Advertisment1

यह एक धर्मिक और राष्ट्रवादी पत्रिका है जो पाठको के आपसी सहयोग के द्वारा प्रकाशित किया जाता है अपना सहयोग हमारे इस खाते में जमा करने का कष्ट करें | आप का छोटा सहयोग भी हमारे लिए लाखों के बराबर होगा |

बदले बदले से दिन

बदले बदले से दिन

३१ दिसम्बर २०१९ और आज के बीच १०१ दिनों का फासला है ।

अखण्ड कालखण्ड के व्यापक फलक पर इस छोटे से समय का कोई खास मोल नहीं , किन्तु सच्चाई ये है कि इस छोटे से कालखण्ड ने ही पूरी दुनिया की तस्वीर बदल कर रख दी है। ये वो तस्वीर है जिसके सामने खुद को दुनिया का सबसे बड़ा शाहंशाह समझने वाला भी घुटने टेकने को विवश है। जी हाँ,बात-बात में बन्दरघुड़की दिखाने वाले अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प ने भारत से गुजारिश की है कि कोविड 19 से लड़ने वाली अबतक की एकमात्र दवा हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन पर लगी पाबंदी हटा दें और उसकी समुचित सप्लाई करे,ताकि भीषण महामारी का जंग जीता जा सके। 
प्रसंगवश ये बता दूँ कि इस महौषधि का भारत सबसे बड़ा निर्माता है। आगामी पांच-छः महीने तक समुचित सप्लाई की क्षमता रखता है हमारा देश। माननीय प्रधानमन्त्रीजी ने अमेरिका के प्रस्ताव से कुछ घंटे पूर्व ही इस पर से अपना नियंत्रण हटा लिया था और सशर्त सप्लाई का वादा भी किया है। शर्तें ये है कि 1. अपनी आवश्यकता की पूर्ती के बाद ही निर्यात किया जायेगा। 2.सबसे पहले अपने पड़ोसी देशों को निर्यात करेंगे। 3.दुनिया में जहाँ सबसे अधिक इस दवा की आवश्यकता है- उसे प्राथमिकता देंगे।
सर्वेभवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः- के मानक तले लिया गया ये निर्णय अपने आप में स्तुत्य और श्लाघ्य है।
बन्दर डाल पर उछता हुआ गिर जा सकता है, परन्तु विरोधी कभी आलोचना करने से चूक नहीं सकता। अफवाह ये भी है कि अमेरिका के दबाव में आकर ऐसा किया गया है,जबकि भारत का निर्णय कई घंटों पूर्व हो चुका था।
दूसरी ओर मैं यहाँ लाइव हिन्दुस्तान डॉट कॉम के एक खबर को यथावत कोट कर रहा हूँ— “ भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के वैज्ञानिक आर. गंगा केतकर ने कहा, "यह समझने की जरूरत है कि हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन दवा कोरोना मरीजों के लिए जरूरी नहीं है। क्या यह दवा कोविड-19 के संक्रमण को कम करेगा, परीक्षण के बाद ही इसका पता चलेगा। जिनमें कोरोना के लक्षण पाए गए हैं, उनके ऊपर इसका परीक्षण चल रहा है। जब तक हमें संतुष्ट करने लायक नतीजे नहीं मिल जाते, हम किसी को भी यह दवा लेने के लिए नहीं कहेंगे।"
ये दोनों खबरें अपनी जगह पर और हम अपनी जगह पर।
विचारने को विवश हैं कि क्या नये साल ने हमें ऐसा तोहफा दिया है ? सबसे सस्ते आत्याधुनिक उपकरण मुहैया कराने वाले तथाकथित मित्रराष्ट्र ने नववर्ष का ऐसा उपहार भेंट किया जिसे शायद दुनिया कभी भुला ही न पाये। यदि ये मित्र है तो फिर शत्रु की परिभाषा क्या होगी ?
विगत दिनों ने हमें बहुत कुछ सोचने-विचारने और करने-अपनाने को विवश किया है। दकियानूसी मनुवादी विचारधारा कहकर जिस छूआछूत और सामाजिक दूरी को हम कोसते आरहे थे,आज उसे ही स्वीकार-अंगीकार करने में अपना, अपने परिवार और समाज की भलाई दीख रहा है।
ध्यान देने की बात है कि वर्ण-विभेद और छूआछूत को हमने गलत ढंग से परिभाषित किया । मन्वादि ऋषियों के विचारों को तोड़-मरोड़ कर समाज के सामने परोसा ।

समाजवाद और साम्यवाद भला हम भारतीयों को कहीं और से सीखने-जानने की जरुरत है? महाभारत कहता है कि पक्वान का सुगन्ध जहाँ तक जाए,वहाँ तक के जीव उसके भक्षण के अधिकारी हैं।
क्या इस ‘ वाद ’ पर किसीने सोचा-विचारा?
आस्तीन में छूरा छिपाये हैं ,गले मिलने को आतुर- क्या यही समाजवाद है?
देह रगड़कर चलने, बन्दरों की तरह उछल-कूद कर हाथ में प्लेट लिए डीनर काउण्टरों पर धकियाते बफेडीनरी सभ्यता में जूठा खाने और कैवरे अटेन्ड करने, जिस किसी के साथ हमविस्तर होने की खुली छूट—क्या यही समाजवाद है?
क्या अब भी चेतेंगे हम ? क्या अब भी समझेंगे हम अपनी परम्परा को अपने रीति-रिवाजों को?
ये क्यों नहीं समझ आता कि घी के दीए की लौ में,शंख-धंटे की ध्वनितरंगों में,देवदार-गुग्गुल के धूंए में वो ताकत है, जो किसी भी महामारी को ध्वस्त कर सकता है।
क्यों हम हवनकुण्ड के निष्कलुष धूम,गाड़ियों के साइलेन्सर और चिमनियों के धूएं को एक ही कार्बनिक खांचे में डाल देते हैं?
डार्विनविकासवादियों को भले ही समझने में चूक हुयी हो, किन्तु काश्यपी सृष्टिवादी कैसे चूक गए—सोचने वाली बात है।
अभी आप घरों में बन्द हैं। कह नहीं सकता कब तक बन्द रहना पड़ेगा । बड़ा ही अच्छा मौका है आत्मचिन्तन का, आत्ममन्थन का और गलतियों को सुधारने का भी। आइये हमसब मिल कर सोंचे। सर्वेभद्राणिपश्यन्तु । अस्तु।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ