पूरे देश से संवाद और एकता के लिए हिन्दी का प्रसार आवश्यक : राज्यपाल

- साहित्य सम्मेलन के दो दिवसीय ४४ वें महाधिवेशन का हुआ उद्घाटन,
- सम्मेलन की उच्च उपाधि 'विद्या वारिधि' से सम्मानित हुए आरिफ़ मोहम्मद खान,
- वरिष्ठ लेखिका किरण सिंह, ए आर आज़ाद तथा जंग बहादुर पाण्डेय की पुस्तकों और 'सम्मेलन साहित्य' के महाधिवेशन विशेषांक का हुआ लोकार्पण, सम्मानित हुए साहित्यकार, संध्या में आयोजित हुआ भव्य सांस्कृतिक कार्यक्रम

पटना, २० दिसम्बर। देश में सभी भारतीय भाषाओं की ऊन्नति हो यह आवश्यक है, किंतु एक स्वतंत्र राष्ट्र के लिए आवश्यक है कि देश की एक भाषा को इस तरह अवश्य विकसित किया जाए, जिसमें पूरा देश संवाद कर सके और इस हेतु उसे किसी विदेशी भाषा पर निर्भर न रहना पड़े । हिन्दी यह कार्य कर रही है। इसमें देश की संवेदनाएँ और करुणा की अभिव्यक्ति होती है। दक्षिण भारत में लोग हिन्दी इस प्रकार सीख रहे हैं, जैसे कि वे राष्ट्रीय-आंदोलान में भाग ले रहे हों। हिन्दी को वे राष्ट्रीयता की भावना से देखते हैं। दक्षिण में हिन्दी का विरोध नहीं है। किसी किसी स्थान पर हिन्दी प्रचार के तरीक़े पर भले विरोध हो सकता है।
यह बातें शनिवार को, सिख पंथ के नवम गुरु और बलिदानी संत, गुरु तेग बहादुर के बलिदान के ३५० वें वर्ष को समर्पित, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के दो दिवसीय ४४ वें महाधिवेशन का उद्घाटन करते हुए, बिहार के राज्यपाल आरिफ़ मोहम्मद खान ने कही। उन्होंने कहा कि गुरु तेग बहादुर महान बलिदानी संत थे। उनका बलिदान आत्म-रक्षा के अधिकार के सरक्षण के लिए दुनिया के समक्ष रखा गया एक आदर्श है। अस्मिता, विचारों की स्वतंत्रता और मानवाधिकार की रक्षा भी आत्म-रक्षा के सिद्धांत के अंतर्गत ही है। दुनिया में हर देश का क़ानून'आत्म-रक्षा के सिद्धांत' की सुरक्षा सुनिश्चित करता है। भारतवर्ष गुरु तेग बहादुर के प्रति उनके महान बलिदान के लिए सदा कृतज्ञ रहेगा।
राज्यपाल ने कहा कि भाषा के प्रति भारत का दृष्टिकोण आदि काल से समावेशी और श्रद्धापूर्ण रहा है। हमारे ऋषिगण यह कहते आएँ हैं कि ज्ञान की समृद्धि के लिए अधिक से अधिक भाषाओं का ज्ञान लाभकारी है। ज्ञान के विस्तार के लिए और ज्ञानार्जन के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अधिक से अधिक भाषाएँ जाननी चाहिए। 'भाषा' तो साक्षात सरस्वती है। इसके विना संवाद और ज्ञान का विकास संभव ही नहीं है। ज्ञान से विवेक, संवेदना और करुणा की प्राप्ति होती है। डा राधा कृष्णन कहा करते थे कि यदि हम मूल्यवान और सम्मान जनक जीवन चाहते हैं तो अपने भीतर संवेदना और करुणा को विशेष स्थान देना होगा। करुणा से प्रेरित जो कर्म है, वही आनन्ददायी है।
अपने अध्यक्षीय संबोधन में सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कहा कि हिन्दी देश की आत्मा है। भारत की सुंदरतम अभिव्यक्ति इसी भाषा में हो सकती है। यह सभी भारतीय भाषाओं से प्रेम करती है। सबका सम्मान करती है। यह केवल पूरे देश को ही नहीं, देश की समस्त भाषाओं को भी एक दूसरे से जोड़ेगी। देश के लोग चाहते हैं कि यह देश की राष्ट्रभाषा बने। शासन को चाहिए कि जनाकांक्षा पूरी करे।
डा सुलभ ने राज्यपाल को सम्मेलन की उच्च मानद उपाधि 'विद्या वारिधि' से विभूषित किया। इस अवसर पर राज्यपाल ने वरिष्ठ लेखिका किरण सिंह की पुस्तक 'ऋषि', कवि-पत्रकार ए आर आज़ाद की दो काव्य-पुस्तकें 'नदी' और रुएजमीं' तथा सियाराम जायसवाल के प्रकाशन संस्थान ह्वाइट बेकन पब्लिकेशन द्वारा प्रकाशित डा जंग बहादुर पाण्डेय की पुस्तक 'वारिधि' और सम्मेलन की पत्रिका 'सम्मेलन साहित्य' के महाधिवेशन विशेषांक का लोकार्पण भी किया। उन्होंने मौरिशस की सुविख्यात विदुषी डा सरिता बुधु और केंद्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा के निदेशक डा सुनील बाबूराव कुलकर्णी समेत देश के २१ सुख्यात हिन्दी-सेवियों को विविध अलंकरणों से सम्मानित किया।
समारोह के मुख्य अतिथि और सिक्किम के पूर्व राज्यपाल गंगा प्रसाद ने कहा कि हिन्दी पूरे देश में ही नहीं विश्व के अनेक देशों में बहुत तेज़ी से बढ़ रही है। हम सभी को मिलकर इसे और अधिक शक्ति देनी चाहिए, जिससे कि यह देश भर के लोगों के मन की भाषा बन जाए।
आरंभ में अतिथियों का स्वागत करते हुए, महाधिवेशन के स्वागताध्यक्ष, विधायक और सुप्रसिद्ध नेत्र-रोग विशेषज्ञ डा राज वर्धन आज़ाद ने सम्मेलन के गौरवशाली इतिहास का स्मरण किया और कहा कि वर्तमान अध्यक्ष के कार्यकाल में इसके गौरव में वृद्धि हो रही है। धन्यवाद-ज्ञापन सम्मेलन की उपाध्यक्ष डा मधु वर्मा ने तथा मंच-संचालन सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद ने किया। इस सत्र के संयोजक थे कुमार अनुपम ।
प्रथम वैचारिक सत्र
उद्घाटन-समारोह के बाद सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा उपेन्द्रनाथ पाण्डेय की अध्यक्षता में, महाधिवेशन का प्रथम वैचारिक सत्र आरंभ हुआ, जिसका विषय 'गुरु तेग बहादुर का सांस्कृतिक और साहित्यिक अवदान" रखा गया था। मुख्य वक्ता ज्ञानी दलजीत सिंह ने कहा कि गुरु महाराज ने भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए अपना सिर दे दिया, पर सिर झुकने नहीं दिया। उनका बलिदान बेमिसाल है।
ग्रंथी सरदार दिलीप सिंह, राँची विश्वविद्यालय के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष डा जंग बहादुर पाण्डेय, पद्मश्री विमल जैन तथा आनन्द मोहन झा ने भी अपने विचार व्यक्त किए। अतिथियों का स्वागत सम्मेलन की कला मंत्री डा पल्लवी विश्वास ने तथा सत्र का संचालन डा ध्रुव कुमार ने किया। इस सत्र की संयोजक थी कवयित्री लता प्रासर।
दूसरा वैचारिक सत्र
भोजनावकाश के पश्चात दूसरा सत्र आरंभ हुआ, जिसका विषय था 'हिन्दी कथा साहित्य में बिहार का योगदान'। सत्र का उद्घाटन करते हुए केंद्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा के निदेशक डा सुनील बाबूराव कुलकर्णी ने बिहार के कथाकारों को श्रद्धापूर्वक स्मरण किया और बिहार के योगदान की प्रशंसा की।
सत्राध्यक्ष डा उपेंद्रनाथ पाण्डेय ने कहा कि कथा-साहित्य में बिहार का योगदान इसलिए सबसे महत्त्वपूर्ण इसलिए है कि देश के किसी भी साहित्यकार ने वह कार्य नहीं किया, जो बिहार ने किया। कथा और कहानी उसी की पढ़ी जाएगी, जिसमें कथा-वस्तु उस स्तर की हो। किताबों की संख्या बढ़ा देने से कोई बड़ा कथाकार नहीं हो सकता।
इस सत्र में सम्मेलन की उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद, डा मधु वर्मा, भगवती प्रसाद द्विवेदी, किरण सिंह तथा डा भावना शेखर ने अपने विचार व्यक्त किए। मंच का संचालन सागरिका राय ने तथा धन्यवाद-ज्ञापन डा पुष्पा जमुआर ने किया। सत्र के संयोजक थे डा मनोज गोवर्धनपुरी ।
तीसरा वैचारिक-सत्र
आकाशवाणी, पटना के पूर्व सहायक निदेशक और साहित्यकार डा किशोर सिन्हा की अध्यक्षता में तीसरा वैचारिक सत्र आयोजित हुआ जिसका विषय था 'हिन्दी में विज्ञान साहित्य'। सुप्रसिद्ध विज्ञान-कथा लेखक डा रमेश पाठक ने विषय प्रवेश किया।
मुख्य वक्ता और पटना विश्व विद्यालय में भौतक-शास्त्र के पूर्व प्राध्यापक डा नरेंद्रनाथ पाण्डेय, डा मेहता नगेंद्र सिंह, डा उपेन्द्रनाथ पाण्डेय, ईं अशोक कुमार ने भी अपने विचार व्यक्त किए। सत्र का संचालन सम्मेलन की संगठन मंत्री डा शालिनी पाण्डेय ने किया। इस सत्र की संयोजक थी स्वागत समिति की महासचिव डा रेखा भारती।
चतुर्थ वैचारिक सत्र
गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो राम दरश राय की अध्यक्षता में महाधिवेशन का चौथा वैचारिक-सत्र आयोजित हुआ, जिसका विषय था "आधुनिकता और नयी कविता"। कविता के बदलते तेवर पर इस सत्र में गम्भीर चिंतन हुआ।
वरिष्ठ कवि डा रत्नेश्वर सिंह, डा सुमेधा पाठक, आचार्य विजय गुंजन तथा डा पूनम आनन्द ने भी अपने विचार व्यक्त किए। मंच का संचालन लता प्रासर ने किया। संयोजक थीं डा नीतू सिंह ।
सांस्कृतिक कार्यक्रम
आज के चारों वैचारिक सत्रों के बाद संध्या में, सम्मेलन के कला-विभाग द्वारा अतिथियों एवं प्रतिनिधियों के सम्मान में एक भव्य सांस्कृतिक-कार्यक्रम भी प्रस्तुत किया गया। सबसे पहले गुरु तेग बहादुर के जीवन पर गीत-नाटिका 'हिन्द की चादर' की प्रस्तुति हुई, जिसका निर्देशन आयुर्मान यास्क ने किया। इसके पश्चात हिन्दी के अत्यंत लोकप्रिय गजलकार दुष्यंत की ग़ज़लों का गायन डा शंकर प्रसाद ने किया, जिसका शीर्षक था 'जिसे मैं ओढ़ता बिछाता हूँ'। तीसरी प्रस्तुति महाकवि काशीनाथ पाण्डेय विरचित नृत्य-नाटिका 'कृष्ण-राधायण' की हुई, जिसका निर्देशन डा पल्लवी विश्वास ने तथा संगीत-निर्देशन पं अविनय काशीनाथ ने किया। अंतिम प्रस्तुति मुंबई की सुप्रसिद्ध नृत्यांगना डा अनु के मनोहारी कत्थक नृत्य के रूप में हुई। इन प्रस्तुतियों ने सभी प्रतिनिधियों के मन का पर्याप्त रंजन किया, जिसका प्रमाण निरन्तर हो रही तालियों की गड़गड़ाहट थी।
आज सम्मानित होने वाले विद्वानों और विदुषियों में डा दिनेश शर्मा (अलीगढ़), डा अवधेश कुमार (वर्धा), डा देवेन्द्र देव मिर्जापुरी, डा लता चौहान (बेंगलुरू), रचना सरन ( कोलकाता), डा मनोज कुमार झा (पटना), बेबी कारफ़रमा ( कोलकाता), डा अजय कुमार ओझा (दिल्ली), डा शिवानन्द शुक्ल ( राय बरेली), रंजीता सिंह (देहरादून), ज्योति स्वरूप अग्निहोत्री (फर्रुखाबाद), डा आरती सिंह ( गोरखपुर), सुलेखा झा (अररिया), ईश्वरचन्द्र विद्यावाचस्पति ( संत कबीर नगर), डा राम दरश राय (गोरखपुर), डा वीणा मेदिनी (बेंगलुरु), अनामिका चक्रवर्ती, विनय पंवार (गुरुग्राम) तथा डा राम कुमार झा “निकुंज” के नाम सम्मिलित हैं।
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