भगवान शिव और माता पार्वती
पंडित
श्रीकृष्ण दत्त शर्मा, अवकाश प्राप्त अध्यापक
सी 5/10 यमुनाविहार दिल्ली
मोबाइल न0 8130859839
भवानी शंकरौ बन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ ।
याभ्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम् ।
याभ्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम् ।
अर्थात मैं
भवानी और शंकर की बन्दना करता हूँ,जो श्रद्धा और विश्वास के रूप हैं,और जिनके बिना
सिद्ध जन भी अंतःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख पाते।
शास्त्र कहते
हैं कि, ईश्वर प्रत्येक प्राणी के हृदय में निवास
करता है,
"ईश्वरः सर्व भूतानाम हृद्देशेर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन सर्व भूतानि यन्त्रारूढ़ेन मायया"।।
"ईश्वरः सर्व भूतानाम हृद्देशेर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन सर्व भूतानि यन्त्रारूढ़ेन मायया"।।
किन्तु इतना
निकटस्थ होने के बाद भी ईश्वर दृष्टिगोचर नहीं होता।उसे देखने के लिए जिस दृष्टि
की अपेक्षा है,तुलसी की भाषा में उसका नाम है, श्रद्धा और विश्वास।भगवती उमा और भगवान शंकर,श्रद्धा
और विश्वास के घनीभूत रूप हैं।तत्वतः श्रद्धा और विश्वास अभिन्न हैं,फिर भी ब्यावहारिक दृष्टि से उन्हें दो पृथक रूपों में देखना होगा।यही
साधना की प्रणाली है।
पार्वती के
जन्म की कथा मानस में वर्णित है,किन्तु शिव
अजन्मा हैं।यानी श्रद्धा का जन्म होता है,किन्तु विश्वास का
नहीं।श्रद्धा का उदय बुद्धि में होता है,पर विश्वास हृदय का
सहज स्वभाव है।बुद्धि प्रत्येक वस्तु को कार्य -कारण के आधार पर ही स्वीकार करती
है, किन्तु हृदय की स्वीकृति के पीछे कोई तर्क नहीं होता।
तर्क को अधिक
महत्व देना स्वयमेव तर्क-संगत नहीं है,क्योंकि प्रत्येक तर्क, किसी न किसी दूसरे तर्क से
काटा जा सकता है।तर्क एक मनोवैज्ञानिक दुर्बलता है,जो
ब्यक्ति के अहं को तुष्ट करती है।
श्रद्धा पूर्व
जन्म में दक्ष पुत्री हैं,उन्हीं का पुनर्जन्म शैलपुत्री पार्वती के
रूप में होता है।दक्ष यानी चतुर अतः दक्ष चतुर हैं।उनहें अपनी बुद्धिमत्ता पर गर्व
है।सती जिज्ञासा हैं।जिज्ञासा का उदय बुद्धि में होता है।
ब्रह्मा ने
पुत्र दक्ष से कहा,अपनी पुत्री शिव को अर्पित करें।जिज्ञासा की
पूर्णता है, संशय का विनाश और विश्वास की उपलब्धि।जिज्ञासा
यानी जानने की इच्छा यदि ब्यक्ति को संशयात्मा बना दे,तो यह
बुद्धि का सबसे बड़ा दुर्भाग्य और दुरुपयोग है।अतः जिज्ञासा और विश्वास का परिणय
लोक कल्याण के लिए आवश्यक है,ब्रह्मा की यही सोच थी,किन्तु इस विवाह का परिणाम वह नहीं हुआ।
सती शिव के
प्रति समर्पित होने के बाद भी पिता के संस्कारों से स्वयं को मुक्त नहीं कर
पायीं।जब तक जिज्ञासा अहं शून्य नहीं होगी,तब तक उसका विश्वास के प्रति समर्पण सम्भव नहीं है।
अहंकार पूर्ण
जिज्ञासा परीक्षा का रूप ग्रहण कर लेती है।सती के जीवन का दुर्भाग्य यही था कि वे
जिज्ञासु के स्थान पर परीक्षक बन गयीं।देखें----
सती जब कथा श्रवण के लिए दंडकारण्य जाती हैं, मानसकार उन्हें जगजननी के नाम से संबोधित करते हैं"संग सती जगजननि भवानी,पूजे रिषि अखिलेश्वर जानी।"
सती जब कथा श्रवण के लिए दंडकारण्य जाती हैं, मानसकार उन्हें जगजननी के नाम से संबोधित करते हैं"संग सती जगजननि भवानी,पूजे रिषि अखिलेश्वर जानी।"
रिषि अगस्त्य
के पूजन में वह रिसि की न्यूनता देखती हैं और राम कथा ध्यान से नहीं सुनतीं।अतः
वहाँ से वापस लौटते समय गोस्वामी जी उन्हें शिव प्रिया के स्थान पर दक्ष पुत्री
कहते हैं--
"मुनि सन बिदा माँगि त्रिपुरारी।चले भवन संग दक्ष कुमारी।"
"मुनि सन बिदा माँगि त्रिपुरारी।चले भवन संग दक्ष कुमारी।"
शिव लौटते समय
प्रिया वियोग में कातर श्रीराम को लता बृक्षों से सीता का पता पूछते देखकर पुलकित
होते हुए,उन्हें'जय सच्चिदानंद'
कहते हैं,सती को एक बिरही राजकुमार को
सच्चिदानंद कहने पर संशय हो जाता है।
शिव सती को
समझाने की पूरी चेष्ठा करते हैं,किन्तु सती
को उससे भी तुष्टि नहीं मिलती।स्वयं के पास दृष्टि न हो और दूसरे की दृष्टि पर
विश्वास न हो ऐसी स्थिति में कल्याण की कल्पना भी बुद्धि की बिडम्बना है।तब शिव ने
कहा,फिर जाकर परीक्षा ले लो,जब कि शिव
को भलीभाँति यहज्ञात था कि परीक्षा के द्वारा ईश्वर को समझ पाना सम्भव नहीं है।
अतः शिव
यहींसती को अनुत्तीर्ण घोषित कर देते हैं,---
"इहाँ शम्भु अस मन अनुमाना,।दक्षसुता कहँ नहिं कल्याना,।
मोरेहु कहे न संशय जाहीं,बिधि बिपरीत भलाई नाहीं,।"
"इहाँ शम्भु अस मन अनुमाना,।दक्षसुता कहँ नहिं कल्याना,।
मोरेहु कहे न संशय जाहीं,बिधि बिपरीत भलाई नाहीं,।"
ईश्वर
जिज्ञासा का विषय हो सकता है परीक्षा का नहीं।सती ने सोचा कि लता बृक्षों से सीता
का पता पूछने वाला सर्वज्ञ कैसे हो सकता है।दूसरी तरफ शंकर को भी सर्वज्ञ मानती
हैं,'शिव सर्वज्ञ जान सब कोई'।किन्तु सर्वज्ञ शिव की वाणी पर भी विश्वास नहीं है।इसी बिरोधाभाष से वह
संत्रस्त हैं।फिर भी बुद्धि पर उन्हें भरोसा है।उनकी सोच हैकि यदि सीता का वेश
देखकर भी वे मुझे पहचान लें तो समझ लूँगी कि वह ईश्वर हैं।
रावण भी नकली स्वर्ण मृग को भेजकर राम की परीक्षा लेना चाहता है कि ईश्वर
होंगे तो स्वर्ण मृग के पीछे नहीं भागेंगे।यहाँ राम मृग के पीछे भागकर उसकी
परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाते हैं,किन्तु सती की परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाते हैं।कुछ घंटों के अंदर ही
ईश्वर के संबंध में परिवर्तित होने वाली धारणा के आधार पर ही जिनकी आस्था का निर्णय
होना है,उनकी बुद्धि स्वयं संदिग्ध है।ईश्वर का अस्तित्व
प्रमाण सापेक्ष नहीं है।इसलिये उसकी सिद्धि में बुद्धि और तर्क की कोई उपयोगिता
नहीं है वह हृदय का निवासी है।
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