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परहित सरिस धर्म नहीं भाई

परहित सरिस धर्म नहीं भाई


-- वेद प्रकाश तिवारी

कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के देखते हुए आज उन्हें सीख लेने की जरूरत है जिन्होंने प्रकृति के साथ बेहद क्रूरता दिखाई है। उसका दोहन किया है। गोस्वामी जी
की यह पंक्ति आज बेहद प्रासंगिक प्रतीत होती है। 

”परहित सरिस धर्म नहीं भाई ।
  पर पीड़ा सम नहिं अघमाई

प्रकृति एक चश्मे से सबको देखती है । उसके लिए पेड़, पौधे, वनस्पतियां ,जीव, जंतु या फिर मनुष्य, इन सबमें कोई अंतर नहीं है । अंतर मनुष्य करता है स्वार्थ के निहितार्थ ।     मनुष्य सिर्फ अपने लिए कानून बनाता है । मनुष्य अपने हित के लिए वह सारे कार्य करता है ।
कानून में एक हत्या के बदले अपराधी को फांसी की सजा मिलती है परंतु किसी जीव की हत्या के बदले किसी मनुष्य को कोई दंड नहीं मिलता यह बात कानून की नजर में अपराध नहीं है जब कि प्रकृति नजर में यह घोर अपराध है क्योंकि प्रकृत पेड़-पौधे ,जीव -जंतुओं की तरह मनुष्य को भी अपना अंश मानती है इससे ज्यादा और कुछ भी नहीं  ।उसकी नजर में सबका अस्तित्व एक समान है । मनुष्यों की देन है कि आज धरती से जीवो की कई प्रजातियां लुप्त हो गई हैं और इसका सबसे बड़ा कारण है प्रकृति का दोहन    जीव क्रूरता आज अपनी पराकाष्ठा पर है । और ऐसी स्थिति में जबकि मानव जीवों को अपना आहार बना चुका है तब प्रकृति अपने को संतुलित करने के लिए  कोई न कोई रास्ता ईख्तियार करती है।
परोपकार की भावना मनुष्य को महानता की ओर ले जाती है । परोपकार से बढ़कर कोई पुण्य नहीं है । ईश्वर भी प्रकृति के माध्यम से हमें यह दर्शाता है कि परोपकार ही सबसे बड़ा गुण है । सूर्य सबको रोशनी देता है।  नदी का जल दूसरों के लिए है । वृक्ष कभी स्वयं अपना फल नहीं खाता है । इसी प्रकार धरती की सभी उपज दूसरों के लिए होती है । चाहे कितनी ही विषम परिस्थितियाँ क्यों न हों परन्तु ये सभी परोपकार की भावना का कभी परित्याग नहीं करते हैं ।
वे मनुष्य भी महान होते हैं जो विकट से विकट परिस्थितियों में भी स्वयं को दूसरों के लिए, देश की सेवा के लिए अपने आपको बलिदान कर देते हैं ।
परोपकार का अर्थ है दूसरों की भलाई करना। कोई व्यक्ति जीविकोपार्जन के लिए विभिन्न उद्यम करते हुए यदि दूसरे व्यक्तियों और जीवधारियों की भलाई के लिए कुछ प्रयत्‍‌न करता है तो ऐसे प्रयत्‍‌न परोपकार की श्रेणी में आते है। परोपकार के समान कोई धर्म नहीं है। मन, वचन और कर्म से परोपकार की भावना से कार्य करने वाले व्यक्ति संत की श्रेणी में आते है । ऐसे सत्पुरुष जो बिना किसी स्वार्थ के दूसरों पर उपकार करते है वे देवकोटि के अंतर्गत कहे जा सक
भौतिक जगत का प्रत्येक पदार्थ ही नहीं, बल्कि पशु पक्षी भी मनुष्य के उपकार में सदैव लगे रहते है। यही नहीं सूर्य, चंद्र, नक्षत्र, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, फल, फूल आदि मानव कल्याण में लगे रहते है। इनसे मानव को न केवल दूसरे मनुष्यों बल्कि पशु-पक्षियों के प्रति भी उपकार करने की प्रेरणा मिलती है। असहाय लोगों, रोगियों और विकलांगों की सेवा परोपकार के अंतर्गत आने वाले मुख्य कार्य है।

सच्चा परोपकारी वही व्यक्ति है जो प्रतिफल की भावना न रखते हुए परोपकार करता है
श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥ ४० ॥
गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है कि शुभ कर्म करने वालों का न यहां, न परलोक में विनाश होता है। शुभ कर्म करने वाला दुर्गति को प्राप्त नहीं होता है ।
चाणक्य के अनुसार जिन सज्जनों के हृदय में परोपकार की भावना जागृत रहती है, उनकी आपत्तियां दूर हो जाती है और पग-पग पर उन्हे संपत्ति और यश की प्राप्त होती है।
पर एक गंभीर प्रश्न है कि क्या आज आस्था का धंधा करने वाला व्यक्ति इस विकराल वैश्विक महामारी  से कुछ सीख लेगा ? क्या हम धर्म ग्रंथों की मूल शिक्षाओं पर चलने की कोशिश कर रहे हैं ? यदि नहीं तो तो ऐसी वैश्विक महामारी का सामना करने के लिए अपनी जान दांव पर लगाने होंगे ।


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