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"मौन की दरारें"

"मौन की दरारें"

पंकज शर्मा
जब संवाद की लौ मंद पड़ने लगती है,
घर की दीवारें भी अपने अर्थ खो देती हैं।
शब्दों के बीच का खालीपन
धीमे-धीमे एक अथाह खाई बन जाता है।


साथ रहते हुए भी जो दूरियाँ जन्म लेती हैं,
वे किसी आकस्मिक वज्रपात से नहीं,
हृदय के अनकहे बोझ से
दिन प्रतिदिन चुपचाप पनपती हैं।


मन के भीतर जो रिक्त कोने उजाड़ होते जाते हैं,
वे स्वयं में एक विलाप हैं—
एक ऐसा विलाप, जिसे सुनने के लिए
कोई कान नहीं बचता, कोई प्रयास नहीं उठता।


अस्पर्शित भावों का संचय
कभी-कभी किसी मौन तूफ़ान का रूप ले लेता है।
और उस तूफ़ान में
सबसे स्थिर प्रेम भी दिशाहीन हो जाता है।


कभी लगता है, एक क्षणिक स्पर्श,
एक सच्चा संवाद,
एक नज़र भर अपनापन—
बहुत-सी टूटनें टाल सकता था।


पर जब मन की खिड़कियाँ ही बंद हो जाएँ,
तो रोशनी चाहे जितनी उजली हो,
अंधेरा भीतर अपनी जगह बना लेता है
और फिर वहीं स्थायी हो जाता है।


रिश्तों का पतन अचानक नहीं होता;
यह धीरे-धीरे घटित होता है—
उसी तरह जैसे कोई दीप
तेल समाप्त होने पर बिना शोर बुझे।


और जब सब कुछ शांत हो जाता है,
तब समझ आता है कि प्रेम का अंत
किसी विदाई में नहीं,
बल्कि उन अनसुने स्वर-कणों में छिपा था
जो कहते-कहते रह गए—
सुन लो… बस थोड़ा-सा सुन लो।


. स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित 
 ✍️ "कमल की कलम से"✍️
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