ओढना पडता है!!
संजय कुमार मिश्र"अणु"
यदाकदा-जाना पडता है,
त्याग कर अपना मकान-
तब होशियारी से-
ओढ़ना पडता है अपने उपर-
तडक- भडक और मुस्कान!!
हम बिना पहने और ओढे,
नहीं रह सकते हैं कहीं-
बात चाहे कार्यक्षेत्र की हो,
या फिर बैठक बतकही,
ओ जगह चाहे जो हो-
मेला, हाट या फिर विरान!!
निकलने से पूर्व हम सबको,
करनी पडती है तैयारी-
जैसे खेल दिखाने से पहले हीं,
सचेत हो जाता है मदारी,
खबरदार या समझदारी-
जरूरी या दुनियादारी,
करता है निश्चित तौर पर-
चाहे वह कैसा भी हो इंसान!!
बाहर तो दिखाना हीं पडता है,
अंदर चाहे जैसे भी रह लो,
बाहर के लोग अंगुली न उठाये-
पहले देख लो फिर कह लो,
ओढकर लबादा भारी भरकम,
यही संदेश देना चाहते हैं हम,
अंदर वाला बाहर नहीं?
बाहर वाला अंदर नहीं?
अलग-अलग दुनिया कि-
है अलग-अलग पहचान!!
हम बाहर देखकर धोखा खाते है,
अंदर वाले को कभी पहचान पाते हैं?
नहीं न तो सम्हल जाओ देखकर-
बर्ना जीवन भर रोते और पछताते हैं!
न जान-न पहचान, न आन न जान,
फिर काहे की दुआ-सलाम,राम-राम,
पता चलेगा बस देखो गहराई से-
अंदर तुक्ष्य, भले बाहर महान!!
ये जो बाहर में दिखता है न,
वह अंदर से वैसा नहीं है,
मैनें बहुतों बार साथ चल देखा,
ये बयान ऐसा वैसा नहीं है,
देख-समझकर कह रहा हुं,
रात दिनसाथ में हीं रह रहा हुं,
तभी तो सब चिज का पता है मुझे
बर्तन,कपडे, वर्ताव खान-पान!!
दुनिया देखती है,
लोग दिखाते है,
पर सच में सब मुझे-
नंगे नजर आते हैं,
कोई इधर से कोई उधर से,
कोई नीचे तो कोई उपर से,
सब की समस्या है- क्या पर क्या है?
भेद पर भेद, स्याह और सफेद,
सब अलग थलग न एक समान!!
ये ओढे हुए लोग हैं खतरनाक,
नाकोदम करके खनवा देगा खाक,
पडकर अपने गरज के पिछे केवल-
क्षण में हीं बन जायेगा मैनाक डिंग हांक-
पडकर अपने सुख में,
तुम्हे डाल देगा दुख में,
अपनी दुनिया आबाद कर-
भेज देगा तुमको जीते जी श्मसान!!
---:भारतका एक ब्राह्मण.
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