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परती पर परिकथा लिखनेवाले शिल्पी : 'रेणु'


परती पर परिकथा लिखनेवाले शिल्पी : 'रेणु'

लेखक श्री आनन्द वर्धन ओझा
तब मैं बहुत छोटा था--चौथी कक्षा का छात्र ! जिस मोहल्ले में रहता था, वह पटना का बहुत पुराना और प्रसिद्ध मुहल्ला है--कदमकुआँ ! उसकी प्रसिद्धि इसलिए भी थी कि वहाँ लोकनायक जयप्रकाश नारायण का आवास था और उसी मोहल्ले में कई प्रसिद्ध साहित्यकारों का जमावड़ा था। कदमकुआँ से जो सड़क पूरब की ओर जाती थी, वह राजेंद्र नगर के चौराहे तक ले जाती थी। चौराहे के गोलंबर के चारो कोणों पर बड़े-बड़े गड्ढे खोदे जा रहे थे, वहाँ भवन-निर्माण की योजना थी। वृत्ताकार बननेवाले उन भवनों के लिए ही नींव खोदी जा रही थी, जिससे पीली मिट्टी और सोने-जैसी पीली बालू निकल आयी थी। बाल्यकाल की धमाचौकड़ी करता मैं प्रायः वहाँ चला जाता था और उसी बालू-मिट्टी में खेला करता था। दीपावली के दिन आये तो वहाँ की पीली और चिकनी मिट्टी तथा सोने-जैसी बालू घरौंदा बनाने के लिए हम भाई-बहन उठा लाये थे। पीली रेत को रँगकर हमने घरौंदे के आसपास की सड़कें बनाई थीं और चिकनी मिट्टी से घरौंदा तैयार किया था। उस मिट्टी के क्या कहने ! उसका रंग तो सोने जैसा था ही, उसमें लुनाई भी इतनी थी कि जिस आकार में ढालो, उसी में ढल जाने को तैयार ! गीले हाथो से ज़रा सहला दो, तो उसकी ऊपरी सतह इतनी चिकनी और चमकदार हो जाती थी कि आज का सनमाईका भी शरमा जाए। खैर, उस घरौंदे की सुन्दरता और चमक को मैं आज तक नहीं भूल सका हूँ ! इसके कई कारण भी हैं...
बहरहाल, बचपन बीता भी न था कि राजेंद्र नगर के चौराहे से गहरी नींव और मिट्टी-बालू गायब हो गई थी और चारो कोणों पर अर्धचन्द्राकार स्वरूप में चार मंजिला इमारतें बनकर खड़ी हो गई थीं। यदि इन इमारतों के बीच से जानेवाली सड़कें हटा दी जातीं और किसी योग-विधान से उन्हें पास लाकर जोड़ दिया जाता, तो एक सम्पूर्ण वृत्त बन जाता ! पूर्वोत्तर कोण पर जो इमारत खड़ी हुई थी, उसी के (संभवतः) तीसरे तल के एक छोटे-से फ्लैट में लतिकाजी के साथ आ बसे थे-- कथाकार फणीश्वरनाथ 'रेणु'। लम्बी-छरहरी देह, नासिका पर काले फ्रेम का मोटा चश्मा--जिससे झाँकती तीखी आँखें, काले घुंघराले केश--कंधे तक झूलते हुए, खालता पायजामा और लंबा कुर्ता !
पिताजी की उन पर अनन्य प्रीति थी। आकाशवाणी की सेवा में उन्हें खींच लानेवाले पिताजी ही थे। रेणुजी पिताजी का बहुत आदर-सम्मान करते थे। मुझे याद है, बाल्यकाल में मैं जब कभी पिताजी के साथ उनके निवास पर गया, वह अपनी जलती सिगरेट बुझाने को व्यग्र हो उठे। मेरे घर से उनके राजेंद्र नगर वाले फ्लैट की दूरी अधिक न थी। दो रिक्शों पर सपरिवार सवार होकर पिताजी दस मिनट में उनके फ्लैट के सामने जा खड़े होते थे। सप्ताह-दस दिनों में एक बार उनके यहाँ हमारा जाना तय था। मुझे स्मरण है, यह सिलसिला लंबा चला था। बाल-सुलभ चपलता में कभी-कभी मैं क्षिप्रता से सीढियाँ चढ़कर रेणुजी के द्वार पर दस्तक देता, पिताजी, माताजी और मेरी बड़ी-छोटी बहनें तथा अनुज पीछे रह जाते। रेणुजी द्वार खोलते ही पूछते--"अरे ! तुम हो ?... और मुक्तजी ?" मैं उन्हें बताता कि वह अभी सीढ़ियों पर हैं, तो रेणुजी 'आओ-आओ' कहते हुए उलटे पाँव लौट जाते और अपनी सिगरेट बुझा देते। हम सभी उनके अतिथि-कक्ष में बैठ जाते। लतिकाजी मेरी माता से और रेणुजी पिताजी से बातें करने में मशगूल हो जाते। रेणुजी और पिताजी की बातों में लातिकाजी जब भी शामिल होतीं, बातें बँगला में होने लगतीं। बँगला न समझने वाले हमलोग तीनों की मुख-मुद्रा और भाव-भंगिमा निहारते रहते। हम भाई-बहन उनके घर में धमाचौकड़ी मचाया करते। वहाँ मेरे आकर्षण का प्रमुख केंद्र रेणुजी का पोषित कुत्ता था। मैं उसे चिढाता, उसके आगे-पीछे दौड़ता और सच कहूँ तो किसी हद तक उसे परेशान किया करता था। वह छोटा-सा झबरा कुत्ता भी कम चंचल न था। वह बड़ी-बड़ी छलांगें लगाता, मेरी छाती तक अपने पंजे मारता, भौंकता । मुझे उसकी ये हरकतें बहुत अच्छी लगतीं। रेणुजी को कई बार अपने कुत्ते को डपटना पड़ता था, लेकिन पिताजी की आँखों से मेरी दुष्टता छिपी न रह सकी। एक दिन उन्होंने मुझसे कहा भी था--"तुम खामख्वाह उसे परेशान किया करते हो। किसी दिन ऐसा न हो कि बहुत परेशान होकर वह तुम्हें काट खाए और तुम्हारे पेट में चौदह इंजेक्शन लगवाने पड़ें।" 'पेट में चौदह इंजेक्शन' की बात मैं आज तक नहीं भूला; क्योंकि एक दिन ऐसा ही दुर्योग उपस्थित हुआ। शायद वह किसी छुट्टी का दिन था। हम सपरिवार रेणुजी के अतिथि-कक्ष में विराजमान थे। बड़े लोग चाय पी रहे थे और हम बच्चों को नमकीन और क्रीम वाले बिस्कुट की प्लेटें मिली थीं। वह नामाकूल झबरा मेरे सामने ही बैठा था--ज़मीन पर और मैं कुर्सी पर बैठा एक-एक बिस्कुट उसे दिखा-दिखा कर पीट रहा था। हर बिस्कुट को वह ललचाई नज़रों से देखता और दुम हिलाता। अंततः उसके सब्र का बांध टूट गया। प्लेट से उठानेवाले बिस्कुट पर अब वह मीठा गुर्राने लगा था। मैंने प्लेट का अंतिम बिस्कुट उठाकर उसकी ओर बढ़ाया और जैसे ही वह उसे अपने मुँह में पकड़ने को उद्यत हुआ, मैंने बिस्कुट अपने मुँह में डाल लिया। झबरा उद्विग्न हो उठा था। वह उस अंतिम बिस्कुट को लेने के लिए छलांग लगा चुका था। ग्रास तो मेरे मुँह में चला गया, किन्तु झबरे के दोनों पंजे मेरी नाक और मुँह पर खरोंच दे गए। फिर तो घर में कोहराम मच गया। रेणुजी ने बड़ी फुर्ती से उठकर कुत्ते को पकड़ा और ज़ंजीर से बांध दिया। पिताजी ने हलकी डाँट पिलाई और लतिकाजी ने मेरे नाक-मुँह की खरोंच पर मरहम लगाया था। खरोंच गहरी न थी, लिहाज़ा वह धीरे-धीरे मरहम से ही ठीक हो गयी और पेट में लगनेवाले चौदह इंजेक्शनों से मैं बाल-बाल बच गया। लेकिन उसके बाद श्वान-क्रीड़ा से मैं पूरी तरह विरत हो गया।
[अपेक्षया स्पष्ट चित्र : पटना रेलवे स्टेशन पर लिया गया दुर्लभ चित्र, संभवतः १९६० का; बाएं से--रेणुजी, अज्ञेयजी और मेरे पूज्य पिताजी) मुक्तजी।]
रेणुजी के अद्वितीय कथा-लेखन से सारा देश परिचित है, किन्तु बहुत कम लोग जानते हैं कि 'मैला आँचल' जैसे अप्रतिम आंचलिक उपन्यास ने उनकी लेखनी से कहाँ, किस भूमि पर जन्म पाया था। यह तब की बात है, जब मैं एक अबोध शिशु था और अपनी ननिहाल (पटना सिटी में अवस्थित विशाल परिसरवाली खजांची कोठी') में रहता था। पटना सिटी के मंगल तालाब के किनारे एक सरकारी अस्पताल था। राजेंद्र नगर के फ्लैट में आने से बहुत पहले रेणुजी उसी परिसर के एक आवासीय फ्लैट में निवास करते थे। उन फ्लैटों और मेरी ननिहाल के विशाल आहाते के बीच एक दुर्बल नाला था। रेणुजी अपने फ्लैट के पीछे और पिताजी आहाते के छोर पर जा खड़े होते, तो नाले के अवरोध के बावजूद दोनों आसानी से बातें कर सकते थे। रेणुजी से पिताजी का संपर्क-सम्बन्ध उन प्रारंभिक दिनों का था। पिताजी बताते थे कि मंगल तालाब के उसी छोटे से फ्लैट में रहते हुए रेणुजी के मनःलोक में 'मैला आँचल' के स्फुल्लिंग चमके थे और वहीँ उन्होंने उस अनूठे उपन्यास की रचना की शुरूआत की थी।


जब मैं थोड़ा बड़ा हुआ और रेणुजी के लिखे को पढ़ने-समझने लायक हुआ, तो विस्मय-विमुग्ध हो उठा। जिनके घर में मैं शैतानियाँ किया करता था, जिनके कुत्ते को नाहक परेशान किया करता था, वह रेणुजी कितने प्रतिभावान और सरस कथा-लेखक हैं--यह जानकार अपने बालपन की नादानियों का मुझे क्षोभ भी हुआ था; लेकिन तब, मेरा मुझ पर जोर भी कहाँ था !...
किराए के मकान को बार-बार बदलने के कारण मेरे पिताजी का आवासीय पता रह-रहकर बादल जाता था। सन् १९६१ के अंत में हम श्रीकृष्ण नगर के २३ संख्यक मकान में चले गए थे। राजेंद्र नगर से श्रीकृष्ण नगर की दूरी अधिक थी। अब रेणुजी से साप्ताहिक मुलाकातों में विक्षेप होने लगा था। रेणुजी ही कभी-कभी हमारे घर आ जाते और पिताजी से उनकी लम्बी आकाशवाणीय वार्ताएँ हुआ करती थीं । अज्ञेयजी की तरह ही रेणुजी भी गंभीर, किन्तु मस्त मन के यायावर कथाकार थे। उनकी सपनीली आँखों में हमेशा कोई कथा-फलक तैरता रहता था। प्रकृत्या बोलते वह भी कम थे, लेकिन जब बोलते थे, दृढ़ता से बोलते थे। बंधन उन्हें प्रिय नहीं था। स्वछन्द जीवन और लेखन उन्हें रास आता था। हाँ, एक बात उन्हें अज्ञेयजी से किंचित् अलग रखती थी--आभिजात्य संस्कारों में पले-बढ़े अज्ञेयजी अपनी सज-धज और परिधान के प्रति बड़े सजग-सावधान थे और इसके ठीक विपरीत रेणुजी बिलकुल बेफिक्र ! बाद के दिनों में ये बेफिक्री और बढ़ती गई थी। ये बात और है कि बाल्य-काल में मैंने उन्हें सूट-बूट और टाई में भी देखा है। घर में वह ज्यादातर चारखाने कि लुंगी और बनियान पहना करते थे।
एक दिन अचानक ही रेणुजी ने आकाशवाणी की सेवा से छुट्टी पा ली थी और कुछ समय बाद पटना-बम्बई की यात्राओं में व्यस्त रहने लगे थे। उनकी एक कहानी 'मारे गए गुलफाम' पर फिल्म का निर्माण हो रहा था। वह उसी सिलसिले में बम्बई की यात्राएँ किया करते थे। अब उनसे मिलना-जुलना कम हो गया था। बाद में वह चलचित्र 'तीसरी कसम' के नाम से जनता के सम्मुख आया। सेल्युलाइड पर वैसा कलात्मक चित्र मैंने दूसरा नहीं देखा। लेकिन, बंबई की रंगीन दुनिया भी उन्हें बाँध न सकी। वह अपनी जड़ और ज़मीन से जुड़े रहे--और अंततः पटना लौट आये।...
किशोरावस्था की दहलीज़ पार कर जब मैं युवा हुआ और महाविद्यालय में प्रविष्ट हुआ तो दो वर्षों के बाद ही बिहार आन्दोलन की गर्म हवाओं में पूरा प्रदेश तपने लगा था। सर्वत्र हिंसक और अहिंसक अवरोध जारी था। हम नवयुवकों की टोली महाकवि नागार्जुन की अगुआई में नुक्कड़ कवि-गोष्ठियाँ करती चलती थी। कितने उत्साह और ऊर्जा से भरे दिन थे वे ! हम दिन भर एक नुक्कड़ से दूसरे नुक्कड़ का परिभ्रमण करते और जन-जागरण का अभियान चलाते। बीच-बीच में जब भी अवकाश मिलता, हम सभी पटना के कॉफ़ी हाउस या कॉफ़ी बोर्ड की शरण लेते। उन दिनों ये दोनों संस्थान आन्दोलन के युवा नेताओं, प्रबुद्ध नागरिकों, रचनाधर्मी युवा साथियों के प्रमुख अड्डे थे। वहीं आन्दोलन की दशा-दिशा पर गहन विचार-विमर्श होता और आगे की रणनीति तय होती थी। वहाँ एक कप कॉफ़ी का मतलब था--एक घंटे का विश्राम ! कॉफ़ी हाउस की प्रत्येक बैठक में रेणुजी अनिवार्य रूप से उपस्थित रहते थे। चर्चाओं का दौर चलता, कॉफ़ी पर कॉफ़ी पी जाती और हम युवा रचनाकार उत्साहपूर्वक आन्दोलन-समर्थित अपनी-अपनी रचनाएँ उन्हें सुनाते। रेणुजी और नागार्जुनजी पूरे मनोयोग से कविताएँ सुनते और आवश्यक संशोधन-परिमार्जन की सलाह देकर हमारा मार्गदर्शन-उत्साहवर्धन करते। जिस रचना को उन दोनों की स्वीकृति मिल जाती, वह नुक्कड़ कवि-गोष्ठियों में पढ़ी जाती। मेरी एक कविता सुनकर रेणुजी ने खूब चुटकी ली थी। उस कविता का कुछ अंश ऐसा था |
"सचमुच, आम के मंजर में
वह खुशबू भी नहीं है,
उन्नीस वर्षीया वह,
जो मेरे दरवाज़े के कुएँ से
रोज़ पानी भरने आया करती थी;
सुना है, रात उसका बापू
अधमरा घर लौटा है,
उसके शरीर पर नीले निशान हैं,
कमर में बूटों से कुचले जाने की मचक है,
लेकिन, मैं सिगरेट के धुँए को
आँखों से हटाकर
किसी की तलाश कर रहा हूँ,
मेरी चुहलबाजियों पर
किसी ने कर्फ्यू का ताला लगा दिया है... ।"
पूरी कविता सुनकर रेणुजी ने कहा था--"जहाँ न्याय की आवाज़ को बेरहमी से कुचला जा रहा हो, वहाँ तुम्हें अपनी चुहलबाजियों की फिक्र है !" आपसी विमर्श के बाद उन्होंने पुनः कहा था--"कविता के बिम्ब-प्रतीक अच्छे हैं और सबसे बड़ी बात यह कि आन्दोलन के इस संघर्ष-काल का एक भयावह चित्र तो कविता श्रोताओं के सामने रखती ही है। सच है, इस शासन की बर्बरता ने युवा-मन की चुहलबाजियों पर भी कर्फ्यू का ताला तो लगा ही दिया है।".... इतना कहकर वह हँस पड़े थे और मैं संकुचित हो उठा था। याद आता है कि चुहल की बात पर नागार्जुनजी ने भी चुटकी ली थी।
 मैं और मेरे मित्र धूमपान की आदत के कारण रेणुजी से नज़रें बचाकर बैठते थे। हमारा यह लिहाज़ और सहज संकोच कॉफ़ी हाउस में हमारे लिए संकट का कारण बना रहता था। नागार्जुनजी से मिली छूट का लाभ उठाते हुए हम सभी उनसे बेतकल्लुफ हो गए थे, किन्तु रेणुजी की तेजस्विता और प्रभा-मंडल के सम्मुख हम स्वतन्त्रता लेने का दुस्साहस नहीं कर पाते थे। उन्होंने इस स्थिति को भाँप लिया और एक दिन हम सबों से कहा--"नागार्जुनजी तो मेरे भी बुजुर्ग हैं, जब आप उनके सामने स्मोक कर सकते हैं, तो मेरा लिहाज़ क्यों ? मैंने तो स्वयं यह व्यसन पाल रखा है।" रेणुजी की सहजता और सरलता के प्रति कृतज्ञ होते हुए भी हम उनके खुले आमंत्रण का लाभ उठाने की हिम्मत कभी न जुटा सके। मेरे सामने तो बाल्य-काल के दृश्य उठ खड़े होते थे, जब पिताजी के लिहाज़ में रेणुजी अपनी सिगरेट बुझाने को व्यग्र-आतुर हो उठते थे--यह स्मरण भी मुझ पर अंकुश रखता था।...
(चित्र : रेणुजी। मेरे विवाह के बाद 'वधू-स्वागत' समारोह में आशीष देने पधारे महाकवि नागार्जुन, 18-11-1978.)
स्कूल-काॅलेज तो आन्दोलन की आँधी में बंद पड़े थे, स्नातक अंतिम वर्ष की मेरी परीक्षा भी डेढ़ वर्ष बाद हुई थी। हम युवा साथियों के पास पर्याप्त समय था। हम पटना सिटी के बिहार हितैषी पुस्तकालय और पटना की सिन्हा लाइब्रेरी के चक्कर काटते, किताबें लेते और खूब पढ़ते। उन्हीं दिनों रेणुजी के कथा-संसार का मैंने परिभ्रमण किया था। उनकी कहानियों और उपन्यासों ने मुझे बाँध लिया था। परती पर परिकथा लिखने की क्षमता और पात्रता तो बस रेणुजी की ही थी। उनका उपन्यास 'परती परिकथा' पढ़कर मैं अभिभूत हुआ था। उनकी कहानियों में मिट्टी की सोंधी महक थी, जो मन-प्राण पर छा जाती थी। उनकी कथा-यात्रा अनेक पड़ावों को पार करती, गाँव की गलियों से राजपथ और महानगरों तक पहुँची थी। उन्होंने पर्याप्त यश अर्जित किया था, प्रतिष्ठा पायी थी, किन्तु पद-प्रभाव को वह हमेशा अपने से दूर धकेलते रहे थे। विशिष्ट होकर भी वह सामान्य बने रहना पसंद करते थे। जाने किस चिकनी मिट्टी का बना था वह शब्दों का शिल्पी कि अपनी चमक पर और कोई रंग चढ़ने ही न देता था। रेणुजी अनूठे रचनाकार तो थे ही, विलक्षण तत्त्वदर्शी भी थे। भावों-मनोभावों की गहरी पहचान थी उन्हें !
सन् १९७४ में स्नातक अंतिम वर्ष की परीक्षा देकर मैं पिताजी के पास दिल्ली चला आया था। ७५ अगस्त में अपनी पहली नौकरी पर मैं स्वदेशी कॉटन मिल्स, कानपुर चला गया। रेणुजी से फिर मिलना नहीं हुआ। नागार्जुनजी तो यदाकदा दिल्ली आ जाते थे और पिताजी से मिलने घर पधारते थे, लेकिन रेणुजी स्वस्थ्य कारणों से पटना की सीमा में ही बद्ध हो गए थे। उनके अंतिम दिन कष्ट और कठिनाइयों में बीते। कुछ समय बाद समाचार-पत्रों से और पिताजी के पास आनेवाली डाक से हमें पता चला था कि रेणुजी गंभीर व्याधियों से ग्रस्त होकर पटना मेडिकल कालेज अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती किये गए हैं। मैं अपनी नौकरी से बँधा था, मन मसोस कर रह गया। सन् १९७६ के अंत में कानपुर से स्थानांतरित होकर मैं पुनः पिताजी के पास दिल्ली चला आया। रेणुजी ने इस बीच कई बार घर-अस्पताल की यात्रा की। उनका स्वस्थ्य दिनों-दिन गिरता जा रहा था।
सन् १९७७ के प्रारंभिक दिनों में कभी अज्ञेयजी ने पिताजी से कहा था--"रेणुजी की हालत अच्छी नहीं है। सोचता हूँ, पटना जाकर उनसे मिल आऊँ। आप भी चार-पाँच दिनों का वक़्त निकालें, तो आपके साथ चलना मुझे अच्छा लगेगा।" लेकिन पिताजी कार्यालयीय व्यस्तता के कारण पटना नहीं जा सके। अज्ञेयजी अकेले ही गए और रेणुजी से अस्पताल में मिलकर दिल्ली लौट आये। उन्होंने पटना से लौटकर पिताजी को बताया था कि 'रेणुजी के जीवन की अब बहुत आशा नहीं करनी चाहिए। व्याधियों ने उन्हें अपनी गिरफ्त में ले लिया है, उससे उनका उबर पाना मुश्किल लगता है।' अज्ञेयजी की आशंका निर्मूल नहीं थी। थोड़ा ही समय बीता था कि अप्रैल १९७७ में हमें रेणुजी के महाप्रस्थान का दु:संवाद मिला। हम सभी शोक-विह्वल थे और अपनी-अपनी स्मृतियों में उन्हें निहार रहे थे।...
अब तो लंबा अरसा गुज़र गया है, लेकिन स्मृति-शेष हुए रेणुजी की जब भी याद आती है, अथवा मैं राजेंद्र नगर के गोलंबर से गुजरता हूँ, तो वृत्ताकार बने उन भवनों के चतुर्थांश की नींव मुझे दीख जाती है और नींव से निकली मिट्टी-रेत पर रेणुजी की 'परती परिकथा' साकार रूप लेती नज़र आती है मुझे। 'परती परिकथा' की कथा-भूमि तो अन्यत्र है, किन्तु उस कथा का अनूठा रचनाकार मेरे बाल-मन में सँजोई हुई नींव में आज भी कहीं बिखरा पड़ा लगता है मुझे.... ।