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बिहार चुनाव परिणाम के निहितार्थ

बिहार चुनाव परिणाम के निहितार्थ

डॉ राकेश कुमार आर्य
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के परिणाम सभी के लिए चौंकाने वाले रहे हैं। भाजपा के भीतर भी कई लोग ऐसे थे जो यह नहीं सोच पा रहे थे कि उन्हें इतनी अधिक सीटें प्राप्त हो सकती हैं ? यद्यपि पूर्व वित्तमंत्री और भाजपा के बड़े नेता रहे यशवंत सिन्हा अवश्य यह मान रहे थे कि इस बार राजग 200 पार जा सकता है। चुनाव परिणामों के अनुसार राजग 202 ( बिहार में सरकार बनाने के लिए 122 विधायकों की आवश्यकता होती है ) सीटों के साथ विपक्ष का सूपड़ा साफ करने में सफल हुआ है। जिसके चलते राष्ट्रीय जनता दल, कॉन्ग्रेस और उनके साथियों का महागठबंधन 35 सीटों पर सिमट गया है। जबकि एआईएमआईएम को 5 सीटें मिली हैं।
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में सम्मिलित भारतीय जनता पार्टी 101, जदयू 101, चिराग पासवान की पार्टी लोजपा 29, उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएम 6 और जीतनराम मांझी की पार्टी भी 6 सीटों पर चुनाव लड़ रही थीं। इसी प्रकार महागठबंधन में सम्मिलित राष्ट्रीय जनता दल 143, कांग्रेस 61, वाम दल 30 और वीआईपी 9 सीटों पर अधिकारिक रूप से चुनावी मैदान में थीं।
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने भाजपा के नेतृत्व में जिस प्रकार बिहार विधानसभा में प्रचंड बहुमत प्राप्त किया है, उसके दूरगामी परिणाम होंगे। इसकी गर्मी हम पश्चिम बंगाल सहित उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव 2027 में ही नहीं अपितु 2029 के लोकसभा चुनावों में भी अनुभव करेंगे। बिहार के परिपक्व मतदाताओं ने अपनी बौद्धिक क्षमताओं का परिचय देते हुए सिद्ध किया है कि उनके लिए राष्ट्र प्रथम है। उन्होंने इस चुनाव के माध्यम से यह भी सिद्ध कर दिया है कि बिहार उस चाणक्य की उर्वरा भूमि है जो छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों की राष्ट्र विरोधी नीतियों और राजनीति का विरोध कर राष्ट्रीय एकता और अखंडता को मजबूत करने में आज भी सक्षम है। इसलिए बिहार का मतदाता बधाई का पात्र है। उसने देश के अन्य लोगों के लिए नया मार्ग खोला है। उन्हें चिंतन की नई ऊंचाई प्रदान की है।
इन चुनाव परिणामों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि देश के लोग राष्ट्र निर्माण में लगे उन हाथों को मजबूत करना चाहते हैं जो राष्ट्र के सम्मान के प्रति समर्पित होकर कार्य कर रहे हैं। प्रधानमंत्री श्री मोदी के नेतृत्व में आस्था व्यक्त कर बिहार के मतदाताओं ने उनको नया बल प्रदान किया है, नई ऊर्जा प्रदान की है और उन्हें स्पष्ट संदेश दिया है कि वह अपने 'मिशन' में लगे रहें, हम सब उनके साथ हैं। विपक्ष के नेताओं ने राहुल गांधी के नेतृत्व में जिस प्रकार की भाषा का प्रयोग करते हुए केवल ' वोट चोर - वोट चोर ' का शोर अपनी चुनावी सभाओं में मचाने का काम किया, उसको बिहार के मतदाताओं ने पूर्णतया नकार दिया है। राहुल गांधी का पप्पूपन लोगों के मस्तिष्क से अब गायब हो चुका है और अब लोग उनकी ढीठता को गंभीरता से लेने लगे हैं। लोग समझ गए हैं कि राहुल गांधी सत्ता की प्राप्ति के लिए उतावले होकर कहां तक जा सकते हैं ? जिस नेता ने अपनी पार्टी से अपनी विरासत का ' ड्रेस कोड' गायब कर दिया हो, टोपी गायब कर दी हो, वह कुछ भी गायब कर सकता है- लोग इस बात को अच्छी प्रकार समझ चुके हैं।
यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि कांग्रेस और उसके नेता राहुल गांधी अभी भी गंभीरता से अंतर्मंथन करने को तैयार नहीं हैं।
वे लोगों में नया भ्रम उत्पन्न करने का राष्ट्र विरोधी कार्य कर रहे हैं। लगता है उनकी डोर कहीं और से हिल रही है। इसलिए वह स्पष्ट जनादेश को भी धोखे में परिवर्तित कर देना चाहते हैं। यद्यपि इन चुनावों में वह अपनी हार उस दिन स्वीकार कर चुके थे, जब उन्होंने बिहार विधानसभा की कुल सीटों में से मात्र 61 सीटों पर लड़ने का राष्ट्रीय जनता दल का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था। इससे स्पष्ट होता है कि वे अपनी पार्टी की औकात और अपनी हैसियत दोनों को जानते थे। इसके उपरांत भी वे लोगों को बरगलाने का कार्य कर रहे हैं। उनसे इस समय देश की राजनीति को सावधान रहने की आवश्यकता है।
राष्ट्रीय जनता दल के 9 वीं फेल नेता तेजस्वी यादव को भी बिहार की जनता ने धो दिया है। उनके पिता का भ्रष्टाचार उन्हें याद दिला दिया गया है। इसके अतिरिक्त पिछले 5 वर्ष में उन्होंने बिहार के सम्मान के विरुद्ध जो कुछ भी किया है, उसकी भी उन्हें जानकारी दे दी गई है। उन्हें यह भी बता दिया गया है कि बदली हुई परिस्थितियों में उन जैसा कुपढ नेता बिहार को नहीं चाहिए। बिहार के मतदाताओं ने यह भी स्पष्ट किया है कि राजनीति किसी परिवार की जागीर नहीं हो सकती। आज देश में लोकतंत्र है, जिसे किन्हीं खास परिवारों के हाथों में नहीं सौंपा जा सकता और न ही इसे किसी परिवार विशेष का बंधुआ मजदूर बनाया जा सकता है । इसमें ग्राम प्रधान से लेकर देश के प्रधान बनने के लिए प्रत्येक व्यक्ति के लिए रास्ते खुले होने चाहिए। यदि कोई परिवार लोकतंत्र को अपनी राजनीतिक विरासत बनाने का काम करता हुआ पाया जाता है तो देश के लोग अथवा किसी प्रदेश के परिपक्व मतदाता अब उसे स्वीकार नहीं करेंगे। बिहार के चुनावों से निकला यह संदेश मायावती, अखिलेश यादव सहित राहुल गांधी तक के लिए स्पष्ट संदेश दे रहा है की परिवारवादी लोकतंत्र के दिन अब लद चुके हैं।
नेता प्रतिपक्ष के लिए परंपरा रही है कि किसी विधानसभा या देश की लोकसभा की कुल सदस्य संख्या के दसवे भाग के बराबर जिस पार्टी के पास सदस्य होते हैं, वही सदन में नेता प्रतिपक्ष का पद प्राप्त कर सकती है। 1977 में यह परंपरा स्थापित की गई थी। 2014 में जब कांग्रेस के पास नेता प्रतिपक्ष बनने के लिए आवश्यक सदस्य संख्या नहीं थी, तब तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने अटॉर्नी जनरल से इस संबंध में राय ली थी कि क्या कांग्रेस को यह पद दिया जा सकता है ? तब अटॉर्नी जनरल ने यह स्पष्ट किया था कि नेता प्रतिपक्ष बनने के लिए 1977 के संबंधित कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि उसके पास सदन की कुल संख्या के 10 वें भाग की बराबर के सदस्य होने चाहिए। यह निर्णय लेना सदन के अध्यक्ष का कार्य है कि वह सबसे बड़े दल को नेता प्रतिपक्ष का दर्जा देता है या नहीं । तब सुमित्रा महाजन ने लोकसभा अध्यक्ष के रूप में कांग्रेस को यह पद देने से इनकार कर दिया था। बिहार में नेता प्रतिपक्ष के लिए जनता ने 25 सीट राजद को देकर उसे थोड़ी राहत दे दी है। तेजस्वी यादव के लिए इतना पुरस्कार भी बहुत बड़ी बात है।
( लेखक डॉ राकेश कुमार आर्य सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं)
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