बिहार चुनाव में कल्पना से काल्पनिकता तक - “मीडिया की भूमिका”
जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 03 दिसम्बर ::
मानव मस्तिष्क की सबसे अद्भुत क्षमताओं में से एक है कल्पना (Imagination)। यही कल्पना नए विचार देती है, नए आविष्कारों के लिए प्रेरित करती है और असंभव को संभव बनाने की शक्ति प्रदान करती है। किंतु जब यही कल्पना अपने मूल स्वरूप से हटकर ऐसी दिशा में बढ़ती है, जहाँ अस्तित्वहीन को सत्य साबित करने का प्रयास होने लगे, तब वह कल्पना नहीं रहती है बल्कि वह बन जाती है काल्पनिकता (Hypothetical Reality)।
समस्या तब विकराल रूप धारण करती है जब व्यक्ति की कल्पनाओं को समाज पर थोपा जाने लगता है, जब निजी धारणा को सार्वभौमिक सत्य बताने की कोशिश होती है और आज यह भूमिका किसी व्यक्ति की नहीं, बल्कि पूरे मीडिया तंत्र और सोशल मीडिया इकोसिस्टम की बन चुकी है।
विशेषकर बिहार की राजनीति, जहाँ चुनाव परिणाम से लेकर सरकार गठन, गठबंधन समीकरण, मुख्यमंत्री पद, मंत्रिमंडल, गृह विभाग, पार्टी अध्यक्ष पद, हर चीज का “सत्य” पहले मीडिया गढ़ता है, फिर जनता उस गढ़े हुए सत्य को सच मानने को विवश हो जाती है।
कल्पना वह शक्ति है जिसके माध्यम से मनुष्य कुछ नया सोचता है, बनाता है और दुनिया को बदलता है। कल्पना रचनात्मक होती है। इसका आधार तर्क और संभावना होती है और इससे नवाचार जन्म लेता है। जब कोई वैज्ञानिक रॉकेट की कल्पना करता है, कार की, मोबाइल की, तो वह कल्पना भविष्य की वास्तविकता बन सकती है।
काल्पनिकता वह है जहाँ व्यक्ति की मनःस्थिति ऐसी अवधारणा गढ़ती है जिसका कोई तथ्यात्मक आधार नहीं होता है। यह भ्रम पर आधारित होती है। इसे “अस्तित्वहीन की मान्य वास्तविकता” भी कहा जा सकता है। इसमें रचनात्मकता नहीं, बल्कि मिथ्या विस्तार होता है।
जब कल्पना को तथ्य की तरह प्रस्तुत किया जाए, जब काल्पनिक विश्लेषण को खबर की तरह बेचा जाए, जब गठित कथाएँ वास्तविकता से अधिक प्रभावी बन जाएँ, तब समाज भ्रमित होने लगता है। आज सोशल मीडिया और स्थापित मीडिया दोनों मिलकर इसी “काल्पनिक वास्तविकता” का विस्तार कर रहा है।
समाचार चैनलों की मूल भूमिका थी तथ्य बताना, सही विश्लेषण करना और जांच-पड़ताल करना। लेकिन आज टीआरपी के दबाव, राजनीतिक सरंक्षण, विज्ञापन मॉडल और चैनलों की वैचारिक निष्ठाएँ, इन सभी के मिलाजुला परिणाम यह है कि कल्पनाओं को भी “ब्रेकिंग न्यूज” बनाया जा रहा है।
सोशल मीडिया पूर्णतः बिना नियंत्रण के एक ऐसा अखाड़ा बन चुका है जहाँ कोई भी समाचार बना सकता है। कोई भी कथा गढ़ सकता है। कोई भी अफवाह को सत्य साबित कर सकता है। भीड़ उसे आगे बढ़ा सकती है। यहीं से काल्पनिकता का एक विशाल जाल बुनना शुरू होता है। जब कोई अफवाह ट्रेंड बनती है, तो मुख्यधारा मीडिया उसे उठाती है और फिर उसे “मान्य सत्य” बना दिया जाता है। यह प्रक्रिया इतनी तेजी से होती है कि सच्चाई पीछे छूट जाता है।
बिहार की राजनीति को भारत में सबसे जटिल और सबसे अनिश्चित माना जाता है। ऐसे में मीडिया की भूमिका और अधिक जिम्मेदार होनी चाहिए थी, लेकिन हुआ उल्टा। मतदान समाप्त भी नहीं हुआ था कि चैनलों पर काल्पनिक एग्जिट पोल, सोशल मीडिया पर काल्पनिक दल-बदल, राजनीतिक रणनीति के काल्पनिक ग्राफ, नेताओं के भविष्य की काल्पनिक भविष्यवाणियाँ, यह सब एक ऐसे “फ्रेम” की रचना कर रहा था जिसका वास्तविकता से दूर-दूर तक संबंध नहीं था।
जहाँ पार्टी के भीतर सामान्य मतभेद थे, उसे इस तरह दिखाया गया जैसे गठबंधन टूटने वाला है। ट्वीट को विवाद बताया गया। बयान को विद्रोह बताया गया। सामान्य मतभेद को गृहयुद्ध बताया गया और लोग इस काल्पनिकता को गंभीरता से लेने लगे। मीडिया ने रोज नए नाम दिए, फलाँ बनेगा सीएम, नहीं, अब यह बनेगा, अब तीसरा विकल्प, अब विधायकों की लिस्ट और अब राष्ट्रपति शासन, आखिर यह सब क्या था? महज कल्पना को काल्पनिकता में बदलकर जनता को बेचना। यहाँ तक कहा जाने लगा कि फलाँ विभाग बदल गया, जबकि शपथ भी नहीं हुई थी! सोशल मीडिया पर फर्जी नोटिफिकेशन चलाए गए, मीडिया ने उसे मुद्दा बनाया। अगर नेता थोड़ा भी अपरिपक्व होते, तो यह काल्पनिक माहौल वास्तविक राजनीतिक संकट में बदल सकता था।
जब बार-बार एक बात कही जाती है, तो चाहे वह झूठ ही क्यों ना हो, जनमानस उसे सच मानने लगता है। इसे कहते हैं Perception Engineering। जब मीडिया किसी नेता की छवि गढ़ देता है कि ‘ये सीएम बनना चाहिए’, ‘इसने बगावत की’, ‘यह गुट टूट चुका है’, तो नेताओं पर भी एक मनोवैज्ञानिक दबाव बनता है। नोम चोम्स्की का यह सिद्धांत बिहार की राजनीति पर पूरा लागू हुआ। मीडिया पहले माहौल बनाता है, फिर जनता की प्रतिक्रिया ली जाती है, फिर उसे ही बहुमत की आवाज कहा जाता है।
यहाँ यह स्वीकार करना होगा कि बिहार के प्रमुख नेताओं ने शांति, धैर्य और परिपक्वता दिखाई। वरना अविश्वास मत की नौबत आ सकती थी। गठबंधन टूट सकता था। दो-दो मुख्यमंत्री दावेदार सामने आ सकते थे। राज्य में अस्थिरता फैल सकती थी। काल्पनिकता को यहीं वास्तविकता बनने से रोका गया।
राजनीति में मीडिया पहले माहौल बनाता है, फिर उस माहौल को ही ‘राजनीतिक सूत्रों का हवाला’ देकर पेश करता है।
‘वर्चस्व’ की कहानी को मीडिया ने कई बार गढ़ा कि कौन पार्टी बड़ी? किसका दबाव अधिक? किस मंत्री को कितना भार? कौन किसका कर्जदार? इन बातों से कोई तथ्य नहीं मिलता, लेकिन जनता का मनोविज्ञान प्रभावित होता है। मीडिया इसे मसाले की तरह इस्तेमाल करता है। दल-बदल की अफवाह। मंत्री बदलने की अफवाह। पार्टी टूटने की अफवाह। जबकि वास्तविक राजनीति इतनी सरल नहीं होती है।
जनता अब काम नहीं देखती, मीडिया का बनाया नरेटिव देखती है। क्योंकि हर निर्णय का काल्पनिक विश्लेषण सामने आ जाता है। क्योंकि छोटी-छोटी बातों को मीडिया आपसी संघर्ष की तरह दर्शाता है। बेरोज़गारी, विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, उद्योग इन मुद्दों की जगह कल्पित कहानियाँ चर्चा में रहती हैं।
जनता को सिखाना होगा कि खबर और अफवाह में अंतर कैसे पहचाना जाए। हर चैनल के लिए स्वतंत्र फैक्ट चेकर्स होने चाहिए। ताकि टीआरपी के नाम पर काल्पनिकता न परोसी जा सके। वे भी अफवाहों पर प्रतिक्रिया देने के बजाय अपनी आधिकारिक जानकारी दें। हर “ब्रेकिंग न्यूज़” सत्य नहीं होती। कल्पना मानवता की देन है, लेकिन काल्पनिकता समाज के लिए अभिशाप बन सकता है, यदि उसे सत्य की तरह स्वीकार कर लिया जाए।बिहार की राजनीति इसका ताजा उदाहरण है।
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