पीतल की थाली में मिट्टी या बालू बिछाकर संक्षिप्त होमकार्य सम्पन्न करले । ...
विशेष होम हेतु आवश्यकतानुसार अठारह, सताइस, छत्तीश वा चौआलिस अँगुल परिमाण की समतल वा त्रिपायदानीया वेदी का निर्माण करे । समतल वेदी पर चावल चूर्ण (चौरेठा) से क्रमशः तीन घेरा बनावे । अथवा तीन तल वाली होने पर क्रमशः उत्तरोत्तर छोटा होते जाए४४ > ३६ > २७ । ऊपरी समतल को तीन घेरे में आवृत करते हुए, मध्य में रोली से अधःत्रिकोण बनाये और उसके मध्य में अग्निबीज रँ लिखे । वेदी के दाहिने भाग में दक्षिण और अग्निकोण के मध्य में अष्टदल वा स्वस्तिक चिह्न पर ब्रह्मकलश(२५६मुट्ठी चावल से भरा हुआ कलश) स्थापित करे। ध्याव्य है कि इस कलश पर पूर्णपात्र स्वरुप ढक्कन का प्रयोग न करे, प्रत्युत मूल सहित कुशा में गांठबाध कर ऊपर खोंस दे । वेदी से बायीं ओर क्रमशः प्रोक्षणी-प्रणीता हेतु मिट्टी की दो प्यालियाँ कुश के टुकड़े पर रखे एवं उनमें जल भर कर कुश के टुकड़े से ढक दे ।
—1.तरल पदार्थ घृतादि की आहुति स्रुवा से तथा ठोस पदार्थों की आहुति बिना स्रुवा के प्रदान करे। यथाद्रवद्रव्यं स्रुवेणैव पाणिना कठिनं हविः। स्रुवहोमे सदा त्याज्यः प्रोक्षणीपात्र मध्यतः।। 2.आहुति की मात्रा न बिलकुल कम हो और न बहुत अधिक तर्जनी, कनिष्ठा को हटाकर, यानी मध्यमा, अनामिका और अंगुष्ठ के सहारे जितनी मात्रा उठायी जा सके - यही उचित मात्रा है एवं आहुति प्रदान करने की विहित मुद्रा भी । मुद्रा के सम्बन्ध में शास्त्र निर्देश है- होमे मुद्राः स्मृतास्तिस्रो मृगी हंसी च सूकरी । मुद्रां बिना कृतो होमः सर्वो भवति निष्फलः।। शान्तिके तु मृगी ज्ञेया हंसी पौष्टिक कर्मणि। सूकरी त्वभिचारेषु कार्या मन्त्रविदुत्तमैः ।। सूकरी करसंकोची हंसी मुक्तकनिष्ठिका । कनिष्ठा तर्जनी युक्ता मृगीमुद्रा प्रकीर्तिता ।। 3. आचार्य मन्त्रोच्चारण करें, यजमान आहुति डाले, साथ ही स्वयं भी स्वाहा बोलते रहे। आहुति के प्रत्येक खंड के पश्चात् वेदी परप्रज्वलित अग्नि से बाहर, कलछी से थोड़ा जल गिरा दिया करे ।
श्रीदुर्गासप्तशती पाठ के पश्चात् होम-विधान का सामान्य नियम है कि नवार्णमन्त्र से यथेष्ट आहुतियाँ प्रदान की जाएँ । ये आहुतियाँ सिर्फ घी से भी दी जा सकती हैं । घृत को मोक्षदायक कहा गया है।
आहुति देने हेतु शाकल्य-निर्माण की कई विधियाँ निर्दिष्ट है
1.     तिलार्द्धंतन्डुला प्रोक्ता तण्डुलार्द्धं यवास्तथा । तण्डुलैस्त्रिगुणं चाज्यं यथेष्ठं शर्करामता ।। तिलाधिक्ये भवेल्लक्ष्मी यवाधिक्ये दरिद्रता । घृताधिक्ये भवेन्मुक्ति सर्वसिद्धिस्तुशर्करा ।।
2.     यवस्यभागाश्चत्वारो तदर्द्धं तण्डुलं स्मृतम्। तदर्द्धं च तिलंज्ञेयं शर्कराचतदर्द्धिका । होमद्रव्यमितिख्यातं घृतंशर्करया समम् ।। किस होमद्रव्य का क्या परिणाम है, इस सम्बन्ध में एक और श्लोक मिलता हैआयुःक्षयंयवाधिक्यं यवसाम्यंधनक्षयः । सर्वकामसमृद्ध्यर्थं तिलाधिक्यं सदैवहि । इसका विचार करते हुए होमद्रव्यों की मात्रा इस प्रकार निश्चित करने का निर्देश भी मिलता है
3.     तिल, चावल , जौ, गुड़ और घी का मिश्रण क्रमशः आधा-आधा, यानी तिल का आधा चावल, चावल का आधा जौ, जौ का आधा गुड़ और गुड़ का आधा घी ।विशेष नियम के अन्तर्गत सप्तशती के विविध मन्त्रों से भी आहुति देने का विधान है। किन्तु सप्तशती-मन्त्रों से होम करने में कुछ विशेष सावधानी भी रखनी होती है। कुछ मन्त्र ऐसे हैं, जिनके उच्चारण पूर्वक आहुति प्रदान करना निषिद्ध है। उनके स्थान पर सीधे नवार्ण मन्त्र से ही आहुति देनी चाहिए। दूसरी बात जानने योग्य ये है कि कुछ विशेष मन्त्रों के साथ आहुति-सामग्री भी भिन्न है, यानी सामान्य शाकल्य से अथवा घी से आहुति न देकर वस्तु विशेष का प्रयोग करना है। प्रत्येक अध्याय के अन्त में विशेष मन्त्र से विशेष सामग्री से आहुति देने का भी विधान है। ध्यातव्य है कि जहाँ वस्तु निर्दिष्ट न हो वहाँ घृत वा सामान्य शाकल्य से ही आहुति देनी चाहिए।
अस्तु।

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