पाप का बाप कौन ?
पंडित
श्रीकृष्ण दत्त शर्मा, अवकाश प्राप्त अध्यापक
सी 5/10 यमुनाविहार दिल्ली
मोबाइल न0 8130859839
ग्यानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार।
केहि कै लोभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार॥
केहि कै लोभ बिडंबना कीन्हि न एहिं संसार॥
इस संसार में
ऐसा कौन ज्ञानी, तपस्वी, शूरवीर,
कवि, विद्वान् और गुणों का धाम है, जिसकी लोभ ने विडंबना (मिट्टी पलीद) न की हो॥
मित्रों!
क्रोध से परहेज रखो, अपने जीवन को प्रेम से आपूरित होने दे,
संयम रखे, मिजाज ठंडा रखे, नरक का द्वार हम पार कर ही लेंगे, नरक के दो दरवाजो
का वर्णन हम कर चुके है अब तीसरे दरवाजे के बारे में जान लिजिये और वह तीसरा
दरवाजा है लोभ! यह नरक का अन्तिम दरवाजा है, लेकिन है सबसे ज्यादा
भयंकर तथा फिसलन भरा, यह ऐसा दरवाजा है कि व्यक्ति न चाहते
हुये भी वहाँ जाकर उलझ जाता है।
लोभ के मायने
है मन की वह स्थिति जो लुभा ही जाती है, जो व्यक्ति को खींच ही लेती है, बाँध ही लेती है,
लोभी बड़ा कंजूस होता है, क्रोधी प्रेम से
वंचित होता है लेकिन लोभी तो प्रेम और करूणा दोनों से वंचित रहता है, क्योंकि प्रेम में तो लिया नहीं जाता, वरन दिया ही
जाता है, लुटाया ही जाता है, लोभी आदमी
कभी लुटा नहीं सकता, वह तो देने का नाम ही नहीं जानता है।
उसे तो चाहिये
ही चाहिये, उसे तो कुछ और चाहिये, कहीं और चाहिये, कोई और चाहिये, जो मिला है उसमें वह सन्तुष्ट नहीं होता, तृप्त नहीं
होता, उसे पेट की चिन्ता नहीं, पेटी की
चिन्ता है, तिजोरियाँ भरने की चिन्ता है, बड़ी बीमार हालत होती है लोभियों की, लोभ मन का कब्ज
है, कब्ज का काम है मल को पेट में एक जगह इकट्ठा रखना और जो
लोभी आदमी होते हैं, वे भी दुनियाँ-भर के कबाड़े को अपने
तहखाने में इकट्ठा करते हैं,
ऐसे लोग यह
सोचते है कि संग्रह आज नहीं तो कल काम आयेगा, लोगों के घर में जाकर देखों, वहाँ काम की चीजें तो
कम मिलेगी और बेकार की चीजें भरी पड़ी है, जिन चीजों का साल
में एक बार भी उपयोग नहीं होता, उन चीजों को रखकर हम घर को
कबाड़ क्यों बनाये, जो वस्तुयें हमारे लिये मूल्यवान होती है,
वे ही वस्तुयें संत के लिये नाकारा होती है, तभी
तो विवेकानन्द पैदा होता है, तभी तो हिराबाई जैसे संत और हटो
बा जैसे वीर जन्म लेते हैं।
संतो के घर
सबकुछ था लेकिन जाना तो यह जाना कि यह कुछ भी नहीं है, जिन चीजों के लिये हम अपनी जिन्दगी दाँव पर लगाते है, रात-रात भर जागते है, अपनो के शत्रु तक बन जाते हैं,
बड़ी से बड़ी जोखिम उठाने से भी नहीं घबराते, वही
वस्तु चाहे धन-दौलत हो या जमीन-जायदाद, कोई भी हमें दो पल की
शान्ति और तृप्ति नहीं दे सकती, तब जिनको हम बटोरने में लगे
है उनको हीराबाई जैसे व्यक्तित्व ठुकराकर आगे बढ़ जाते हैं, सब-कुछ
पाने के लिये।
भाई-बहनों, लोभ सभी पापों का सरताज है, लोभ कब
बढ़ता है? "जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई" जैसे-जैसे
लाभ बढ़ता है वैसे-वैसे लोभ भी बढ़ता जाता है, और जैसे-जैसे
लोभ बढ़ता है वैसे-वैसे पाप भी बढ़ता जाता है, लोभ से ही पाप
का जन्म होता है, आपको एक कहानी के द्वारा समझाने की कोशिश
करता हूँ जो श्रीमद्भागवत में भी आपको पढ़वाई थी।
एक बार एक
पंडितजी काशी में विधा अध्ययन करने गये, बारह वर्ष तक पढ़ाई की, सब कुछ पढ़ लिया वेद,
शास्त्र, पुराण, श्रुतियां,
ग्रन्थ, आरण्य, उपनिषद्
आदि पढ़ कर वापस घर आये तो पिताजी से कहा कि मैं सब कुछ पढ़के आया हूँ, मुझे सब कुछ याद है, आप कुछ भी प्रश्न पूछो? मैं उसका उत्तर दूंगा, पिताजी बोले बेटा जब सब तुझे
याद है तो तू मेरे एक छोटे से प्रश्न का उत्तर दे दे।
बेटे ने कहा
पूछिये पिताजी, पिताजी ने पूछा सिर्फ इतना बताओं की
"पाप के बाप" का क्या नाम है, पंडित ने सोचा 'पाप का बाप' यह तो मैंने कही पढ़ा ही नहीं, जो किताबें थी पढ़ाई की उसमें देखने लगा, रात भर
किताबें पढ़ता रहा मगर पाप का बाप नहीं मिला, पिताजी बोले-
तो फिर खाक पढा़ई की, अभी तक तुझे पाप के बाप का भी पता
नहीं।
बेटे ने कहा
आखिर आपका बेटा हूँ अब तो पाप के बाप को ढूंढ कर ही लाऊँगा, चाहे बारह वर्ष ओर क्यों ना बीत जायें, पंडितजी
पुन: काशी के लिये रवाना हुये, उस जमाने में साधन तो थे नहीं,
पैदल चलना पड़ता था, काफी दूर तक चले फिर
पंडितजी को प्यास लगी तो एक घर दिखाई दिया, पंडितजी घर में
गये, वहां जाकर बोले मुझे बड़ी जोर की प्यास लगी है अगर कोई
हैं अन्दर तो मुझे पानी पिलायें।
एक स्त्री आई
और उसने पानी पिलाया पंडितजी को, और
पंडितजी ने पानी पिया, पानी पीने के बाद पंडितजी ने पूछा कि
यह घर किसका है? उस स्त्री ने कहा पंडितजी यह तो आपको पानी
पिने से पहले पूछना चाहिये था कि यह घर किसका है? आपने पानी
तो पी लिया है और अब पूछ रहे है कि यह घर किसका है? तो सुनलो
पंडितजी यह घर एक वेश्या (गणीका) का है।
पंडितजी सुनने
ही एकदम अपने कान पकड लिये, कहने लगे "शांतम्-पापम्, शांतम्-पापम्" मेरे द्वारा पाप हो गया मैंने एक वेश्या के घर का पानी
पी लिया, अरे पाप का बाप तो मिला नहीं, पाप और हो गया, लेकिन उस वेश्या ने कहा पंडितजी आप
आगे कहाँ पधार रहे है? पंडितजी ने सारी बात बताई और कहा कि
पाप के बाप को ढूंढने जा रहा हूँ वापस काशी।
उस वेश्या ने
सोचा कि बारह वर्ष जो काशी पढ़के आये हैं तो भी उन्हें पाप के बाप का पता नहीं चला, यह पुन: जा रहे है, अरे वहां उन्हें
मिले ना भी मिले, जब मेरे पास आये हैं तो मैं ही बता दूँ ना कि
पाप का बाप कौन है? इतना दूर नहीं जाना पड़ेगा, और उस वेश्या ने बताया लेकिन युक्ति से बताया सीधे-सीधे नहीं।
वेश्या ने कहा
पंडितजी आप जायें लेकिन आप बहुत थके हुए लगते है, शायद काफी दूर से आ रहे हो, और आपको भोजन भी करना है
आप थोड़ी देर आराम करें तबतक मैं आपके लिये भोजन बना देती हूँ, भोजन करके पधारें, पंडितजी ने कहा- तेरे घर का और
मैं भोजन करूँ? कदापि नहीं, पानी पी
लिया उसका भी प्रायश्चित कर रहा हूँ।
वेश्या ने कहा
तो सीधा सामान (पेटीयाँ) ले लिजिये आटा, दाल, घी,शक्कर मैं दे देती हूँ,
आप स्वयं बनाकर भोजन कर लें, पंडितजी ने कहा
मेरे को तेरे घर का सीधा भी नहीं लेना, तू वेश्या और मैं
पंडित, तब उस वेश्या ने कहा पंडितजी सीधा सामान ले लोगे तो
मैं आपको पांच सोने की मोहरे दूँगी, पंडितजी ने सोचा कि वो
पाप का बाप तो पता नहीं कहां मिलेगा, यह मोहरे हाथ से चली
जायेगी।
पंडितजी को
इतनी देर तो सीधा लेने में तकलीफ हो रही थी, लेकिन पांच सोने की मोहरें आ रही है ऐसा सुना तो तकलीफ खत्म, बोले ठीक है, तेरा इतना आग्रह है तो मैं सीधा सामान
ले सकता हूँ, वेश्या ने पंडितजी को आटा, दाल, घी, शक्कर सब सीधा सामान
निकाल कर दे दिया, पंडितजी भोजन बनाने लगे।
तो वेश्या ने
आकर कहा कि पंडितजी आपने मेरे घर का पानी पिया है, मेरे घर का सीधा सामान भी लिया है, तो अब मैं आपके
लिये भोजन बना दूं तो कैसा रहेगा? पंडितजी बोले ज्यादा मत
बोल, तेरे घर का सीधा सामान ले लिया यही बहुत हैं, तू वेश्या है तेरे हाथ का बना भोजन मैं करूँगा क्या? वेश्या बोली चिन्ता मत करो पंडितजी मैं आपको पाँच सोने की मोहरें और
दूँगी।
पंडितजी ने
सोचा कुल हो जायेगी दस सोने की मोहरें, पंडितजी बोले स्नान करके भोजन बनाये तो छूट है, बोली
हाँ पंडितजी स्नान करके ही बनाऊंगी, वेश्या ने पंडितजी के
लिये भोजन बनाया और पंडितजी ने कहा बस अब चली जाओ मैं अपने आप भोजन कर लूँगा,
तब वेश्या ने कहा पंडितजी आपके लिये भोजन बनाया है तो अब सिर्फ पांच
नवाले आप मेरे हाथ से ले लो।
पंडितजी बोले
कि तूअंगुली पकड़ कर हाथ पकड़ रही है? इतनी छूट दे दी इसलिये, तब वेश्या ने कहा महाराज
पाँच नवाले ले लो तो मैं आपको पाँच सोने की मोहरें और दूँगी, पंडितजी ने देखा कि हो जायेगी पन्द्रह मोहरें, बोले
तो ठीक है पाँच नवाले तेरे हाथ से ले सकता हूँ पर पाँच से आगे नहीं, वेश्या बोली ठीक है महाराज पाँच बस।
पंडितजी को
भोजन की थाली परोसी, सामने पंडितजी इधर वेश्या बीच में थाली,
वेश्या ने नवाला लिया, अपने हाथ में पंडितजी
को देने के लिये अपना हाथ पंडितजी के मुँह की ओर बढ़ाया, और
पंडितजी ने भी वेश्या के हाथ से नवाला लेने के लिये अपना मुँह खोला, जैसे ही पंडितजी नवाला लेने वाले थे तो वेश्या ने पंडितजी के गाल पर एक
जोरदार थप्पड़ मारी।
पंडितजी आग
बबूला हो गये, तेरी इतनी हिम्मत, वेश्या
होकर पंडित को थप्पड़ मारती है, तूने बहुत बड़ा अपराध किया है,
वेश्या ने कहा पंडितजी अपराध मैंने नहीं, अपराध
आपने किया है, मैंने क्या अपराध किया है पंडितजी बोले,
तब वेश्या ने कहा आप मेरे घर का पानी पीते हैं? पंडितजी बोले नहीं, आप मेरे घर का सीधा सामान लेते
है? नहीं, आप मेरे हाथ से बनाया भोजन
करते है? नहीं।
आप मेरे हाथ
से भोजन करते हो? नहीं तो आप करने के लिये क्यों तैयार हुए?
पंडितजी बोले तेरे भाव के कारण, प्रेम के कारण,
प्रेम के कारण नहीं पंडितजी, यों कहिये लोभ के
कारण, आपको पन्द्रह सोने की मोहरें दिखाई दे रही थी न,
तब आप जीमने को तैयार हुए, पंडितजी अपनी डायरी
में लिख दो कि पाप के बाप का नाम लोभ है, एकदम पंडितजी की
आँखे खुल गयी, और वेश्या के चरणों में गिर के बोले, आप कोई वेश्या नहीं, आप तो मेरी गुरु निकली, बारह वर्ष तक मुझे पता नहीं चला, जबकि मैं काशी में
इतना पढ़ा और यहां आपने एक मिनट में बता दिया कि पाप का बाप कौन है?
जय श्री कृष्ण!
ओऊम् नमो भगवते वासुदेवाय्
ओऊम् नमो भगवते वासुदेवाय्
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