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"जागरण"

"जागरण"

​ पंकज शर्मा
कई युगों तक
मैं अपने ही भीतर
नींद का निर्वासन भोगता रहा,
सचेत होते हुए भी
अस्मरण में डूबा हुआ।


फिर किसी क्षण—
न शंखनाद, न उद्घोष,
केवल चेतना की एक चिंगारी
और अस्तित्व ने
आँख खोल ली।


मेरे उठ खड़े होने से
धरती नहीं काँपी,
पर जो मुझे मिटा हुआ मान बैठे थे
उनकी धारणाएँ
डगमगा गईं।


यह रण
केवल बाहुबल का नहीं,
यह स्मृति और विस्मृति के बीच
खींची गई
अंतिम रेखा है।


शत्रु बाहर नहीं,
वे वह स्वर हैं
जो वर्षों से कहते रहे—
“अब बहुत देर हो चुकी है।”


आज मैं आया हूँ
हथियार लेकर नहीं,
अपनी जागी हुई आत्मा के साथ—
और यही
सबसे निर्णायक उपस्थिति है।


मेरे कदमों में अब
संकोच की धूल नहीं,
जो खोया था
वह पछतावे की वस्तु नहीं,
अनुभव की पूँजी है।


मैं जानता हूँ—
यह जागरण सरल नहीं,
नींद का मोह
बार-बार बुलाएगा,
पर दृष्टि अब
अंधेरे से समझौता नहीं करेगी।


यह युद्ध
किसी विजय-घोषणा के लिए नहीं,
यह स्वयं को
अपने ही समक्ष
सिद्ध करने की साधना है।


यदि मैं गिरूँ भी
तो वह पतन नहीं होगा,
वह धरती को
फिर से स्पर्श करने की
एक सजग चेष्टा होगी।


क्योंकि जो एक बार
जाग चुका होता है,
उसकी पराजय
नींद नहीं बन पाती—
केवल एक विराम होती है।


और इस रणभूमि में
मेरी सबसे बड़ी ढाल यही है—
कि अब मैं
स्वयं से छिपा हुआ
नहीं हूँ।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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