केदारनाथ ज्योर्तिलिंग की कथा ।
पंडित
श्रीकृष्ण दत्त शर्मा, अवकाश प्राप्त अध्यापक
सी 5/10 यमुनाविहार दिल्ली
मोबाइल न0 8130859839
स्कन्द पुराण में लिखा है कि एक बार केदार क्षेत्र के विषय में जब पार्वती जी
ने शिव से पूछा तब भगवान शिव ने उन्हें बताया कि केदार क्षेत्र उन्हें अत्यंत प्रिय
है. वे यहां सदा अपने गणों के साथ निवास करते हैं. इस क्षेत्र में वे तब से रहते
हैं जब उन्होंने सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा का रूप धारण किया था।
स्कन्द पुराण में इस स्थान की महिमा का एक वर्णन यह भी मिलता है कि एक बहेलिया
था जिस हिरण का मांस खाना अत्यंत प्रिय था. एक बार यह शिकार की तलाश में केदार
क्षेत्र में आया. पूरे दिन भटकने के बाद भी उसे शिकार नहीं मिला. संध्या के समय
नारद मुनि इस क्षेत्र में आये तो दूर से बहेलिया उन्हें हिरण समझकर उन पर वाण
चलाने के लिए तैयार हुआ।
जब तक वह वाण चलाता सूर्य पूरी तरह डूब गया. अंधेरा होने पर उसने देखा कि एक
सर्प मेंढ़क का निगल रहा है. मृत होने के बाद मेढ़क शिव रूप में परिवर्तित हो गया.
इसी प्रकार बहेलिया ने देखा कि एक हिरण को सिंह मार रहा है. मृत हिरण शिव गणों के
साथ शिवलोक जा रहा है. इस अद्भुत दृश्य को देखकर बहेलिया हैरान था. इसी समय नारद
मुनि ब्राह्मण वेष में बहेलिया के समक्ष उपस्थित हुए।
बहेलिया ने नारद मुनि से इन अद्भुत दृश्यों के विषय में पूछा. नारद मुनि ने
उसे समझाया कि यह अत्यंत पवित्र क्षेत्र है. इस स्थान पर मृत होने पर पशु-पक्षियों
को भी मुक्ति मिल जाती है।
इसके बाद बहेलिया को अपने पाप कर्मों का स्मरण हो आया कि किस प्रकार उसने
पशु-पक्षियों की हत्या की है. बहेलिया ने नारद मुनि से अपनी मुक्ति का उपाय पूछा.
नारद मुनि से शिव का ज्ञान प्राप्त करके बहेलिया केदार क्षेत्र में रहकर शिव
उपासना में लीन हो गया. मृत्यु पश्चात उसे शिव लोक में स्थान प्राप्त हुआ।
केदारनाथ ज्योर्तिलिंग की कथा के विषय में शिव पुराण में वर्णित है कि नर और
नारयण नाम के दो भाईयों ने भगवान शिव की पार्थिव मूर्ति बनाकर उनकी पूजा एवं ध्यान
में लगे रहते. इन दोनों भाईयों की भक्तिपूर्ण तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव
इनके समक्ष प्रकट हुए. भगवान शिव ने इनसे वरदान मांगने के लिए कहा तो जन कल्याण कि
भावना से इन्होंने शिव से वरदान मांगा कि वह इस क्षेत्र में जनकल्याण हेतु सदा
वर्तमान रहें. इनकी प्रार्थना पर भगवान शंकर ज्योर्तिलिंग के रूप में केदार
क्षेत्र में प्रकट हुए।
केदारनाथ से जुड़ी पाण्डवों की कथा
शिव पुराण में लिखा है कि महाभारत के युद्ध के पश्चात पाण्डवों को इस बात का
प्रायश्चित हो रहा था कि उनके हाथों उनके अपने भाई-बंधुओं की हत्या हुई है. वे इस
पाप से मुक्ति पाना चाहते थे. इसका समाधान जब इन्होंने वेद व्यास जी से पूछा तो
उन्होंने कहा कि बंधुओं की हत्या का पाप तभी मिट सकता है जब शिव इस पाप से मुक्ति
प्रदान करेंगे. शिव पाण्डवों से अप्रसन्न थे अत: पाण्डव जब विश्वानाथ के दर्शन के
लिए काशी पहुंचे तब वे वहां शंकर प्रत्यक्ष प्रकट नहीं हुए. शिव को ढ़ूढते हुए तब
पांचों पाण्डव केदारनाथ पहुंच गये।
पाण्डवों को आया देखकर शिव ने भैंस का रूप धारण कर लिया और भैस के झुण्ड में
शामिल हो गये . शिव की पहचान करने के लिए भीम एक गुफा के मुख के पास पैर फैलाकर
खड़ा हो गया. सभी भैस उनके पैर के बीच से होकर निकलने लगे लेकिन भैस बने शिव ने पैर
के बीच से जाना स्वीकार नहीं किया इससे पाण्डवों ने शिव को पहचान लिया।
इसके बाद शिव वहां भूमि में विलीन होने लगे तब भैंस बने भगवान शंकर को भीम ने
पीठ की तरह से पकड़ लिया. भगवान शंकर पाण्डवों की भक्ति एवं दृढ़ निश्चय को देखकर
प्रकट हुए तथा उन्हें पापों से मुक्त कर दिया. इस स्थान पर आज भी द्रौपदी के साथ
पांचों पाण्डवों की पूजा होती है. यहां शिव की पूजा भैस के पृष्ठ भाग के रूप में
तभी से चली आ रही है।
बहुत ही मजबूत है केदारनाथ का मंदिर 400 साल तक बर्फ में दबा रहा केदारनाथ का मंदिर
अगर वैज्ञानिकों की मानें तो केदारनाथ का मंदिर 400 साल तक बर्फ में दबा रहा था, लेकिन
फिर भी वह सुरक्षित बचा रहा। 13वीं से 17वीं शताब्दी तक यानी 400 साल तक एक छोटा हिमयुग (Little
Ice Age) आया था जिसमें हिमालय का एक बड़ा क्षेत्र बर्फ के अंदर दब
गया था।
वैज्ञानिकों के मुताबिक केदारनाथ मंदिर 400 साल तक बर्फ में दबा रहा फिर भी इस मंदिर को कुछ नहीं हुआ, इसलिए वैज्ञानिक इस बात से हैरान नहीं है कि ताजा जल प्रलय में यह मंदिर
बच गया।
देहरादून के वाडिया इंस्टीट्यूट के हिमालयन जियोलॉजिकल वैज्ञानिक विजय जोशी ने
कहा कि 400 साल तक केदारनाथ के मंदिर के बर्फ के
अंदर दबे रहने के बावजूद यह मंदिर सुरक्षित रहा, लेकिन वह
बर्फ जब पीछे हटी तो उसके हटने के निशान मंदिर में मौजूद हैं जिसकी वैज्ञानिकों ने
स्टडी की है उसके आधार पर ही यह निष्कर्ष निकाला गया है।
जोशी कहते हैं कि 13वीं से 17वीं शताब्दी
तक यानी 400 साल तक एक छोटा हिमयुग आया था जिसमें हिमालय का
एक बड़ा क्षेत्र बर्फ के अंदर दब गया था। मंदिर ग्लैशियर के अंदर नहीं था बल्कि
बर्फ में ही दबा था।
वैज्ञानिकों के अनुसार मंदिर की दीवार और पत्थरों पर आज भी इसके निशान हैं। ये
निशान ग्लैशियर की रगड़ से बने हैं। ग्लैशियर हर वक्त खिसकते रहते हैं। वे न सिर्फ
खिसकते हैं बल्कि उनके साथ उनका वजन भी होता है और उनके साथ कई चट्टानें भी, जिसके कारण उनके मार्ग में आई हर वस्तुएं रगड़ खाती हुई चलती
हैं। जब 400 साल तक मंदिर बर्फ में दबा रहा होगा तो सोचिए
मंदिर ने इन ग्लैशियर के बर्फ और पत्थरों की रगड़ कितनी झेली होगी।
वैज्ञानिकों के मुताबिक मंदिर के अंदर भी इसके निशान दिखाई देते हैं। बाहर की
ओर दीवारों के पत्थरों की रगड़ दिखती है तो अंदर की ओर पत्थर समतल हैं, जैसे उनकी पॉलिश की गई हो।
मंदिर का निर्माण : विक्रम संवत् 1076 से 1099 तक राज करने वाले मालवा के राजा भोज ने इस
मंदिर को बनवाया था, लेकिन कुछ लोगों के अनुसार यह मंदिर 8वीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य ने बनवाया था। बताया जाता है कि मौजूदा
केदारनाथ मंदिर के ठीक पीछे पांडवों ने एक मंदिर बनवाया था, लेकिन
वह मंदिर वक्त के थपेड़ों की मार नहीं झेल सका।
वैसे गढ़वाल विकास निगम अनुसार मौजूदा मंदिर 8वीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य ने बनवाया था। यानी छोटा हिमयुग का दौर जो 13वीं शताब्दी में शुरू हुआ था उसके पहले ही यह मंदिर बन चुका था।
लाइकोनोमेट्री डेटिंग : वाडिया इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने केदारनाथ इलाके
की लाइकोनोमेट्री डेटिंग भी की। इस तकनीक से शैवाल और उनके कवक को मिलाकर उनके समय
का अनुमान लगाया जाता है। इस तकनीक के अनुसार केदारनाथ के इलाके में ग्लैशियर का
निर्माण 14वीं सदी के मध्य में शुरू हुआ और इस घाटी
में ग्लैशियर का बनना 1748 ईसवीं तक जारी रहा यानी तकरीबन 400
साल।
जोशी ने कहा कि सबसे बड़ी बात यह है कि लाखों साल पहले केदारनाथ घाटी बनी है
चोराबरी ग्लैशियर के पीछे हटने से। जब ग्लैशियर पीछे हटते हैं तो वे रोड रोलर की
तरह अपने नीचे की सारी चट्टानों को पीस देते हैं और साथ में बड़ी-बड़ी चट्टानों के
टुकड़े छोड़ जाते हैं।
जोशी कहते हैं कि ऐसी जगह में मंदिर बनाने वालों की एक कला थी। उन्होंने एक
ऐसी जगह और एक ऐसा सेफ मंदिर बनाया कि आज तक उसे कुछ नुकसान नहीं हुआ। लेकिन उस
दौर के लोगों ने ऐसी संवेदनशील जगह पर आबादी भी बसने दी तो स्वाभाविक रूप से वहां
नुकसान तो होना ही था।
वैज्ञानिक डॉ. आरके डोभाल भी इस बात को दोहराते हैं। डोभाल कहते हैं कि मंदिर
बहुत ही मजबूत बनाया गया है। मोटी-मोटी चट्टानों से पटी है इसकी दीवारें और उसकी
जो छत है वह एक ही पत्थर से बनी है।
85 फीट ऊंचा, 187 फीट लंबा और 80 फीट
चौड़ा है केदारनाथ मंदिर। इसकी दीवारें 12 फीट मोटी है और
बेहद मजबूत पत्थरों से बनाई गई है। मंदिर को 6 फीट ऊंचे
चबूतरे पर खड़ा किया गया है।
यह हैरतअंगेज है कि इतने भारी पत्थरों को इतनी ऊंचाई पर लाकर तराशकर कैसे
मंदिर की शक्ल दी गई होगी। जानकारों का मानना है कि पत्थरों को एक-दूसरे में
जोड़ने के लिए इंटरलॉकिंग तकनीक का इस्तेमाल किया गया होगा। यह मजबूती और तकनीक ही
मंदिर को नदी के बीचोबीच खड़े रखने में कामयाब हुई है।

दरअसल केदारनाथ का यह इलाका चोराबरी ग्लैशियर का एक हिस्सा है। वैज्ञानिकों का
कहना है कि ग्लैशियरों के लगातार पिघलते रहने और चट्टानों के खिसकते रहने से आगे
भी इस तरह का जलप्रलय या अन्य प्राकृतिक आपदाएं जारी रहेंगी।
पुराणों की भविष्यवाणी अनुसार इस समूचे इलाके के तीर्थ लुप्त हो जाएंगे। माना
जाता है कि जिस दिन नर और नारायण पर्वत आपस में मिल जाएंगे, बद्रीनाथ का मार्ग पूरी तरह बंद हो जाएगा।
भक्त बद्रीनाथ के दर्शन नहीं कर पाएंगे। उत्तराखंड में आई
प्राकृतिक आपदा इस बात की ओर इशारा करती है। पुराणों अनुसार आने वाले कुछ वर्षों
में वर्तमान बद्रीनाथ धाम और केदारेश्वर धाम लुप्त हो जाएंगे और वर्षों बाद भविष्य
में भविष्यबद्री नामक नए तीर्थ बनेगें।
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