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छुप-छुप के दर्द से

छुप-छुप के दर्द से

✍️ डॉ. रवि शंकर मिश्र "राकेश"
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छुप-छुप के दर्द से न यूँ दिल को शर्मसार कर
ग़म की धूल झटक के, नई ख़ुशियाँ संवार कर

रुसवाईयों के बीच भी उम्मीद को थाम ले
टूटे हुए ख़्वाब को तू मामूली न कर कर


आइनों की कशिश में न खुद को तलाश दे
चेहरे पे मुस्कुराहट का इक उजाला उतार कर


राहों में चाहे जितने भी तूफ़ान क्यों न हों
खुद पर यक़ीं का दीया हर कदम पे मार कर


दिल में अगर मोहब्बत की चिंगारी रह गई
उसको हया से, प्यार से फिर से दहका कर


थक कर न रुक, सफ़र में अभी और भी रंग हैं
जीवन की इस किताब को नई दुआ से सँवार कर


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