"जो नहीं जाते"
पंकज शर्मावो जो बीत जाते हैं—
समय की रेल में चढ़कर
कथित अतीत कहलाने लगते हैं,
काग़ज़ों पर दर्ज तारीख़ों-से,
उन्हें कहा जाता है—
“भुला दो।”
पर स्मृति कोई आदेशपत्र नहीं
कि हस्ताक्षर होते ही
अस्तित्व से बाहर हो जाए।
वे लौटते नहीं,
फिर भी जाते नहीं।
मन की गलियों में
चुपचाप टिके रहते हैं—
दीवारों पर उग आई दरारों की तरह,
जो बताती हैं
कि इमारत अभी खड़ी है
पर अडिग नहीं।
कभी वे प्रश्न बनकर उभरते हैं—
रात की एकाएक खुली आँखों में,
“अगर ऐसा न होता तो?”
और यह अगर
इतिहास से अधिक खतरनाक होता है,
क्योंकि इसका कोई
समाधि-लेख नहीं होता।
वे अपराध-बोध बन जाते हैं—
उन शब्दों के लिए
जो कहे नहीं गए,
उन मौनों के लिए
जो बोल सकते थे,
और उन समझौतों के लिए
जिन्हें हमने
परिस्थिति कहकर स्वीकार लिया।
कुछ बीते हुए लोग
विचार बन जाते हैं—
हमारी धमनियों में बहती
अनदेखी वैचारिक धारा,
जो तय करती है
कि हम अन्याय पर चुप रहेंगे
या चीख़ेंगे,
कि हम झुकेंगे
या टूटकर भी खड़े रहेंगे।
समय कहता है—
सब भर जाता है।
पर वह यह नहीं बताता
कि कुछ घाव
भरने के बाद
अंदर सड़ते रहते हैं,
और सड़न की गंध
सिर्फ़ आत्मा पहचानती है।
वे जो बीत गए—
वे हमारे वर्तमान के
गुप्त सह-लेखक हैं।
हम जो भी लिखते हैं—
निर्णय, संबंध, संघर्ष—
उनकी स्याही में
उनकी छाया
अनिवार्य रूप से मिली होती है।
इसलिए वे आसानी से
भुलाए नहीं जाते।
क्योंकि वे सिर्फ़ स्मृति नहीं—
वे चेतना हैं,
और चेतना से मुक्ति
संन्यास से नहीं,
साहसिक आत्मस्वीकृति से मिलती है।
वो जो बीत जाते हैं,
असल में कहीं जाते नहीं—
वे हमारे होने की
अदृश्य संरचना में
चुपचाप
हम बनकर
जीते रहते हैं।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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