गया जी की गलियाँ
डॉ सच्चिदानन्द प्रेमी
गया जी की धड़कन को महसूस करना हो, तो यहाँ की गलियों में उतरना पड़ेगा। यहाँ की गलियाँ, विशेषकर विष्णुपाद, अंदर गया, शहर और चौक क्षेत्र की गलियाँ इतनी सँकरी हैं कि कभी-कभी दो साइकिलें भी मुश्किल से निकल पाती हैं, लेकिन इन्हीं गलियों में पूरा शहर समाया हुआ है। इन रास्तों पर चलते हुए एक साथ कई युगों का एहसास होगा।
गया जी की गलियाँ केवल सड़कें या रास्ते नहीं हैं; ये 'इतिहास की नसें' हैं जिनमें सदियों पुरानी परंपरा, आस्था और जीवन का रक्त दौड़ता है। बनारस की गलियों की तरह, गया की गलियों का भी अपना एक अलग मिजाज, एक अलग ही 'चरित्र' है।
विष्णुपद मंदिर के आसपास का क्षेत्र, जिसे स्थानीय लोग 'अंदर गया' या 'गयाधाम' कहते हैं, वह गयाजी की आत्मा है।यहाँ की गलियाँ इतनी संकरी और पेचीदा
यानी भूल-भुलैया: हैं कि सूरज की किरणें भी यहाँ पूछ कर प्रवेश करती हैं। इन गलियों में एक अलग ही प्रकार का कोलाहल है—मंदिरों की घंटियों की टन-टन, पूजा की सामग्री बेचते दुकानदारों की आवाजें, पंडे-पुजारियों के मंत्रोच्चार, और बीच-बीच में रास्ता मांगती गायें। यहाँ की गलियाँ कभी सोती नहीं हैं। पुरानी हवेलियों के झरोखे आज भी इन रास्तों पर झुकते हैं ।दोनों तरफ पुराने, ईंटों और लकड़ी के नक्काशीदार मकान एक-दूसरे से गले मिलते प्रतीत होते हैं।
इन गलियों में आस्था का कोलाहल है ।हर समय "पिंड पारियों" (पिंडदान कराने वाले) पंडों की आवाज़ें, यात्रियों की भीड़ और संस्कृत के मंत्र गूंजते रहते हैं। यहाँ चलते हुए आपको महसूस होगा कि आप 21वीं सदी में नहीं, बल्कि किसी पौराणिक कालखंड में चल रहे हैं।
यहाँ की हवा में अगरबत्ती, गेंदे के फूल, पुराने मकानों की सीलन और चंदन की मिली-जुली सुगंध रची-बसी है।
'धम-धम' की गूँज और सोंधी महक
रमना गली की पहचान है,जिसका बीड़ा अभी टेकारी रोड ने उठा लिया है।
सर्दियों में इस सड़क से गुजरना एक अलग अनुभव है। दोनों तरफ तिलकुट कूटने की 'धम-धम' की एकलयबद्ध आवाज़ किसी नगाड़े की तरह बजती है। यह गया का अपना लोक-संगीत है।
यहाँ की हवा में गुड़ के पकने और तिल के भुनने की इतनी मिठास होती है, सुगंध होती है कि पेट भरा होने पर भी मुँह में पानी आ जाए। यह गली गया के 'स्वाद का राजमार्ग' है।
शहर की धड़कन
यानी गया की मुख्य धमनी जी.बी. रोड और टॉवर चौक है, जहाँ जीवन अपनी पूरी रफ्तार से दौड़ता है।
जीवन का मेला: यहाँ रिक्शा की घंटियाँ, ऑटो का शोर, दुकानदारों की आवाज़ें और रंग-बिरंगी दुकानों की कतारें हैं। यह गली कभी सोती नहीं है। पुरानी इमारतों के नीचे चमकते हुए आधुनिक शोरूम यह बताते हैं कि गया बदल रहा है, पर अपनी जड़ों को छोड़े बिना।
इसी से सटी बजाजा रोड है, जहाँ कभी कपड़ों की दुनिया हुआ करती थी ,आझ यहाँ मिली जुली दुकानें है। यहाँ की भीड़ और संकरापन कभी कभी धक्का-मुक्की का 'आनंद' भी देता है और गया के बाज़ार की रौनक भी दिखाता है।
फल्गु नदी के उस पार, मानपुर की गलियाँ एक अलग ही कहानी कहती हैं।
: इन गलियों में प्रवेश करते ही हर घर से हथकरघा चलने की 'खट-खट' सुनाई देगी। पटवा टोली की ये संकरी गलियाँ गया के हुनर और परिश्रम का प्रतीक हैं, जहाँ के गमछे और चादरें देश-विदेश में जाते हैं।
शिक्षा के मामले में यह सबसे समृद्ध क्षेत्र है ।
जहाँ यक फल्गु तट की पगडंडियों की बात है तो
शहर की सारी गलियाँ अंततः जाकर फल्गु नदी के तट पर 'मोक्ष' प्राप्त कर लेती हैं।
शहर के कोलाहल से निकलकर जब आप श्मशान घाट या सीता कुंड की ओर जाने वाली पगडंडियों पर चलते हैं, तो अचानक एक अजीब सी शांति महसूस होती है। यहाँ की रेत (बालू) पर चलते हुए लगता है कि हम अपने पूर्वजों की स्मृतियों पर चल रहे हैं।
गया की गलियों का सार
गया की गलियों में खो जाना आसान है, लेकिन यही इनकी खूबसूरती है।
परंतु आज गया की सड़कों पर सरकार का राज नहीं, 'नीले और हरे टेम्पो -टोटो' (E-rickshaw) वालों का राज चलता है।
आप अपनी फरारी भी ले आएँ, लेकिन GB रोड पर टोटो वाला आपको ऐसे कट मारेगा कि आप अपनी ड्राइविंग भूल जाएँगे।
इनकी खासियत है कि इनकी डिक्शनरी में 'ब्रेक' शब्द नहीं है। ये दो इंच की जगह में से भी अपनी गाड़ी ऐसे निकाल लेते हैं जैसे सुई में धागा डाल रहे हों। अगर गलती से सट गया, तो उधर से भारी भरकम आवाज़ आएगी— "का हो! दीखता न है का?" (भले ही गलती उन्हीं की हो!)
गया के 'ट्रैफिक पुलिस' यहाँ की लावारिस बनी पालतु गाएँ लावारिस कुत्ते हैं और गलियों के असली मालिक भी। यहाँ की गलियों में चलने के लिए 'कलाकार' होना पड़ता है।
पैदल चल रहे हैं तो कोहनी (elbow) तैयार रखनी पड़ती है।
यहाँ 'Excuse me' नहीं चलता। यहाँ चलता है— "अरे भाई, तनी सट के!" या फिर "हटाइए न जी सइकिलवा!"
और अगर जाम लगा हो, तो हर दूसरा आदमी ट्रैफिक पुलिस बन जाता है— "अरे ऊ टोटो वाला के पीछे करो न बे!"यहाँ आपको 'अनुशासन' नहीं, बल्कि 'अपनापन' मिलेगा। कभी किसी रिक्शा वाले की डांट, तो कभी किसी हलवाई का स्नेहपूर्ण आग्रह—यही इन गलियों का जीवन है।जिसने गया की गलियों में घूमकर, मगही में बतियाते हुए, गर्म तिलकुट का स्वाद नहीं लिया, उसने बिहार के एक बहुत बड़े सांस्कृतिक अनुभव को मिस कर दिया। गया-जी सचमुच में अद्भुत है।
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