सुंदर कौन है???
क्या शरीरों का सुंदर होना ही
वास्तविक और श्रेष्ठ सुंदरता है???
तन और मन का साथ चोली और दामन
जैसा है। ये दोनों ही एक-दूसरे के पूरक और पोषक हैं।
मानो एक ही सत्य के दो छोर या एक ही नदी के दो किनारे हों। किंतु प्राय: सारा ध्यान तन की साज-संवार और उसके रखरखाव पर ही
दिया जाता है। ऐसे में मन का शोधन व पोषण पीछे छूट जाता है। उसमें मलिनता आ जाती है और
कालिमा छा जाती है। ऐसे में तन तो सुंदर हो जाता है , किंतु मन
असुंदर रह जाता है।
मन मलीन तन सुंदर कैसे। विष
रस भरे कनक घट जैसे।।
' तुलसीदास जी ने बहुत गहरी
बात कही है यदि मन में मलिनता हो तो भला तन की सुंदरता किस काम की ? क्योंकि वह शरीर तो विष भरे स्वर्ण कलश के समान होगा। सोने के घड़े की
ऊपरी चमक-दमक तभी अच्छी लगती है , जबकि उसमें अमृततुल्य मधुर रस भरा हो।
शरीर का सौंदर्य तभी मायने रखता है , जबकि अंदर से हमारा मन
भी साफ-शुद्ध अर्थात निर्मल हो। सुख , शांति , संतोष और
आनंद के लिए यह आवश्यक है। समय बदला , समाज बदला , संबंध बदले , किंतु तन-मन की सुंदरता के बारे में सोच और विचार
नहीं बदले। आज भी तन के साथ मन की सुंदरता ही सच्ची सुंदरता मानी जाती है। मन का
शोधन , स्वच्छता
व संयम अध्यात्म की पहली सीढ़ी है और उत्थान का मार्ग है। इसके लिए सदा प्रयत्नशील
बने रहना चाहिए। कार्य असंभव नहीं है , किंतु इसके लिए ज्ञान
की आवश्यकता पड़ती है। अपने स्वभाव को बदलना पड़ता है। कुभाव को छोड़कर सुभाव
अपनाना पड़ता है। अपने आचरण को सुंदर , सदाचारी बनाना पड़ता
है , ताकि सतोगुण बढ़े और रजोगुण व तमोगुण दूर हो सकें। यदि
मन शांत और स्थिर है , तो तनाव , कुंठा
, क्रोध और अवसाद जैसे विकार नहीं सताते। अनावश्यक कष्ट और
क्लेश जीवन में नहीं आते। वस्तुत: निर्मल मन के व्यक्ति ही
सच्चिदानंद स्वरूप भगवान को पा सकते हैं। जिसके मन में छल , कपट , वैर ,
द्वेष , घृणा और हिंसा के कुभाव भरे रहते हैं ,
उसके सुकृत नष्ट हो जाते हैं। धन , साधन और
सुविधाओं के बावजूद वह व्यक्ति सुखी नहीं रह पाता और तरह-तरह के दुखों से घिरा रहता है। तन स्थूल
है , अत: दिखाई देता है। किंतु मन परदे के पीछे और
सूक्ष्म रूप में छिपा रहता है।
अत्यंत चंचल गतिमान और शक्तिशाली होने के बावजूद वह दिखाई नहीं देता। वायु , तरंग तथा
गुरुत्वाकर्षण शक्ति की भांति वह होते हुए भी अदृश्य रहता है। इसलिए जरा सी
असावधानी , से उस पर अज्ञान , आलस्य ,
प्रमाद अकर्मण्यता और उदासीनता जैसे मैल की परत चढ़ जाती है। हम तन
को तो धोते और चमकाते रहते हैं , किंतु मन मैला और रोगी होता
चला जाता है। मन के धरातल पर छाई मलिनता के लक्षण अहंकार , स्वार्थ
चोरी , बेईमानी , धूर्तता तथा दुराचार
आदि के रूप में प्रगट होते हैं। परिणाम विनाशकारी होता है। शरीर भी रोगी और जर्जर
हो जाता है तथा असमय ही काल के गाल में चला जाता है। इसीलिए सभी संतों और
महापुरुषों ने मन की स्वच्छता पर जोर दिया है बंधुओं, हमारे
धर्मग्रंथों में सबसे ज्यादा मन को ही साधने की बातें कही गई हैं , ताकि तन और मन में संतुलन बना रहे। भारतीय मनीषियों ने मनसा , वाचा और कर्मणा में पहला स्थान मन को दिया है। यदि मन ठीक है , तो वचन और कर्म भी ठीक हो जाते हैं। मन से ही बोलने व करने की शुरुआत होती
है। यही आधार है। कहते हैं कि जैसा खाएं अन्न , वैसा होवे
मन। अर्थात मेहनत और ईमानदारी की कमाई हो। किसी का हक या जीवों को मार कर खाने की
प्रवृत्ति न हो , पराई पीर का अहसास होता हो तो मन सुंदर
होने लगता है। प्रतिकूल परिस्थितियां भी विचलित नहीं कर पातीं। इसलिए आत्मावलोकन
करना जरूरी है। मन को निर्मल किए बिना श्रद्धा , आस्था और
भक्ति अधूरी है तन जितना घूमता रहे , उतना ही स्वस्थ रहता है , मन जितना स्थिर रहे,
उतना ही शांत रहता है।
हमें यह बात हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि मन का परमात्मा के साथ घनिष्ठ
संबंध है| मन अनंत और अपार शक्तियों का स्वामी है|, मन स्वयं
जगत का रचयिता है, मन के अंदर का संकल्प ही बाह्य जगत में नवीन
आकार ग्रहण करता है, जो कल्पना चित्र अंदर पैदा होता है,
वही बाहर स्थूल रूप में प्रकट होता है, सीधी-सी बात है कि हर विचार पहले मन में ही
उत्पन्न होता है और मनुष्य अपने विचार के आधार पर ही अपना व्यवहार निश्चित करता है, अगर मन में विचार ही न हों तो फिर
क्रियान्वयन कहां से आएगा , शायद इसीलिए कहा गया है कि मन के
जीते जीत है और मन के हारे हार, मन का स्वभाव संकल्प है,
मन के संकल्प के अनुरूप ही जगत का निर्माण होता है, वह जैसा सोचता है, वैसा ही होता है, मन जगत का सुप्त बीज है, संकल्प द्वारा उसे जागृत
किया जाता है, यही बीज, पहाड़, समुद्र, पृथ्वी और नदियों से मुक्त संसार रूपी वृक्ष
उत्पन्न करता है, यही जगत का उत्पादक है, सत्, असत् एवं सदसत् आदि मन के संकल्प हैं मन ही लघु को विभु और विभु को लघु में परिवर्तित
करता रहता है, मन में सृजन की अपार संभावनाएं स्वयं द्वारा
ही निर्मित की हुई हैं, , मन स्वयं ही स्वतंत्रतापूर्वक शरीर
की रचना करता है, देहभाव को धारण करके वह जगत् रूपी
इंद्रजाल बुनता है. इस निर्माण प्रक्रिया में मन
का महत्वपूर्ण योगदान है
मन का चिंतन ही उसका परिणाम है यह जैसा सोचता है और प्रयत्न करता है ,वैसा ही उसका
फल मिलता है मन के चिंतन पर ही संसार के सभी पदार्थों का स्वरूप निर्भर करता है
दृढ़ निश्चयी मन का संकल्प बड़ा बलवान होता है, वह जिन विचारों
में स्थिर हो जाता है, परिस्थितियां वैसी ही विनिर्मित होने
लगती हैं,,, जैसा हमारा विचार होता है, वैसा ही हमारा जगत्, मँथन .....मनमँथन ,,रजतमँथन
मन के सभी संकल्पों-विकल्पों का किसी एक केंद्र पर स्थित हो
जाना एकाग्रता है,,, दीपक
का लौ पर ठहर जाना एकाग्रता है,,, भंवरे का फूल पर फिदा हो
जाना ही एकाग्रता है,,,,,, गीता में अर्जुन ने भी भगवान
श्रीकृष्ण से यही प्रश्न किया कि मन अत्यंत चंचल है, दृढ़ है,
बलवान है, आंधी से भी ज्यादा वेगवान है,,,,
लगातार अभ्यास से हम स्थितप्रज्ञ मन वाले बन सकते हैं,,,स्वयं को एकाग्र कर सकते हैं,,,, दूसरे शब्दों में
लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्धता ही एकाग्रता है,,,,, हमने जो
लक्ष्य जीवन में निर्धारित किया उसके लिए हम मन व प्राणों से समर्पित हों और तब तक
उसमें लगे रहें जब तक कि अभीष्ट की प्राप्ति न हो जाए,,,,, एकाग्रता
के लिए मन पर नियंत्रण आवश्यक है, जो स्वयं एक साधना है,,,
मन को वश में करना इतना आसान भी नहीं है,,,,, हमें
एकाग्र होने के लिए कुछ बातों का विशेष ध्यान देना होगा,,,,,, हम सीधे दसवीं मंजिल पर चढ़ने की बात करें, यह ठीक
नहीं होगा,,, इसके लिए मैं तो कहूंगा कि क्रमश: आगे बढ़ने का प्रयास करें,,,, अभ्यास करते समय अपनी स्थिति उस कछुए
की तरह बनाएं, जिसे मारने पर भी वह अपने हाथ और पैर अंदर
सिकोड़ कर बैठा रहता है, बाहर नहीं निकालता, उसका इंद्रियों पर अद्भूत नियंत्रण होता है,,, साधक
को 'स्व' की चिंता करते हुए यह विशेष
रूप से ध्यान देना चाहिए कि मन को साधते समय उसका चित्त, शांत
व निर्मल हो। बाहर चाहे कितना ही कोलाहल क्यों न हो, समुद्र
का ज्वार ही क्यों न उमड़ आए,,,, बंधुओं, सबसे पहले तन को साधें, तन की एकाग्रता आसन के स्थिर
होने से आएगी,,, प्राणायाम श्वास को एकाग्र करने में मदद
करता है,, एकाग्रता में मौन संजीवनी का काम करता है,,,,
साथ ही विचारों को भी एकाग्र करने का प्रयास करें,सांसों की
लयबद्धता मन की गहराई तक ले जाती है,मन के लयबद्ध होते ही जीवन में एक अनूठी लय बन
जाती है, एकाग्र बुद्धि वाला व्यक्ति हर निर्णय सोच समझकर सटीक लेता है मन रूपी
झील में दुनियादारी का कंकड़ पड़ने से जो हलचल आ गई थी वह भी प्राणायाम से धीरे-धीरे शांत होने लगती है,लगातार प्रयास से कुछ नियमों का पालन
करके व्यक्ति आसानी से एकाग्रता के रथ पर सवार हो सकता है
मनुष्य के शरीर का जो भाग मनन
करता है वही मन कहलाता है. विचार तथा संकल्प की शक्ति मन
में ही होती है। मन माया से निर्मित हुआ है। मन एक ऐसा उपकरण
है जो दिन-रात कार्य करता रहता है। मन
वेगवान घोड़े की तरह भागता है। यदि मनुष्य शरीर तथा इन्द्रियों द्वारा किसी भी
कार्य के न होने पर भी मन की प्रवृत्ति बनी रहती है। मन को कई दार्शनिक छठी
इन्द्रिय भी कहते है। यह छठी इन्द्रिय शेष पांच इन्द्रियों से अधिक
प्रचंड तथा गतिशील है। मन ही इन पांचों इन्द्रियों का चालक है। निद्रा की अवस्था
में सब इन्द्रियों के शांत होने पर, स्वप्नावस्था में इन
पांचों इन्द्रियों का काम मनुष्य का मन ही करता है। स्वप्न में वह खाता, पीता, सूंघता, स्पर्श करता व
देखता है। मन को वश में लाना अति कठिन है। जिसने मन को जीत लिया उसने प्रकृति पर
विजय प्राप्त कर ली। उसके लिये कोई भी कार्य असंभव नहीं मन अति चंचल है इसको वश
में करना अति कठिन है। कठिन होने पर भी असंभव नहीं है। मन की चंचलता को समाप्त
करने का एक ही मार्ग है। इसे संसार से हटा कर मेरी ओर लगा दो। जैसे-जैसे मन संसार से हटने लगेगा। वैसे-वैसे यह मन भगवान में लगने
लगेगा। मन को हटाना अर्थात् मन को दिव्य बनाना है। मन जितना संसार से हटता है उतना
ही प्रभु में लग जाता है। श्रध्दा भक्ति के द्वारा यह कार्य सम्पन्न होता है।
संसार से हटाने का कार्य तथा भगवान में लगाने का कार्य एक साथ होना चाहिये। जब
मनुष्य पूर्णरूप से भगवान की शरणागति स्वीकार करता है तो मन पूर्ण दिव्य बनकर मन
की चंचलता समाप्त हो जाती है। यही मन को स्थिर करने की पध्दति है। तप, तीर्थ,
व्रत तथा दान आदि सात्विक साधनायें हैं जिनसे मन की शुध्दि होती है।
लेकिन पूर्ण स्थिरता तो शरणागति से ही होती है। क्योंकि मन के ऊपर संसार की
त्रिगुणात्मिका माया का आधिपत्य रहता हैं। मन में कभी सतोगुण के तो कभी रजोगुण के
तो कभी तमोगुण के विचार उठते है। फिर बुध्दि निर्णय करती है कि अमुक विचार उचित है
या अनुचित। फिर इन्द्रियां तथा शरीर उस कार्य में प्रवृत हो जाता है। जितनी मात्रा
में मनुष्य साधना द्वारा मन को शुध्द करता है उतनी ही मात्रा में उसके निर्णय भी
सात्विक होते हैं तथा उसके कृत्य भी पुण्य कृत्य होते हैं। रजोगुण तथा तमोगुण के
कार्य तो मन तथा बुध्दि को अंधकारमय बनाते ही हैं सतोगुण भी माया से उत्तीर्ण नहीं
होने देता। क्योंकि सतोगुण और दिव्य गुण में भेद है। जब सतोगुण मनुष्य को निष्काम
बना लेता है तब मनुष्य मन को दिव्य बनाने में सफल होता है। उससे पहले तो माया के
ही आधिपत्य में रहने के कारण मन स्थिर नहीं होता है। बंधुओं, ,,,निष्काम हुये बिना सात्विक कर्म भी बंधन के ही हेतु हैं। सात्विक कर्म का
फल पुण्य है तथा अर्जित किया गया पुण्य मनुष्य को स्वर्ग की प्राप्ति करवाता है।
पुण्य की पूंजी समाप्त होने पर मनुष्य पुन: निम्न लोकों में आ जाता है। इस
प्रकार से जीवन के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता। मन की पूर्ण स्थिरता तथा मन को
दिव्य बनाने के लिये जीवन पर निष्कामता के अंकुश की आवश्यकता है | तन जितना घूमता
रहे , उतना ही स्वस्थ रहता है , मन जितना स्थिर रहे, उतना ही शांत रहता है।
जय श्री कृष्ण