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"अनंत आकाश की देहली पर"

"अनंत आकाश की देहली पर"

पंकज शर्मा
हरित लहरियों का यह विस्तीर्ण विस्तार,
मानो पृथ्वी ने अपने मन को खोल दिया हो।
शीतल समीर के स्पर्श से,
घास की प्रत्येक पत्ती में प्राण का गान झंकृत है।


आसमान — एक निर्मल ध्यान की मुद्रा में,
स्वयं को अनंत में विलीन करता हुआ।
उसकी नीलिमा में घुली है
एक अदृश्य शांति, जो शब्दातीत है।


क्षितिज की वह पतली रेखा —
जहाँ धरती और गगन एक-दूसरे को आलिंगन देते हैं,
वहीं स्थिर है सृष्टि का श्वास,
वहीं थम जाता है समय का कलरव।


मौन यहाँ कोई रिक्तता नहीं,
बल्कि एक गूढ़ वाणी है —
जो कहती है, "जो कुछ है, वही पर्याप्त है,"
और जो नहीं, वह भी अपने रूप में सुंदर।


प्रकृति की यह हरित चादर,
मानव के अशांत अंतर में बिछने को आतुर है।
परंतु मन, सीमाओं का बंदी,
इस मुक्त विस्तार से भयभीत रहता है।


वृक्ष, पवन, घास, और नभ —
सब एक ही अनलिखे शास्त्र के श्लोक हैं,
जहाँ अर्थ नहीं, अनुभव प्रधान है,
जहाँ दर्शन स्वयं अपने में विलीन होता है।


इस दृश्य में कोई घटना नहीं घटती,
परंतु सब घटित होता है —
जैसे मौन में भी संगीत पलता है,
और रिक्तता में भी सृजन का बीज अंकुरित होता है।


मैं देखता हूँ —
और देखने में ही एक ध्यान जन्म लेता है।
धरती कहती है — “मैं हूँ।”
आसमान उत्तर देता है — “और तू अनंत।”


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
✍ "कमल की कलम से"✍
(शब्दों की अस्मिता का अनुष्ठान)

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