"दस्तक के बाद का समय"
पंकज शर्मादरवाज़े पर जो बजा
वह हाथ नहीं था—
समय की हड्डियों में गूंजती
एक अनाम आहट थी।
मैंने पलटकर देखा
तो सामने कोई आकृति नहीं,
केवल प्रश्न खड़ा था—
क्या तुम तैयार हो?
मैंने कहा—
तैयारी शब्दों में नहीं होती,
वह तो जीवन के भीतर
धीरे-धीरे उगती है।
मेरे भीतर अभी
बीजों में हरियाली है,
और जड़ों को
मिट्टी से संवाद करना शेष है।
उसने हँसकर नहीं,
निर्लिप्त होकर कहा—
हँसी तो केवल मनुष्यों का भ्रम है,
मुझे न आरंभ से सरोकार
न पूर्णता से।
अधूरापन भी
मेरे लिए उतना ही संपूर्ण है
जितना पूर्ण विराम।
मैंने अपने पक्ष में
जीवन को खड़ा किया—
अभी किसी का हाथ
हथेली में पूरी तरह आया नहीं,
अभी किसी स्वप्न ने
आँखों की भाषा सीखी नहीं।
जो जिया ही नहीं
वह कैसे विदा हो सकता है?
उसने उत्तर नहीं दिया,
केवल आईने की तरह
मेरे भीतर झाँका।
वहाँ भय नहीं था—
केवल जल्दबाज़ी का संकेत,
जैसे कोई कह रहा हो
कि समय तुम्हारा शत्रु नहीं,
पर वह प्रतीक्षा भी नहीं करता।
तभी आँख खुली—
कमरा था, साँस थी,
धड़कन अपने क्रम में थी।
मृत्यु नहीं थी
पर उसकी छाया थी—
एक चेतावनी
कि टालने का अधिकार
अनंत नहीं होता।
तब समझ आया—
मृत्यु आमंत्रण नहीं,
समय की अंतिम सूचना है।
जीना विलंब नहीं,
उत्तरदायित्व है।
जो स्वप्न टाले जाते हैं
वे ही सबसे पहले
मृत्यु की सूची में लिखे जाते हैं।
अब मैं जीऊँगा—
पूरे विस्तार के साथ,
ताकि जब फिर वही
मौन दस्तक दे,
तो कोई बहस न हो।
मैं कह सकूँ—
हाँ, मैंने जीवन को
पूरा सुना है,
अब चल सकता हूँ
उसके पार।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️
(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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