"गुनगुनी धूप"
पूस की शाम में
गुनगुनाता पथिक,
शीत थम जा ज़रा
पीर बढ़ती अधिक।
चुप पखेरू विकल
पेड़ की डाल पर,
हैं चकित जानवर
ठंड की चाल पर।
जिद्द पर है अड़ी
ढीठ पछुआ हवा,
वाण ऐसी चलाती
न मिलती दवा।
धूप छलिया बनी
छिप गयी है कहीं,
आश थोड़ी बची
फिर भी दिखती नहीं।
आज अहले सुबह
आ गयी धूप है,
कह रही है लता
क्या सुघर रूप है!
बाग उपवन मगन
झूमते गाछ सब,
दिन सुखद है बना
चैन मिलता है अब।© रजनीकांत।
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