हिन्दू राष्ट्र में ही नि:स्वार्थ समाज निर्मिती संभव होगी
अजय वर्मा , राष्ट्रीय अध्यक्ष , भारतीय जन क्रान्ति दल

प्राचीन भारत में सनातन वैदिक हिन्दू धर्म को राजाश्रय प्राप्त था । इसलिए यह राष्ट्र व्यावहारिक और आध्यात्मिक दृष्टि से प्रगतिपथ पर था । इसलिए सुसंस्कृत समाज, आदर्श कुटुंबव्यवस्था और राज्यकर्ताआें की निर्मिति हिन्दू धर्माधारित राष्ट्र में हुई थी; परंतु स्वतंत्रता के ७ दशकों के पश्चानत भी लोकतंत्र की प्रशंसा करनेवाले सर्वपक्षीय शासनकर्ताआें के लिए सुसंस्कृत समाज और समृद्ध राष्ट्र बनाना संभव नहीं हुआ । परिणामस्वरूप राष्ट्र में विविध समस्याएं जटिल बन गई हैं तथा इस कारण राष्ट्र तीव्र गति से विनाश की ओर जा रहा है । इन समस्याआें की तीव्रता देखते हुए धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की निरर्थकता और हिन्दू राष्ट्र स्थापित करने की आवश्यकता स्पष्ट होती है
अंग्रेजों के भारत में आने से पूर्व हिन्दुओ में एकता थी; परंतु अंग्रेजों की फूट डालो, राज करो, की नीति के कारण हमारे चार वर्णों की व्यवस्था को विविध जातियों में विभाजित कर के हिन्दुओ को कमजोर किया गया । स्वतंत्रता के पश्चात देश के शासनकर्तांंओं ने भारत पर सिर्फ हिन्दुओ को कमजोर करने के उद्देश्य से उसमे आपसी वैमनस्य बढ़े इस कारण से आरक्षण नामक विष घोल दिया । इसलिए समाज में एकता उत्पन्न होने के स्थान पर, जाति-जाति में अनबन उत्पन्न हो गई । निर्वाचन के समय राजनीतिक दल विविध जातियों को आरक्षण का प्रलोभन देकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने लगे । डॉ. बाबासाहेब अंबेडकरजी ने पिछडे वर्ग के विकास हेतु केवल १० वर्षों के लिए आरक्षण लागू किया था; परंतु देश को स्वतंत्रता मिले ७५ वर्ष हो गए, अब भी आरक्षण चल ही रहा है ।प्राचीन काल में जनता धर्माचरणी होने के कारण वह सदाचारी और नीतिमान थी । धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में राष्ट्र का नैतिक बल क्षीण हो गया है । भ्रष्टाचार के कारण समाज व्यवस्था खोखली हो गई है । एक समय सोने की चिडिया कहलानेवाला अपना भारत देश आज निष्क्रिय और भ्रष्ट शासनकर्ताआें के कारण ऋण के नीचे दब गया है । वर्ष २०१५ के अंत में देश ने अंतरराष्ट्रीय बैंकों, वित्तीय संस्थाआ, सरकारों से ४७५.८ अरब डॉलर ऋण लिया है । अरबों रुपयों के नए-नए घोटाले प्रतिदिन उजागर हो रहे हैं । कांग्रेस के समय हुआ आदर्श घोटाला, 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, कोयला घोटाला आदि से देश की आर्थिक स्थिति डूबने की कगार पर है, ऐसे समय अब बैंकों से हजारों करोड रुपयों का ऋण लेकर उसे डुबोनेवाले विविध उद्योगपतियों के घोटाले भी सामने आने लगे हैं । आये दिन बैंको का डूबना भी सरकार की आर्थिक विफलता को दर्शाता है |
वर्ष १९३५ की जनगणना के अनुसार भारत में पिछडी जातियों की संख्या १५० थी । २१ वीं शताब्दी में वह ३ हजार ५०० से ऊपर पहुंच चुकी है । वास्तव में पिछडापन समाप्त होना राष्ट्र की उन्नति दर्शाता है; परंतु वर्तमान में अनेक लोग स्वयं के समाज को पिछडा घोषित करने के लिए आंदोलन कर, मोर्चे निकालकर आरक्षण की मांग कर रहे हैं, कानून हाथ में ले रहे हैं । इस आरक्षण के कारण गुणवान लोगों का मनोबल टूटकर क्या राष्ट्र की असीमित हानि नहीं हो रही है ? संक्षेप में यह कहना अनुचित नहीं है कि नि:स्वार्थी समाज बनाने तथा सर्वप्रथम राष्ट्र का विचार करने की सीख देने में लोकतंत्र असफल सिद्ध हुआ है, । वसुधैव कुटुम्बकम् की सीख देनेवाले हिन्दू राष्ट्र में ही नि:स्वार्थ समाज निर्मिती संभव होगी ।
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