"गवाक्ष में ठहरा हुआ क्षण"
पंकज शर्माधूप जब दीवार से टकराती है
तो केवल उजास नहीं बनती,
वह समय को भी छील देती है—
मिट्टी की देह पर
एक प्रश्नचिह्न उकेरती हुई।
वहाँ कोई आकृति है,
या केवल चेतना का भार
जो आकार खोज रहा है?
रेखाएँ—
सीधी नहीं,
न पूरी तरह टेढ़ी—
जैसे जीवन की राहें।
श्वेत में बँधी हुई
एक असमाप्त पुकार,
जो कहती है—
रचना, दरअसल,
अस्वीकार का ही दूसरा नाम है।
हाथ में थमी कूची
किसी साधन-सी नहीं लगती,
वह तो प्रश्न है—
क्या मैं रचती हूँ,
या मुझसे रचा जाता है?
नियति की उँगली
मेरी उँगलियों में उतर आई है,
और मैं माध्यम भर हूँ।
यह स्त्री—
पीठ किए हुए—
कोई पलायन नहीं,
एक मौन स्वीकृति है।
पीछे छूट गया है चेहरा,
क्योंकि सत्य
सदा दृष्टि के
विपरीत दिशा में बैठता है।
गवाक्ष है दीवार पर,
पर खुलता कहीं नहीं।
वह बाहर नहीं,
भीतर की ओर ले जाता है—
जहाँ प्रकाश भी
संकोच से प्रवेश करता है,
और अंधकार
अभ्यस्त नागरिक-सा ठहर जाता है।
गेरुए और श्वेत का संवाद
विरोध नहीं रचता,
वे एक-दूसरे को सहते हैं—
जैसे देह आत्मा को,
और आत्मा देह को।
यहीं जन्म लेती है
वह लय,
जिसे हम जीवन कहते हैं।
हर बिंदु में
एक विस्मृत पूर्वज की साँस है,
हर रेखा में
अधूरा उत्तर।
यह कला नहीं—
यह स्मृति का श्रम है,
जो रक्त में उतरकर
संस्कार बन जाता है।
अंततः कुछ भी स्थिर नहीं—
न दीवार, न आकृति, न मैं।
केवल एक क्षण
जो रचते-रचते
स्वयं रचना बन गया।
क्षणभंगुर,
फिर भी चिरंतन—
यही है
अस्तित्व का एकमात्र सत्य।
. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍️ "कमल की कलम से"✍️ (शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)
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