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रावण... शताब्दियों से गूंजता है
जिसका खल
रावण... जो छल से चुरा लाया है
एक स्त्री के दिन... पर रातें नहीं..
पर क्या रावण...
हमसे अधिक नहीं जानता
स्त्री देह का राग?
जानता है रावण!
तुम बलात नहीं कर सकते
एक स्त्री को सितार
जब चाहेगी स्त्री
सच में तुमसे संगीत...
तब कसेगी
अपनी देह के तार..
वो अपने हाथ में थाम लेगी
तुम्हारा मिज़राब
और खुद तुम्हें
देह की रहस्यमयी गहराइयों तक ले जाएगी
स्त्री खोलेगी
अबूझ गुफाओं के द्वार
और दीप्त हो जाएगा देहराग...
असीम धैर्य... असीम प्रतीक्षा...
जानता है रावण
चाहता है 'अशोक' रहे वाटिका
जानता है एक दुर्ग है स्त्री देह
जीता गया है जो छल से
पर बल से चढ़ी नहीं जा सकती उसकी प्राचीर
जब तक सीढ़ी न हो जाए स्त्री
चाहता है रावण
एक स्त्री कुटिया तक होना चाहिए
एक लाल मुरम की राह
पर लाल मुरम तो उस स्त्री के पास है
सुनो!इस सदी में
कितने कितने पुरूषों ने
देखी है लाल मुरम बिछने की राह...
ये जो स्त्री सो रही है तुम्हारे बगल में
तुम्हारे तप्त चुम्बन से घुट रही है
जिसकी साँस
क्या लाए थे इसे तुम इसे
लाल मुरम की सड़क से
नहीं.. तुम लाए थे इसे
धन, प्रतिष्ठा, पद, बल या छल से...
तुम इस स्त्री के बंद दुर्ग में
प्रवेश कर गए
तुमने खटखटाकर देखी न राह
अब तुम साभिमान रहते हो इस दुर्ग में
जिसके द्वार शिलाओं से बंद हैं
तुमको पता नहीं
तुम दुर्ग की दीवारों और देहरी
पर रहते हो
कल दशहरे की रात
आग और धुँए के बीच
इन शताब्दियों में
रावण पहली बार मेरे साथ बैठा...
तब उसके कंधे पर हाथ रख
जानी मैंने स्त्री संवेदना...
राम की शताब्दियों... मुझे क्षमा करना ।।
विवेक
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