नौकरी पेशा के लिए शहर में बसने का खामियाजा
जय प्रकाश कुवंर
यह जो नीचे खंडहरनुमा भवन दिखाई पड़ रहा है वह मेरे बुजुर्गों द्वारा बनवाया गया मेरे गाँव में मेरा दालान है। इसका उपयोग पिछले लगभग ८० वर्षों तक परिवार के पुरुषों के लिए बैठने, सोने का जगह एवं उनका आरामगाह,बैठकखाना , सभास्थल तथा छोटे मोटे आयोजनों के लिए किया जाता था। हमनें अपने बचपन के स्कूल के दिनों की पढ़ाई लिखाई स्कूल के अलावा इसी दालान में की है। इसी दालान में रहकर मैट्रिक तक की पढ़ाई पुरा करने के बाद ही मैं भी शहर में निकला था। परिवार के सभी पुरुष बुजुर्ग लोग यानि हमारे दादा, पिता तथा हमारे स्तर तक एक एक कर हर पीढ़ी के लोग शहर के तरफ निकलते गये और अपनी अपनी आयु पुरा कर गुजरते गए। परिवार में अगली पीढ़ी के नवयुवकों के अलावा परिवार का मैं अंतिम जीवित बुजुर्ग हूँ जो अभी इस खंडहरनुमा दालान भवन का साक्षी हूँ और इसको देख कर गमगीन हो जाता हूँ। गाँव पर मेरे परिवार के कुछ अन्य सदस्य जो मेरे जैसे ही कभी कभी आते रहते हैं, इन सबके लिए यह अब त्यक्त भवन बन गया है। मैं भी गांव छोड़ शहर में ही अपनी अगली पीढ़ी के साथ रह रहा हूँ। बुजुर्गों की इतनी भब्य कीर्ति यह दालान भवन किसी के नहीं रहने, हर समय ताला लगे रहने और देख रेख के अभाव में आज खंडहर हो गया है और हम लोगों को गांव छोड़ शहर में निवास करने पर चिढ़ा रहा है। जय प्रकाश कुवंर
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